सुख और दुःख क्या है ?
सुख और दुःख का अपना कोई अस्तित्व नहीं है । इनका कोई सुनिश्चित ठोस, सर्वमान्य आधार भी नहीं है । सुख-दुःख मनुष्य की अनुभूति के ही परिणाम हैं । इसकी मान्यता कल्पना एवं अनुभूति विशेष के ही रूप में सुख-दुःख मनुष्य के मानस पुत्र हैं, ऐसा कह दिया जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी । मनुष्य की अपनी विशेष अनुभूतियाँ मानसिक स्थिति में ही सुख-दुःख का जन्म होता है । बाह्य परिस्थितियों से इनका कोई संबंध नहीं । क्योंकि जिन परिस्थितियों में एक दुखी रहता है तो दूसरा उनमें खुशियाँ मनाता है, सुख अनुभव करता है । वस्तुत: सुख-दुःख मनुष्य की अपनी अनुभूति के निर्णय हैं और इन दोनों में से किसी एक के भी प्रवाह में बह जाने पर मनुष्य की स्थिति असंतुलित एवं विचित्र सी हो जाती है । उसके सोचने-समझने तथा मूल्यांकन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है । किसी भी परिस्थिति में सुख का अनुभव करके अत्यंत प्रसन्न होना, हर्षातिरेक हो जाना तथा दुःख के क्षणों में रोना बुद्धि के मोहित हो जाने के लक्षण हैं । इस तरह की अवस्था में सही-सही सोचने और ठीक काम करने की क्षमता नहीं रहती । मनुष्य उलटा-सीधा सोचता है । उलटा-सीधा काम करता है ।कई लोग व्यक्ति विशेष को अपना अत्यंत निकटस्थ मान लेते हैं । फिर अधिकार भावनायुक्त व्यवहार करते हैं । विविध प्रयोजनों का आदान-प्रदान होने लगता है ।