दैनिक गायत्री उपासना
गायत्री उपासना प्रत्येक द्विज का आवश्यक धर्म-कृत्य है । वैसे द्विज,
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को कहते हैं । जो लोग यज्ञोपवीत धारण कर सकते
हैं, वे द्विज हैं । ऐसे सभी लोगों को गायत्री का अधिकार है । द्विज वह है,
जिसका दूसरा जन्म हुआ हो । एक जन्म माता-पिताके रज-वीर्य से सभी का होता
है, इसलिए मनुष्य और पशु सभी समान हैं । दूसरा आध्यात्मिक जन्म गायत्री
माता और यज्ञ पिता के संयोग से होता है । गायत्री अर्थात सद्बुद्धिरूपिणी
माता और यज्ञ अर्थात परमार्थ रूपी पिता को जिन्होंने अपना आध्यात्मिक
माता-पिता समझ लिया है, जीवन की वस्तु समझकर परमार्थ एवं आत्म-कल्याण का
साधन स्वीकार किया है, वस्तुत: वे द्विज हैं । गायत्री उपासक इसी श्रेणी के
होते हैं । जो गायत्री उपासना में लगे रहते हैं,वे ऐसे हो जाते हैं । इसी
प्रकार गायत्री और द्विजत्व एक साथ रहते हैं । इसी एकता के अभाव को संस्कृत
में अनधिकारी कहा है । जिनमें इस प्रकार की एकता न हो, वे अनधिकारी कहे
जाते हैं । उच्चभावना और गायत्री से संबंध बनाये रखने के लिए अधिकार की
प्रतिष्ठा की गई है । यज्ञोपवीत को गायत्री की मूर्ति-प्रतिमा कहना चाहिए ।
गायत्री को हर घड़ी छाती से लगाए रखना, हृदय पर धारण किए रहना यज्ञोपवीत का
उद्देश्य है । जनेऊ में तीन तार होते हैं-गायत्री में तीनचरण हैं । उपवीत
में नौ लड़ें हैं, गायत्री में नौ शब्द हैं ।
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