इसे एक मनोवैज्ञानिक चक्रव्यूह ही कहना चाहिए कि हम अपने को भूल बैठे है । अपने आपको अर्थात आत्मा को । शरीर प्रत्यक्ष है, आत्मा अप्रत्यक्ष । चमडे से बनी आँखैं और मज्जा-तंतुओं से बना मस्तिष्क, केवल अपने स्तर के शरीर और मन को ही देख-समझ पाता है । जब तक चेतना-स्तर इतने तक सीमित रहेगा, तब तक शरीर और मन की सुख-सुविधाओं की बात ही सोची जाती रहेगी । उससे आगे बढकर तथ्य पर गंभीरतापूर्वक विचार कर सकना संभव ही न होगा कि हमारी आत्मा का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है और आंतरिक प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्या किया जा सकता है ?