जब कोई समाज कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने व्यक्तिगत मान-अपमानों की परवाह किए बिना अपने राष्ट्र, अपनी मातृभूमि के अस्तित्व पर आए संकट या संघर्ष में अपने प्राणों की बाजी लगाता है या फिर बलिदान हो जाता है, तो वह व्यक्तिगत रूप से उस राष्ट्र और समाज की संस्कृति की ही रक्षा करता है और बलिदान होना ही उस बलिदानी वीर पुरूप की संस्कृति है ।
यह संस्कृति ही है, जो राष्ट्र पर मर मिटने के लिए प्रेरित करती है और मर कर भी जब संतोष नहीं होता है तो बलिदानी वीर पुरूष अगले जन्म में भी अपनी उसी मातृभूमि पर पैदा होकर अपने प्राणों को अपनी मातृभूमि के लिए अर्पित करने की ईश्वर से कामना करता है ।
कहते हैं कि किसी भी राष्ट्र और उसके नागरिकों के अस्तित्व के लिए संस्कृति उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना कि उनके लिए भोजन, हवा और पानी । जिस प्रकार भोजन, हवा और पानी के बिना कोई राष्ट्र और उसके नागरिक जीवित नहीं वह सकते उसी प्रकार बिना संस्कृति के राष्ट्र और नागरिकों का कोई आस्तित्व नही रह सकता है । इसलिए यह सत्यता है कि संस्कृति किसी व्यक्ति के प्राणो की रक्षा भले ही न करती हो पर राष्ट्र के अस्तित्व की रक्षा अवश्य करती है । इसलिए प्रत्येक राष्ट्र और जाति की अपनी अलग-अलग संस्कृति होती है, उसी के अनुसार उस समाज, उस राष्ट्र, उस जाति की पहचान होती है