परिवार और उसका निर्माण

जिस प्रकार हाथ-पाँव, सिर धड़ आदि से मिलकर एक पूरा शरीर बनता है, उसी प्रकार परिवार के विभिन्न सदस्यों के सम्मिलित स्वरूप से ही मानव-जीवन का समग्र ढाँचा खड़ा होता है । परस्पर मिल-जुल कर रहने और एक दूसरे की सहायता करने की प्रवृत्तियों के आधार पर ही मानव-जीवन की समस्त प्रगतियाँ संभव होती हैं और इन प्रवृतियो के अभास का अवसर पारिवारिक-जीवन में ही सहज उपलब्ध हो जाता है । एकाकी ममनुष्य सर्वथा अपूर्ण है । इस प्रकार जीवन-यापन करने वाले व्यक्ति की क्षमता और प्रतिभा विकसित होने के स्थान पर कुंठित ही होती है । योग साधन के लिए कुछ समय एकांत सेवन करना पड़े तो वह एक सामयिक व्यवस्था है, पर मूलत: तो जीवन- विकास और सामूहिक उत्कर्ष के लिए मिल-जुल कर ही रहना पड़ता है । परिवार लौकिक सुविधाओं की दृष्टि से ही नहीं, आत्मिक सद्गुणों को अभ्यास में लाने के लिए भी आवश्यक है । ईश्वर ने जितनी समाज-सेवा अनिवार्य रूप से हमे सौंपी हैं वह परिवार ही है । किसी भी व्यक्ति की आध्यात्मिक एवं सामाजिक जिम्मेदारी उसके पारिवारिक कर्तव्यों के साथ मजबूती के साथ बंधी हुई है । परिवार को सुविकसित करने के लिए निरंतर सचेष्ट रहना मानवता की सेवा को दृष्टि से नितांत आवश्यक

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