सद्भाव और सहकार पर ही परिवार संस्था निर्भर

दांपत्य जीवन की शुरुआत करते समय भारतीय वर-वधू परस्पर प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं कि हम एक-दूसरे के प्रति कर्त्तव्य-निष्ठ रहेंगे, उदार रहेंगे, सहयोग करेंगे और प्रगति पथ पर साथ-साथ आगे बढ़ेंगे । यह प्रतिज्ञा यदि निष्ठापूर्वक दोनों ओर से निभाई जाए तो निश्चय ही दंपत्ति एक सुदृढ़ सम्मिलित इकाई के रूप में सक्रिय रहते हैं और उनका जीवन आनंद, प्रकाश तथा प्रगति की सुरभि से महक उठता है । ऐसे दंपति जिस समाज में रहते है, वह समाज एक सुरभित उद्यान बना रहता है ।

दांपत्य जीवन की सफलता के लिए इन दिनों शारीरिक स्वास्थ्य, आर्थिक समृद्धि, शिक्षा और सौंदर्य को आधार मानने की रीति है । निस्संदेह, सांसारिक जीवन को चलाने के लिए ये सभी आवश्यक हैं, पर भौतिक उपकरणों से भी पहले गहन आत्मीयता और सघन संवेदना की उपस्थिति दांपत्य जीवन की आरंभिक शर्त है । यदि भावनाओं से पति-पत्नी एक दूसरे से अर्द्धांग रूप से जुड़े रहते है उनमें प्रेम एवं आत्मीयता भरी रहती तो भौतिक साधन उन्हें सर्वोपरि नहीं प्रतीत होंगे बाह्य आकर्षण उन्हें उतने आवश्यक नहीं लगेंगे ।

प्रेम और आकर्षण दो भिन्न तत्व है । शारीरिक गठन व स्वास्थ्य और सौंदर्य के अनुपात से घटती-बढ़ती रहने वाली राग वृत्ति को आकर्षण कहते हैं, जबकि प्रेम इससे भिन्न एक आध्यात्मिक तत्व है जो दांपत्य जीवन में मधुरता का, कठिन परिस्थितियों में भी सघन आत्मीयता और कर्त्तव्य निष्ठा का आनंद-प्रमोद तथा आह्वान का संचार करता रहता है । अंतःकरण का संतोष ही उसे पालता है ।

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