प्रज्ञॊपनिषद् खन्ड-4

गुरुकुलेषु तदाऽन्येषु छात्रा आसंस्तु ये समे।
गुरुजनै: सह ते सर्वेऽप्यायाता द्रष्टुत्सुका:॥ १॥
ऋषे: कात्यायनस्येमां व्यवस्थामुत्तमामपि ।।
तस्याऽध्यापनशैली तां चर्या च ब्रह्मचारिणाम्॥ २॥
तै: श्रुतं यन्महर्षेर्यद् विद्यते गुरुकुलं शुभम्।
छात्रनिर्माणशालेव यत्रत्या: स्नातकास्तु ते॥ ३॥
समुन्नता भवन्त्येवं मन्यंते संस्कृता अपि।
सफला लौकिके संति समर्था अपि जीवने॥ ४॥
संपन्ना अपि चारित्र्य - संयुक्ता व्यक्तिरूपत: ।
उदात्तास्ते तथैवोच्चैस्तरा गणयंत उत्तमै:॥ ५॥

टीका—एक बार अन्यान्य गुरुकुलों के छात्र अपने- अपने गुरुजनों समेत महर्षि कात्यायन के आश्रम की व्यवस्था और अध्ययन शैली व दिनचर्या का पर्यवेक्षण करने आए। उनने सुना था कि कात्यायन का गुरुकुल टकसाल है, जिसमें पढ़कर निकलने वाले स्नातक न केवल समुन्नत होते हैं, वरन् सुसंस्कृत भी माने जाते हैं। वे लौकिक जीवन में समर्थ, सफल और संपन्न रहते हैं तथा व्यक्ति गत जीवन में चरित्रवान्, उदात्त एवं मूर्द्धन्य स्तर के गिने जाते हैं॥

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