प्राचीन काल की सौम्य, शान्त और समुन्नत परिस्थितियों में भी यह आवश्यक समझा गया था कि नारी को उच्च सम्मान प्रदान करके उसकी अन्त: विभूतियों को अधिकाधिक विकसित होने दिया जाय ताकि वह अपने अनुदानों से समस्त मानव समाज को अधिकाधिक सौभाग्य सम्पन्न बनाती चले । उस जमाने में आर्थिक या दूसरी तरह की सांसारिक कठिनाइयाँ सामने न थी जिनके लिए नारी का अधिक श्रम अपेक्षित होता । उन दिनों दूसरी सामाजिक या पारिवारिक विसंगतियां भी ऐसी नहीं थीं कि उनके हल करने में नारी को कष्ट देने की आवश्यकता पड़ती । फिर भी यह आवश्यक समझा गया कि मनुष्य जाति की शान्ति, समृद्धि एवं समुन्नत स्थिति को बनाये रखने के लिए नारी का भावनात्मक योगदान मिलता रहे । अस्तु मानव समाज के ढाँचे में रीढ़ की हड्डी की तरह अति महत्वपूर्ण सत्ता नारी को श्रेष्ठ संतुलन बनाने योग्य रखना ही चाहिए इसके लिए उसे पुरुष का सम्मान और सहयोग उच्चतम स्तर का मिलना ही चाहिये । यह समन्वय ही अपने अतीत के गौरवास्पद प्रगति रथ की धुरी है।
उस समय नारी को भाव-क्षेत्र ही सँभालना पड़्ता था, पुरुष अपने पद के अनुरूप भौतिक पुरुषार्थ कर लेता था । पर आज तो स्थिति सर्वथा भिन्न है । उन दिनों सौम्य समुन्नत वातावरण को अधिकाधिक स्नेह संवेदना युक्त बनाने के लिए ही नारी सहयोग अपेक्षित था आज तो मनुष्य की चिन्तन