सामाजिक दायित्व को निभाने में युवाओं की अग्रणी भूमिका है। आज
के दौर में परम्पराओं के परिवर्तन के लिए युवा विवेक चाहिए।
प्रथा- प्रचलनों की फिर से पड़ताल होनी जरूरी है। अंध मान्यताओं,
मूढ़ताओं एवं कुरीतियों के कुचक्र को युवा साहस ही तोड़ सकता है।
समाज में ऐसी कई विकृतियाँ हैं, जिनके विषाणु इंसानी अस्तित्व को
नष्ट करने पर तुले हैं। न जाने कितनी जातियाँ, वर्ग एवं क्षेत्र
सामाजिक मूढ़ताओं के कारण पिछड़ेपन के पंक में फँसे हैं। उन्हें
अभी तक नये ज्ञान का कोई प्रकाश नहीं मिल सका है। इस आलोक के
अवतरण को युवा पुरुषार्थ ही सम्भव बना सकता है। एक बार साहस भरे
कदम उठें तो सम्भावनाएँ
स्वयं साकार होने लगेंगी। बस जरूरत शुरुआत करने की है, फिर तो
असंख्य अनुगामी चल पड़ेंगे और सार्थक सामाजिक परिवर्तन नजर आने
लगेगा।
पंजाब प्रान्त के नवयुवक राजेन्द्र सिंह
ने ऐसी ही अनोखी शुरुआत स्वयं से की। दहेज लेने और खर्चीली
शादी की परम्परा को उन्होंने आगे बढ़कर स्वयं तोड़ा। घर वाले और
सगे सम्बन्धी उनके इस कदम के सख्त खिलाफ थे। ससुराल पक्ष के
लोगों को उनके इरादे में अपनी तौहीन नजर आ रही थी, पर राजेन्द्र सिंह का मन मजबूत था। उन्होंने अपनी होने वाली पत्नी सोनल से बात की। उसे अपने उद्देश्य एवं आदर्श समझाये। युवा सोनल को उनकी बातें समझ में आयीं। राजेन्द्र सिंह
का मत स्पष्ट था- न तो दहेज और न ही खर्चीली शादी। ससुराल
पक्ष का कहना था कि नकद रकम न सही, पर आवश्यकता का सामान या
फिर स्त्री धन के रूप में थोड़ा- बहुत ही स्वीकार करना चाहिए। पर
राजेन्द्र सिंह को दहेज का ऐसा कोई प्रच्छन्न रूप स्वीकार न था।
साथ ही उन्हें यह मंजूर न था कि विवाह बारात के तामझाम के नाम पर हजारों- लाखों फूँके जायँ।
सो बस अपने सात मित्रों के साथ उन्होंने साइकिल से वधू पक्ष
के घर जाने का निश्चय किया। इस अनूठी बारात को देखकर लोग काफी
हैरान हुए। पर राजेन्द्र सिंह ने गुरुग्रंथ
साहब की साक्षी में अपने विवाह की रस्में पूरी की। भोजन आदि
की व्यवस्था भी उन्होंने साधारण ही करवाई। उनका यह विवाह सभी
अर्थों में आदर्श और प्रेरक रहा। अनेक पत्र- पत्रिकाओं ने इसे
प्रकाशित करते हुए लिखा, जहाँ जनसेवा का स्वाँग रचाने वाले मंत्री
एवं नेता अपने बेटे- बेटियों की शादी में करोड़ों फूँक डालते
हैं, वहीं राजेन्द्र सिंह की शादी और सादगी के समन्वय ने समाज में जनप्रेरणा का काम किया। लोग सोचने के लिए मजबूर हुए कि वाकई खर्चीली शादियाँ मनुष्य को दरिद्र एवं बेईमान बनाती हैं।
उत्तर प्रदेश की २० वर्षीया युवती अरुणा के साहस ने उपस्थित सभी जनों को तब हैरान कर दिया, जब विवाह मण्डप छोड़ते हुए यह साफ जता दिया कि वह किसी भी कीमत पर दहेज के लोभियों से शादी नहीं करेगी। उसके इस कदम से मायके वाले हैरान थे और बारात लेकर आये हुए दूल्हा और बाराती भौंचक।
पर अरुणा के इरादे दृढ़ थे। उसने स्पष्ट कर दिया- नहीं का मतलब
नहीं। मैं दहेज की प्रक्रिया एवं परम्परा को किसी भी तरह स्वीकार
नहीं कर सकती। बारात को वापस उल्टे पाँव लौटकर आना पड़ा। अरुणा
फिर से अपनी पढ़ाई में लग गयी। आज वह एम.एस.सी. एवं बी.एड.
