मनुष्य के अंतःकरण में दो प्रवृत्तियाँ रहती हैं, जिन्हें आसुरी एवं दैवी प्रवृति कहते हैं । इन दोनों में सदा परस्पर संघर्ष चलता रहता है। गीता में जिस गहाभारत का वर्णन है और अर्जुन को लडाया गया है यह वस्तुत आध्यात्मिक युद्ध ही है। आसुरी प्रवृतियाँ बडी़ प्रबल हैं कौरबों के रूप में उनकी बहुत लड़ी सख्या है । सेना भी उनकी बडी है। पांडव पांच ही है उनके सहायक और सैनिक भी थोड़े हैं। फिर भी भगवान् ने युद्ध की आवश्यकता समझी और अर्जुन से कहा लड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । तामसिक आसुरी प्रवृत्ति का दमन किये बिना सतोगुणी दैवी प्रवृति का अस्तित्व ही खतरे में पड जायेगा। इसलिए लडना जरूरी है । अर्जुन पहले तो झंझट में पडने से कतराया पर भगवान् ने जब युद्ध को अनियार्य बताया तो उसे लडने के लिए कटिबद्ध होना पडा। इस लड़ाई को इतिहासकार महाभारत के नाम से पुकारते हैं। अध्यात्म की भाषा में इसे साधना समर कहते हैं ।
देवासुर संग्राम की अनेक कथाओं में इसी साधना समर का अलंकारिक निरूपण है। असुर प्रबल होते है देवता उनसे दुख पाते है, अंत में दोनो पक्ष लड़ते हैं देवता अपने को हारता-सा अनुभव करते हैं वे भगवान् के पास जाते हैं। प्रार्थना करते है। भगवान् उनकी सहायता करते हैं। अंत में असुर मारे जाते है देवता विजयी होते हैं। देवासुर संग्राम के अगणित पौराणिक उपाख्यानों की पृष्ठभूमि यही है।