युवा क्रांति पथ

जरूरत है फिर युग भागीरथों की

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प्रकृति एवं पर्यावरण के लिए जागरूक होना और जागरूक करना युवाओं का युगधर्म है। पिछले कुछ दशकों से प्रकृति व पर्यावरण के प्रति हमारा व्यवहार विरोधी हो गया है। हमने प्राकृतिक संसाधनों का केवल दोहन एवं दुरुपयोग किया है। इनका संवर्द्धन करने की कोई जिम्मेदारी हमने नहीं निभाई। निरन्तर किये गये हमारे प्रकृति विरोधी आचरण ने अब प्रकृति को विद्रोही बना दिया है। गौ-माता की तरह कभी पालन-पोषण करने वाली प्रकृति अब कु्रद्ध ङ्क्षसहनी की तरह सबकी जान लेने पर उतारू है। असंतुलित पर्यावरण, प्राकृतिक आपदाओं की भरमार इसी का परिणाम है। सूखे-अकाल का प्रकोप, बाढ़ की विभीषिकाएँ, भूकम्पों के शृंखलित आघात, क्षण-क्षण रंग बदलने का गिरगिटी करिश्मा दिखाते मौसम प्रकृति के इन्हीं विद्रोही तेवरों को दर्शाते हैं।

    इन तेवरों को शान्त करने के लिए समर्थ प्रयास युवाओं को ही करने पड़ेंगे। उन्हीं को अतीत में किये गये प्रकृति विरोधी कार्यों का परिमार्जन करना पड़ेगा। अपने पूर्वज सगर पुत्रों के महापाप को युवा भगीरथ ने ही धोया था। उन्होंने प्रचण्ड तप कर गंगावतरण का जो दुःसाध्य कार्य किया, उससे उनके अपने पूर्वजों समेत सभी मानवों के पाप धुल गये। माता गंगा की जल धाराएँ सूखी पड़ी धरती को सींचने लगीं। बंजर भूमि में हरियाली लहलहाने लगी। कुछ ऐसा ही चमत्कार इन दिनों करने की माँग है। राष्ट्रीय पर्यावरण एवं प्राकृतिक असंतुलन की दुर्दशा को देखते हुए देश के युवाओं को कुछ ऐसे ही साहसिक कार्य करने पड़ेंगे।

    कुछ साहसी जन इसे कर भी रहे हैं। इन्हीं में से एक स्मरणीय नाम है-दामोदर ङ्क्षसह राठौर का। जिन्होंने अपना उपनाम वनवासी रख लिया है। इन्होंने युवावस्था में ही सरकारी नौकरी छोड़कर एक करोड़ पेड़ लगाने का संकल्प लिया था। तब इनकी यह बात सभी को मजाक लगी थी। लेकिन कई दशकों के उनके पुरुषार्थ के बाद जब उनका यह संकल्प ३६१ हेक्टेयर भूमि पर जैव विविधता की मिसाल बनकर सामने आया, तो उन्हें सम्मानित करने की होड़ लग गयी। अब उत्तराञ्चल के जनपद पिथौरागढ़ के डीडीहाट क्षेत्र के लोगों को लगने लगा है कि उन्होंने वनवासी के भगीरथ संकल्प और पर्यावरणीय दृष्टि को पहचानने में गल्ती की थी। करीब सौ से अधिक प्रजातियों वाला यह सघन वन आज न केवल स्थानीय आबादी को ईंधन, लकड़ी, चायपत्ती एवं बिछावन पत्ती उपलब्ध करा रहा है, वरन् सम्पूर्ण क्षेत्र के जल स्रोतों में पानी का संचार कर रहा है और लुप्त होती वनस्पतियों, औषधीय पौधों तथा वन्य जीवों को आश्रय प्रदान कर पर्यावरण-प्रकृति के विकास का आदर्श मॉडल बन गया है।

    करीब तीन दशक पहले नौकरी छोड़कर पेड़ लगाने व जंगल बनाने की उनकी बात सुनकर परिवार के लोगों ने उन्हें दुत्कार दिया था। मगर उन्होंने हार नहीं मानी और पत्नी को लेकर सानदेव से तीन किलोमीटर दूर आश्रम बनाकर स्मृति वन लगाने में जुट गये। बिना किसी आॢथक मदद के अपने बलबूते विकसित वनवासी के जंगल का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है; क्योंकि उच्च तथा मध्यम ऊँचाई पर पायी जाने वाली सभी वनस्पति प्रजातियों के साथ ही अनेक लुप्त होते पेड़ों, औषधीय वनस्पतियों एवं वन्य जीवों के अतिरिक्त परम्परागत कुटीर उद्योगों में उपयोगी तथा अंगु जैसे बहुमूल्य एवं चाय जैसी व्यावसायिक प्रजातियों को सुरक्षित किया गया है।इस वन की बदौलत आज यहाँ प्राकृतिक जल स्रोत हैं, जिसमें एक पनचक्की चलाने लायक पानी है। मछली पालन के लिए तालाब, अंगूरा खरगोश, दूध के लिए गाय तथा कुटीर उद्योग के लिए ङ्क्षरगाल, चाय की झाड़ियाँ और जंगल तथा जंगली फल-फूलों व सब्जियों की भरमार है। वनवासी ने सिद्ध कर दिया है कि अच्छे प्राकृतिक वनों से ही गाँवों का स्थाई विकास एवं पर्यावरण संरक्षण किया जा सकता है।

