भाव उत्कृष्टता से पूर्णता की प्राप्ति भावना के आधार पर पत्थर में भगवान् प्रकट होते हैं । इस जड़ जगत् में चेतन का साधारण स्वरूप तो वह है जिसके अनुसार जीव जन्मते-मरते, सोते-खाते और अपनी यात्रा पूरी करते है, पर विशिष्ट स्वरूप भावना में ही सन्निहित है । बाहर से देखने में मनुष्य देवता और असुर एक-सी ही शक्ल-सूरत के होते हैं, पर उनका भीतरी स्वरूप एक दूसरे से सर्वथा भिन्न होने के कारण उनका आचरण एवं व्यक्तित्व उसी के अनुसार ढल जाता है।
बाह्य जीवन में मनुष्य जैसा भी कुछ दीखता है वस्तुत: वह उसके आंतरिक स्वरूप का प्रतिबिंब मात्र ही होता है। मोटर किस दिशा में दौड़ रही है, इसमें श्रेय मोटर का नहीं ड्रायवर की इच्छा का है । वह चाहे तो क्षण भर में उसे मोड़्कर विपरीत दिशा में वापिस भी लौटा सकता है । इसी प्रकार जीवन का बाहरी ढर्रा आज जिस प्रकार का चल रहा है कल उसमें भारी परिवर्तन भी हो सकता है और वह परिवर्तन इतना बड़ा होना भी संभव है कि उसे आश्चर्य जैसा देखा या माना जाये ।