मनुष्य समाज में वांछित परिस्थितियों का निर्माण दो आधारों पर ही संभव है । एक है, मानवीय अंतःकरण तथा दूसरा है, सूक्ष्म वातावरण । स्थूल साधन, सुविधाऐं एवं परिस्थितियों में भी परिवर्तन लाना तो होगा, किंतु वह वस्तुत उपर्युक्त दोनों तथ्यों पर आधारित है । मूल आधारों में परिवर्तन या तो संभव ही नहीं यदि हो भी जाये तो टिकाऊ नहीं रह सकता । मनुष्य के अंतःकरण के अनुसार ही उसकी गतिविधियाँ बनती हैं तथा उसी के अनुसार परिणाम उत्पन्न होने लगते है ।
व्यक्तियों की गतिविधियाँ जब श्रेष्ठता से समन्वित रहती है, तो उनके श्रम, समय, मनोयोग एवं साधनों का उपयोग सतयोजनों में होता है, फलत: सुखद परिस्थितियाँ बढ़ती जाती है । निरर्थक कार्यों में लगने से पिछडेपन की और अनर्थ कार्यो से अधःपतन की परिस्थितियाँ बनती हैं । जब जन-प्रवाह पतनोन्तुख होता है तो स्वभावत: अभाव, संकट एवं विद्रोह बढ़ते हैं । क्रिया की प्रतिक्रिया का कुचक्र चलता है और बुरे युग के पाप युग, नरक युग के समस्त लक्षण सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं । सत्प्रयत्नों के सत्परिणाम तो स्पष्ट ही है । धर्मराज्य, रामराज्य, सतयुग आदि ऐसे ही समय को कहा जाता है । युग कैसा है ? कैसा होगा ? इन प्रश्नों का उत्तर पर्यवेक्षण करके दिया