ब्रह्मवर्चस की पंचाग्नि विद्या

साधना के सिद्धांत को अत्युक्तिपूर्ण और अतिरंजित तभी कहा जा सकता है, जब उसमें से आत्म-परिष्कार के तथ्य को हटा दिया जाए और मात्र किया-कृत्यों के सहारे चमत्कारी उपलब्धियों का सपना देखा जाए । मानवी सत्ता में परमात्म सत्ता की सभी विशिष्टताऐं बीज रूप से विद्यमान हैं । इस अनुदान में स्रष्टा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र के प्रति अपने अनुग्रह का अंत कर दिया । इतने पर थी उसने इतना अंकुश रखा है कि पात्रता के अनुरूप उन विशिष्टाओं से लाभान्वित होने का अवसर मिले । जिस पात्रता का परिचय देने पर सिद्धियों का द्वार खुलता है वह और कुछ नहीं जीवन परिष्कार के निमित्त प्रस्तुत की गई पुरुषार्थपरायणता भर है । साधना विधानों में प्रयुक्त होने वाले क्रिया-कृत्य अगणित हैं । पर उन सबका मूल उद्देश्य एक है-जीवन के अंतरंग पक्ष को सुसंस्कृत और बहिरंग पक्ष को समुन्नत बनाना । जो साधना अपने विधि-विधानो के सहारे साधक को सुसंस्कारिता की दिशा में जितना अग्रसर कर पाती है, वह उतनी ही सफल होती है । साधना विधानों को काया और आंतरिक उत्कृष्टता को आत्मा कहा जा सकता है । काया और आत्मा के सम्मिलित स्वरूप को ही जीवन कहते हैं । ऋद्धि-सिद्धियों से-विभूतियों और समृद्धियों से भरा-पूरा जीवन उपलब्ध करने के लिए ऐसी साधना की आवश्यकता है, जिसमें क्रिया-कृत्यों के साथ-साथ आत्मिक अनुशासन भी जुड़ा है । ब्रह्मवर्चस साधना विधान में इन दोनों तथ्यों का समुचित समन्वय है, इसलिए उसकी सफलता भी सुनिश्चित है ।

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