ज्ञानयोग कर्मयोग भक्तियोग

योग का अर्थ है-मिलना । एक वस्तु में जब कोई दूसरी वस्तु मिलती है तो उस मिलन को योग कहते हैं । हमारा मन एकांगी है, उसमें पाशविक संस्कार जमे रहते हैं । इन संस्कारों में दैवी ज्ञान का, सत्तत्व का समावेश जिन उपायों से कराया जाता है, उन्हैं योग साधना कहते हैं । आज भ्रमवश ऐसा समझा जाता है कि योग साधना किन्हीं विशेष व्यक्तियों का काम है । जो घर-बार छोडकर जंगलों बनों में रहें, जटा रखें, भभूत लपेटें, भिक्षा मांगें, कमंडल, चिमटा, मृगछाला धारण करें, उन्हैं ही योग साधना करनी चाहिए पर वास्तविक बात ऐसी नहीं है । जीवन को समुन्नत, सुसंस्कृत और सुविकसित करने के लिए एक शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होती है, यह शिक्षा पढ़ने-लिखने की नहीं वरन जीवन में उतारने की-'गुनने' की होती है । यही व्यावहारिक सार्वभौम योग है । जीवन विज्ञान के भारतीय आचार्यों ने मनुष्य की आंतरिक मनोभूमि का उचित रीति से निर्माण करने के लिए तीन योगों का- ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग का आविष्कार किया है । इसे योगत्रयी कहते हैं । इस योगत्रयी का इस पुस्तक में इस प्रकार विवेचन किया गया है की पाठक इस गूढतत्व को आसानी से समझ लें । आशा है पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी ।

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