गंगा, यमुना, सरस्वती-ये तीन धाराएँ मिलकर त्रिवेणी संगम बनता है । यह संगम ही तीर्थराज है । इसी के स्नान का सबसे बड़ा पुण्य माना गया है । रामायण में तीर्थराज के स्नान- अवगाहन का पुण्यफल बताते हुए कहा गया है-
मज्जन फल देखिय तत्काला ।
काक होहि पिक बकहु मराला ।।
तीर्थराज के स्नान का पुण्यफल उसी समय, तत्काल दिखाई पड़ता है । उसमें विलंब नहीं लगता । कौए, कोयल हो जाते हैं और बगुले हंस बन जाते हैं । इस उपमा में संकेत यह है कि आकृति तो ज्यों की त्यों रहती है, पर आध्यात्मिक कायाकल्प से प्रकृति बदल जाती है । आध्यात्मिक त्रिवेणी-त्रिपदा गायत्री है । उसके तीन चरण मिलकर त्रिवेणी संगम बनते हैं । परब्रह्म का निरूपण करते हुए इन्हें ईश्वर की तीन सर्वोच्च विशेषता सत्-चित्- आनंद कहा गया है । मानव जीवन में उसकी झांकी 'सत्यं शिवं सुंदरम्' के रूप में होती है । इनका अधिक विस्तृत तत्त्व कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग के रूप में किया गया है । मानवी सत्ता तीन भागों में विभक्त है- स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर । इन तीनों को पवित्र-परिष्कृत बनाने के लिए जिस दृष्टि, नीति और मर्यादा का विधान किया गया है, उन्हीं को कर्म, ज्ञान और भक्ति कहते हैं । अध्यात्म-दर्शन इन्हीं तीन खंडों में विभक्त है । व्यवहार में इन्हीं तीनों का रूप धार्मिकता, आध्यात्मिकता और आस्तिकता के रूप में दृष्टिगोचर होता है ।