विश्वविद्यालयों में युवाओं को प्रेरक वातावरण नहीं मिल पा रहा है। यहाँ वे अपना अध्ययन एवं जीवन ठीक से नहीं सँवार पा रहे। यहाँ कुछ ऐसा हो रहा है, जिसे नहीं होना चाहिए और बहुत कुछ ऐसा नहीं हो पा रहा, जिसे किया ही जाना चाहिए। यह दृष्टिकोण हर उस व्यक्ति का है, जिसमें राष्ट्र और राष्ट्र के युवा का दर्द अनुभव करने की शक्ति है। विश्वविद्यालयों पर राजनीतिज्ञों की गिद्ध दृष्टि हमेशा बनी रहती है। सरकारें बदलते ही सरोकार बदलते हैं। राजनीतिज्ञों के लिए विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले युवा कच्चे माल की तरह हैं, जिनमें वे अपनी पार्टी का भविष्य देखते हैं। यहाँ पनप रही युवाशक्ति को वे अपने दल की दल-दल में डुबोना चाहते हैं, फिर भले ही ऐसा करने के परिणाम कुछ भी क्यों न हों।
इनमें से कुछ राजनीतिक दल ऐसे हैं, जिन्हें भारत के पवित्र अतीत एवं भारतीयता की गरिमा से चिढ़ है। वे इसे साम्प्रदायिकता का पर्याय मानते हैं। कई राजनीतिक दल ऐसे हैं जो इन पवित्र एवं प्रेरक भावनाओं का अपने राजनैतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। ये दोनों ही अपने-अपने ढंग से युवाओं को बरगलाते हैं। शिक्षा की नीतियों को अध्ययन की विषयवस्तु को मनचाहा तोड़ते-मरोड़ते हैं। भले ही इसकी परिणति कुछ भी हो रही हो, भले ही इसके परिणाम कुछ भी निकलने वाले हों। इन्हें हमेशा अपनी सरकार से सरोकार होता है, न कि युवाओं के चरित्र व जीवन की गुणवत्ता से। ये बातें कितनी कटु एवं तिक्त क्यों न लगें, पर समय का सच यही है।
जमाने का यथार्थ यह भी जतलाता है कि हाल के कुछ वर्षों में राजनीतिज्ञों की ही तरह व्यावसायियों ने भी विश्वविद्यालयों एवं शिक्षण संस्थानों की ओर अपनी नजर डाली है। अपनी धनशक्ति का इस्तेमाल करके उन्होंने युवाओं को लुभाना शुरू किया है। इसी उपक्रम के तहत कई व्यावसायिक शिक्षण संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह छाते नजर आ रहे हैं। अधिक धन कमाने की नीति के तहत उन्होंने शिक्षण संस्थानों को अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठान में बदल दिया है। इनके अनुसार धन के स्तर को ऊपर उठना चाहिए, जीवन के स्तर को नहीं। संस्कृति एवं संस्कार से इनमें से किसी का कोई लेना-देना नहीं है।
वैसे भी इसके लिए राष्ट्रभक्ति एवं युवाओं की जिन्दगी से जुड़ने का जज्बा चाहिए जो पहले कभी देश के दीवानों में हुआ करता था। इसी के चलते गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव गोविन्द रानाडे से लेकर बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्रपाल, लाला लाजपतराय जैसों ने अपनी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित की थीं। महाराष्ट्र में दक्कन ऐजुकेशन सोसाइटी ने कई कॉलेज शुरू किये, वहीं उत्तर भारत में डी.ए.वी. आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ। बंगाल में ब्रह्मसमाज, स्वदेशी आन्दोलन और रामकृष्ण मिशन ने शिक्षण संस्थाएँ गठित कीं। रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा शान्तिनिकेतन, महामना मालवीय जी द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना इसी उद्देश्य से हुई। स्वामी श्रद्धानन्द के गुरुकुल कांगड़ी का भी ऐसा ही पवित्र उद्देश्य था। इन सबका मकसद युवाओं को प्रेरक वातावरण देना था।आज स्थिति को सँवारने के लिए विचार क्रान्ति अभियान के आयोजकों ने पुनः युवाओं को अपने साथ आने के लिए पुकारा है।
शिक्षण, संस्कृति एवं संस्कारों से जुड़े युवाओं के अध्ययन के साथ उनका जीवन भी सँवरे, इसी के लिए देवसंस्कृति विश्वविद्यालय का उदय हुआ है। यहाँ के संचालकों, विद्याॢथयों एवं आचार्यों की स्पष्ट सोच है कि युवाओं को राजनीतिक संकीर्णताओं की साँकलों में नहीं बाँधा जाना चाहिए और न ही उनसे व्यावसायिक हित पूरे किये जाने चाहिए। विश्वविद्यालय में तो युवा को ऐसा कुछ सिखाया-बताया जाना चाहिए, जिससे कि वे पूरे विश्व को विद्यालय के रूप में स्वीकार कर लें और हर क्षण-हर घड़ी अपने अध्ययन का विस्तार करके अपने जीवन को सँवारते रहें। इस महान उद्देश्य को पाने के लिए युवा विद्यार्थी एवं उनके आचार्यों को साथ-साथ कदम बढ़ाने होंगे।