आन्तरिक उल्लास का विकास

प्रसन्नता, आनन्द और संतोष की प्राप्ति के लिए लोग संसार को छान डालते हैं, इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, वस्तुओं के संग्रह की धूम मचा देते हैं तया अनेक प्रकार की चेष्टाऐं करते हैं, इतने पर भी अभीष्ट वस्तु प्राप्त नही होती । सारे कष्ट साध्य प्रयास निरर्थक चले जाते हैं, मनुष्य प्यासे का प्यासा रह जाता है । कारण यह है कि उल्लास का उद्गम अपनी आत्मा है, संसार की किसी वस्तु में वह उपलब्ध नहीं हो सकता । जब तक यह तथ्य समझ में नहीं आता, तब तक बालू से तेल निकालने की तरह आनन्द प्राप्ति के प्रयास निष्फल ही रहते हैं । जब हम यह समझ लेते हैं कि आनन्द का स्रोत अपने अन्दर है और उसे अपने अन्दर से ही ढूँढ निकालना होगा, तब सीधा रास्ता मिल जाता है । आंतरिक सद्वृत्तियों को विकसित करके, आंतरिक उल्लास को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है ? बिना भौतिक वस्तुओं का संचय किये किस प्रकार हम हर घड़ी आनन्द में सरावोर रह सकते हैं ? यह तथ्य इस पुस्तक में बताया गया है । आशा है कि पाठक इससे लाभ उठावेगे ।

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