''युग अवतरण की वेला में उस वाक् शक्ति का युगशक्ति के रूप में प्रयोग होना है, जो हिमालय जैसे व्यक्तित्व के मुख गोमुख द्वारा भगवती भागीरथी की तरह प्रकट होती है और संपर्क क्षेत्रों को पवित्रता एवं प्रखरता से भरती चली जाती है । ऐसी वाणी मात्र चमड़े की जीभ हिलने भर से प्रादुर्भूत नहीं होती, वरन् उसका मूल उद्गम किसी गहन अंतराल से निःसृत होता है । गंगा प्रकट तो गोमुख-गंगोत्री से होती है, पर उसका मूल स्रोत उस कैलाश-मानसरोवर में है, जिसे सुमेरु या शिव निवास कहते हैं । शंकर की जटाओं से भागीरथी निःसृत होती है, उसका तात्पर्य गरिमामयी वाणी के संदर्भ में मनुष्य के अंतःकरण को कहा जा सकता है, जिसे व्यवहार की भाषा में व्यक्तित्य का मर्म संस्थान कहते हैं । इस क्षेत्र का जैसा स्तर होगा, वाणी का प्रभाव भी तदनुकूल ही दृष्टिगोचर होगा, भले ही वह शब्द गुंथन की दृष्टि उतनी परिष्कृत न हो ।''