सार्थक एवं आनंदमय वृद्धावस्था

संसार में प्रत्येक जीव की जीवनयात्रा में वृद्धावस्था एक आवश्यक पड़ाव है । उसी प्रकार मनुष्य में भी यह एक सामान्य एवं प्राकृतिक स्थिति है । जिसने भी जन्म लिया है, समय के साथ उसके शरीर का विकास भी अवश्य होगा । यह तो संभव ही नहीं है कि वह सदैव एक अबोध बालक या युवा ही बना रहे । आयु बढ़ने के साथ शारीरिक क्षमताओं का ह्रास प्रारंभ होगा और वृद्धावस्था आएगी भी । विकास की इस स्वाभाविक गति से हम सभी परिचित हैं । फिर भी हम देखते हैं कि अधिकांश व्यक्ति बुढ़ापे के नाम से ही घबराते हैं । यह जानते हुए भी कि आयु बढ़ने के साथ ही बुढ़ापा तो आना ही है, वे मानसिक रूप से अपने को इसके लिए तैयार नहीं करते । बुढ़ापा जहाँ आयु बढने से आता है वहीं मानसिक रूप से भी । ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो ८०- ९० वर्ष की आयु में भी मन में जवानों जैसी उमंग व उत्साह से भरपूर अपनी बची-खुची क्षमताओं का सदुपयोग करते रहते हैं । वहीं अनेकों तो ३०-४० वर्ष की आयु में ही थके हुए ओजहीन, उत्साहहीन, दीन-दुखी दिखाई देते हैं और हर समय नैराश्य में डूबे रहत हैं ।

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