चिंता मन में केंद्रीभूत नाना दु:खद स्मृतियों तथा भावी भय की आशंका से उत्पन्न मानव मात्र का सर्वनाश करने वाली, उसकी मानसिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का हास करने वाली दुष्ट मनोविकार है । एक बार इस मानसिक व्याधि के रोगी बन जाने से मनुष्य कठिनता से इससे मुक्ति पा सके है, क्योंकि अधिक देर तक रहने के कारण यह गुप्त मन में एक जटिल मानसिक भावना ग्रंथि के रूप में स्थित रहती है । यहीं से हमारी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को परिचालित करती है । आदत बन जाने से, चिंता नैराश्य का रूप ग्रहण कर लेती है । ऐसा व्यक्ति निराशावादी हो उठता है । उसका संपूर्ण जीवन नीरस, निरुत्साह और असफलताओं से परिपूर्ण हो उठता है ।
चिंता का प्रभाव संक्रामक रोग की भाँति विषैला है । जब हम चिंतित व्यक्ति के संपर्क में रहते हैं, तो हम भी निराशा के तत्व खींचते है और अपना जीवन निरुत्साह से परिपूर्ण कर लेते है । " बहुत से व्यक्ति कहा करते है कि भाई अब हम थक गए, बेकाम हो गये । अब परमात्मा हमें संभाल ले तो अच्छा है" वे रोने को रोते रहते हैं कि हम बडे अभागे है कि कमनसीब हैं, हमारा भाग्य फूट गया है, दैव हमारे प्रतिकूल हैं, हम दीन है, गरीब है। हमने सरतोड़ परिश्रम किया, किंतु भाग्य ने साथ नहीं दिया । ऐसी चिंता करने वाले व्यक्ति यह नहीं जानते कि इस तरह का रोना रोने से हम अपने हाथ से अपने भाग्य को फोड़ते है, उन्नति रूपी कौमुदी को काले बादलों से ढक लेते है।"