नारी के अंतर्मन में आत्महीनता की ग्रंथि पीढि़यों से जम गई है, वह स्वयं अपने को हीन, असमर्थ, दीन-दुर्बल, पराधीन, दुर्भाग्य की मारी हुई मान बैठी है । इस मान्यता के रहते न कोई बडा़ सुधार हो सकेगा और न बडा़ परिवर्तन । स्थिति बदलने के लिए बाहर से थोपे गए उपाय उतने कारगर नहीं हो सकते जितने कि पीडि़त पक्ष के तनकर खडे़ हो जाने पर संभव होता है, इसलिए न केवल शिक्षा की वरन् उत्कर्ष का इस स्तर तक उभार होना चाहिए कि उसे चरण दासी बने रहने की स्थिति स्वीकार नहीं वरन् वह पुरुष पर शासन करने की स्थिति तक पहुँचकर रहेगी और दबाव से नहीं वरन् स्वेच्छा से उसे सदभाव भरा सहयोग प्रदान करेगी । माता के रूप में वह संतान का पोषण भी करती है और मार्गदर्शन भी । पत्नी रूप में वह पति को सघन आत्मीयता का अमृत भी पिलाती है, साथ ही उच्छृंखलता न बरतने वाला अंकुश भी लगाती है । भगिनी और पुत्री दबाव तो उतना नहीं दे पाती, पर अपने भाव भरे संवेदन द्वारा भाई या पिता को मर्यादा में रहने के लिए प्रकारांतर से बाधित अवश्य करती है । यह शाश्वत समर्थता अब तक इन दिनों प्रयुक्त हो नहीं