दो शब्द
इस सृष्टि के कर्त्ता की सर्वोत्तम कलाकृति नारी है । उसे अन्य जीवधारियों की तरह जीवित रह सकने योग्य सामग्रियों से ही नहीं, विशिष्ट भाव संवेदनाओं के साथ गढ़ा गया है । उसकी इसी विशेषता ने इस सृष्टि की भौतिक शोभा में दिव्य सौंदर्य एवं असीम उल्लास भर दिया है ।।
नारी की विशिष्ट भाव संपदा से ही अभिभूत होकर भारतीय संस्कृति ने उसे जगन्माता के गरिमामय पद पर अधिष्ठित कर उसे बार- बार नमन किया है
या देवी सर्व भृतेषु मातृ रूपेण संस्थिता ।।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।
नारी को मात्र भोग- विलास की वस्तु न समझकर उसकी भाव संपदा का समुचित आदर किया जाना, उसके प्रति श्रद्धा का भाव रखना आज की महती आवश्यकता है ।। उसके प्रति किए गए अन्यायों के प्रतिकार के लिए नर को ही आगे आना पड़ेगा और उसके उत्थान हेतु हर, संभव प्रयास करना होगा ।। नारी भी अपनी दीर्घकालीन प्रसूति से जागकर अपने मूल स्वरूप को पहचाने, अपने विकास के स्वयं प्रयत्नशील हो और जगत के कल्याण के लिए, जिस निमित्त उसकी सृष्टि हुई है, अपनी भाव संपदा का उन्मुक्त भाव से वितरण करे ।। इसी में नर और नारी दोनों का ही हित सन्निहित है और संसार की सुख, शांति और अभ्युत्थान भी ।।
ऐसे ही प्रेरक भावों से परिपूर्ण एवं दिशा दर्शक कुछ अवतरण इस पुस्तक में संकलित किए गए हैं दोनों ही पक्ष नर और नारी संकलित अवतरणों में व्यक्त विचारों पर चिंतन- मनन करते हुए अपने अपने कर्तव्य निर्धारण में सफल हो सकें, इसी में इस छोटी सी पुस्तक के प्रकाशन की सार्थकता है ।। ..........