    इतना सब करने के बाद भी वनवासी अपना संकल्प भूले नहीं हैं। उन्नीस लाख पेड़ लगाने के बाद अब उन्होंने अंगु एवं सिङ्क्षलग जैसी संकटग्रस्त प्रजातियों के पौधे तैयार कर इन्हें सम्पूर्ण क्षेत्र में फैलाने का बीड़ा उठाया है। वे विद्यालयों को सिङ्क्षलग के पौधों का वितरण कर रहे हैं। आज उनके पास दस हजार पौधे तैयार हैं। इसके लिए उन्होंने ग्रामीण युवाओं का संगठन ‘हिमालय ग्रीन कोर’ की स्थापना की है, जिसमें अभी २२ सदस्य हैं। वनवासी से प्रेरित होकर यहाँ के युवा और अन्य लोग जंगलों के संरक्षण में रुचि ले रहे हैं। इतना ही नहीं यहाँ के स्थानीय बेरोजगार युवक चौबाटी क्षेत्र में पौधशाला बनाकर अंगु, बॉज, फल्यांट, तिमुल, काफल, सिङ्क्षलग एवं ऐसे ही अनेकों दूसरी जड़ी-बूटियों की पौध तैयार कर रहे हैं और पौधे बेचकर अपनी आजीविका कमा रहे हैं।

    पर्यावरण संरक्षण के लिए अपने यौवन को खपा देने वाले दामोदर ङ्क्षसह राठौर के प्रयासों को देखकर लोग स्वीकार करने लगे हैं कि सरकारी एवं विदेशी सहायता से करोड़ों रुपये की धनराशि खर्च करने के बावजूद लगाये गये जंगल ऐसी मिसाल पेश करने में नाकाम रहे हैं। इस अकेले व्यक्ति का यह जीवन समूचे देश के लिए अनुकरणीय है। युवा पीढ़ी को इनका अनुकरण करना भी चाहिए। ताकि देश के विभिन्न हिस्सों में पर्यावरण में फिर से प्राण पर्जन्य की वृष्टि करायी जा सके।

    उत्तराञ्चल के एक और व्यक्ति वंशीधर भट्ट भी पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में युवाओं की प्रेरणा हैं। गोपेश्वर के वंशीधर भट्ट को वहाँ के युवा अपने रोल मॉडल के रूप में स्वीकारते हैं। इन्होंने शारीरिक रूप से विकलांग होने के बावजूद बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने की ठानी और उन पर नकदी फसल उगाकर युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन गये। आज इनके प्रयास को समाज का हर वर्ग स्वीकारने लगा है। निःसंदेह इनके कामों को देखकर कहा जा सकता है कि जीवट हो, तो विकलांगता आड़े नहीं आती।

इन्होंने अपने काम की शुरुआत सगर गाँव की बंजर जमीन से की। अपनी निष्ठा एवं लगन से उन्होंने इस जमीन को नकदी फसलों से लहलहा दिया। कोई सोच भी नहीं सकता था कि बिना किसी प्रेरणा व प्रोत्साहन के ये इतना बड़ा काम कर दिखायेगा। आज इनके प्रयासों को देख आसपास के गाँवों के लोग भी प्रेरणा ले रहे हैं। अब इन्हें प्रोत्साहन देने के लिए लोग भी आने लगे हैं। इसका नतीजा यह है कि ग्रामीण युवा विकास समिति भी इनका अनुगमन करने के लिए तैयार है। इनकी मेहनत का नतीजा है कि अब यह स्थानीय बाजार को स्थानीय जैवीय सब्जियाँ उपलब्ध करवाने लगे हैं। यही नहीं इनके उद्यान में कई बेरोजगार युवक-युवतियों को रोजगार मिला हुआ है। गोपेश्वर की चकाचौंध से ६ किलोमीटर दूर सगर गाँव में यह एक नये इतिहास का पन्ना लिख रहे हैं। इनकी न कोई संस्था है और न किसी तरह की सरकारी सहायता। इसके बावजूद इनके साहस और धरती को हरा भरा करने के अभियान ने भावी युवा कर्णधारों को एक नयी दिशा दी है, जो कि एक मिसाल है।

    युवा साहस वही है जो किसी असम्भव को सम्भव कर दिखाये। फिर यह जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो। प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में यदि युवा जुट पड़ें, तो प्राकृतिक शक्तियों के ढेरों अनुदान मनुष्य को फिर से मिल सकते हैं। फिर से धरती पर मनभावन वसन्त विहँस सकता है। फिर ऋतुएँ-ऋत् का अनुगमन करने वाली हो सकती हैं। हवाओं में फिर से महक घुल सकती है। जल स्रोत फिर से अमृत प्रवाहित करने वाले हो सकते हैं और धरती फिर से शस्य श्यामला हो सकती है; लेकिन यह होगा तभी, जब देश के युवा पर्यावरण-प्रकृति के प्रति जागरूक हों। यह किसी एक व्यक्ति के नहीं, बल्कि सम्पूर्ण धरती के जीवन-मरण का प्रश्न है। देश की प्राकृतिक समृद्धि इसी पर टिकी है। इसके लिए युवाओं को बहुत कुछ करना है, भले ही इसके लिए देश की राजनैतिक चेतना को क्यों न झकझोरना पड़े।
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