भारतीय विवाह-संस्था रुग्ण और विकृत हो चुकी है । उसका अब न कोड समकालीन वैश्विक सन्दर्भ है, न ही सनातन शास्त्रीय सन्दर्भ। यह विकृति मनोविज्ञान, लूटमार की व्यवस्था तथा उसकी प्रतिक्रिया, बुढ़िया पुराण और अंधानुकरण की कर्दम प्रवृत्तियों का एक ज्वलन्त उदाहरण मात्र है । उसमें से स्वस्थ, उपयोगी लाभकारी और कल्याणकारी तत्त्व समाप्त प्राय: हो चले हैं । इस तथ्य को जो लोग समझ चुके हैं, वे ही उसकी विकृतियों से निर्ममतापूर्वक पिण्ड छुड़ाकर, नयी रचनात्मक रीतियों के साथ उसे जोड़ने हेतु सक्रिय हो सकते है । जो लोग इस लक्ष्य को ही मानने को तत्पर न हो जायें कि सम्प्रति हमारी विवाह सस्था विकृत एव रुग्ण हो चुकी है और उसे पुन: स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है, वे इस सस्था का क्षरण और विघटन ही देख सकेंगे। हिन्दू धर्म का सुदीर्घ, सुविस्तृत इतिहास है और उसके अनेक रूप हैं। इसकी विवाह सम्बधी मान्यताएँ तथा व्यवस्थाएँ भी निरन्तर परिवर्तित होती रही हैं और जो लोग वह तर्क देते है कि विवाह संस्था का मौजूदा स्वरूप सनातन है या सहस्रों वर्षो से चला आ रहा है, वे या तो मूर्ख होते हैं या फिर छल कर रहे होते हैं।
सच्चाई यह है कि विवाह संस्था के उद्देश्य, आधार, प्रविधि और प्रक्रियाएँ