अध्यात्म धर्म का अवलम्बन

कोई व्यक्ति न तो पूर्णत: दोषयुक्त ही होता है और न उसमें सब अच्छाइयाँ- ही होती हैं ।। गुण और दोषों के समन्वय से मनुष्य की रचना हुई है ।। उसका ठीक- ठीक विश्लेषण करने के लिए वैज्ञानिक बुद्धि चाहिए ।। डॉक्टर लोग शव परीक्षा करते समय लाश के अंग- प्रत्यंगों को चीरते हैं और जिस स्थान पर जो भले- बुरे तत्त्व मिलते हैं, उसका निरीक्षण पुस्तक में दर्ज करते हैं ।। इसी बुद्धि से दूसरों के गुणों पर विचार करना चाहिए ।। जान- बूझकर इरादतन बुरी भावना से जो दुष्कर्म किए जाते हैं, उनसे व्यक्ति अधिक दोषी बनता है; किंतु बहुत से काम ऐसे भी होते हैं जो भूल से, भ्रमवश, परिस्थितियों के कारण वह कर बैठता है ।। दुर्भाग्य से इरादतन वैसा करने की उसकी इच्छा नहीं होती ।। ऐसी दशा में वह उतनी मात्रा में दोषी न ठहराया जाएगा ।। जिसने खूब सोच- समझकर बुरी नीयत से दुष्कर्म किया है, वह क्रोध का अधिकारी है, किंतु जिसने भूल या परिस्थितिवश गलती की है, वह दया का पात्र है ।। इससे उनका व्यक्तित्व इतना निंदित नहीं बनता ।। इसी प्रकार पुण्य कर्मों के बारे में समझना चाहिए ।। सद्भावना से उत्कंठापूर्वक जो शुभ कर्म किए जाते हैं, वे वास्तविक पुण्य हैं ।। किंतु गलती से बिना जाने या परवश जो पुण्य बन पड़ते हैं, उनका उतना महत्त्व नहीं है ।। साधारण बुद्धि के लोग काम का स्थूल रूप देखकर कर्ता के बारे में भली- बुरी धारणा बना लेते हैं, पर यह गलत तरीका है ।। कामों का बाह्य रूप देखकर व्यक्ति का असली स्वरूप नहीं जाना जा सकता ।।

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