सावित्री विज्ञान और तंत्र साधना

परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री-साधना के साथ-साथ सावित्री-साधना, सूर्य देवता की विशिष्ट उच्चस्तरीय साधना को स्वयं अपने जीवन में विशेष उद्देश्यों के निमित्त संपन्न किया था । उनकी साधनावधि से एक बहुत बड़े भाग को गुह्य माना जा सकता है । चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस अनुष्ठानों के साथ-साथ भी उनकी सौरशक्ति के संदोहन वाली विशिष्ट साधना चलती रही । १९५८ का सहस्रकुंडीय यज्ञ इसी दिशा में एक विशेष प्रयोग था, जो सफलतापूर्वक संपन्न हुआ । परमपूज्य गुरुदेव ने प्राणाग्नि, कुंडलिनी, अंदर प्रसुप्त पड़ी सर्पिणी पर यों तो पहले भी समय-समय पर लिखा पर विस्तार से इसकी जानकारी सुधी पाठकों को अपने ११६०-६१ के हिमालय प्रवास से लौट कर ही देना आरंभ की, वह भी क्रमश: छोटे-छोटे सूत्रों के रूप में । सावित्री-साधना एवं कुंडलिनी महाशक्ति का जागरण एवं उसकी संसिद्धि एक विशिष्ट स्तर का पुरुषार्थ है, जिसे पूज्यवर जीवन-भर औरों को लाभ पहुँचाने के लिए करते रहे किंतु सूक्ष्मीकरण के माध्यम से यह प्रयोग और सघनतम एवं विराटतम रूप में ११८४- ८५ में संपन्न किया गया । वाड्मय के प्रस्तुत खंड में इसी साधना के स्वरूप सत्परिणामों की परिजनों को जानकारी करायी गई है । कुंडलिनी महाशक्ति के विषय में संव्याप्त भ्रांतियों का निवारण कर इस ज्ञान के महासागर पर छाए

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