करके शिक्षिका है। शिष्ट- शालीन एवं दृढ़ संकल्पवान इस लड़की के
घरवालों को अपनी बेटी पर गर्व है। वह कहते हैं कि शुरू में तो
थोड़ी परेशानी हुई थी। पर आज मेरी बेटी की सब जगह प्रशंसा होती
है। उसकी शादी के लिए कई योग्य रिश्ते भी आ रहे हैं। ईश्वर की
कृपा होगी, तो बहुत जल्दी ही मेरी बेटी का घर बस जायेगा, वह भी
आदर्श रीति- नीति से।
सामाजिक परिवर्तन के लिए काम करने वाली संस्था ‘दिशा’ के कार्यकर्त्ता
केशवानन्द तिवारी अपने युवा साथियों के साथ कई उल्लेखनीय कार्य
कर रहे हैं। इनकी पत्नी जाह्नवी का कहना है कि प्रारम्भिक दिनों
में मुझे अपने पति से कई शिकायतें थीं, परन्तु बाद में जब
मैंने इनके काम को देखा तो बस इन्हीं की डगर पर चल पड़ी।
सामाजिक बदलाव के बहुपक्षीय कार्यों में संलग्न ‘दिशा’
में जाह्नवी को कई तरह के सामाजिक कार्यों को जानने- समझने का
अवसर मिला। यहाँ उन्हें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनाने और
रचनात्मक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के सुन्दर अवसर प्राप्त हुए; लेकिन समय- समय पर कई खतरे भी सामने आते रहे। ये कहती हैं कि जब इन्होंने पठेड़
गाँव में एक शराब के ठेके को हटाने का आन्दोलन शुरू किया, तो
उन्हें उनके छोटे- छोटे बच्चों को अगवा किये जाने की धमकियाँ मिलीं; लेकिन इसकी परवाह किये बिना ये अपने साथियों के साथ सामाजिक दायित्वों को निभा रही हैं। पर्वतीय इलाके के युवा भी अपनी सामाजिक रूढ़ियों से जूझने का उल्लेखनीय संघर्ष कर रहे हैं।
राकेश देवराड़ी, कृष्ण कुमार सेमवाल, अनिल रावत, ममता पुरोहित, सरिता नेगी, शमा और उनके अनेक युवा साथियों ने उत्तराञ्चल के पर्वतीय इलाकों में दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन की बयार बहानी शुरु की है। इनका कहना है कि प्राचीन समय में समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए, इसे ढंग से चलाने के लिए कई तरह की प्रथाएँ व व्यवस्थाएँ बनी थीं। लेकिन कालान्तर में इन प्रचलित प्रथाओं, परम्पराओं का रूप विकृत हो गया है। इस विकृति का निवारण होना ही चाहिए। इनमें से ममता पुरोहित कहती हैं-पहाड़ों में दहेज प्रथा, भू्रण हत्या, कारा प्रथा एवं ऐसी कई और कुरीतियाँ प्रचलित हैं। जिनको मिटाने के लिए हम लोग संघर्ष कर रहे हैं। हमें इसमें सफलताएँ भी मिल रही हैं।
महिला संगठन ‘जननी’ ने युवा महिलाओं की अगुआई में ‘नर और नारी एक समान’ के सूत्र की सार्थकता सिद्ध करने वाली कुछ महत्त्वपूर्ण परियोजनाएँ शुरू की हैं। ऐसी ही एक परियोजना जिसकी शुरुआत २००३ में हुई, इसका नाम है-लिबर्टी प्रोजेक्ट। इसकी प्रोजेक्ट मैनेजर भावना चावला युवा महिला कार्यकर्त्ता हैं। इनका कहना है कि गाँव, कस्बों और शहरों में कई समाजसेवी संस्थाएँ महिला उत्थान के लिए काम कर रही हैं। इनके द्वारा महिलाओं को आत्म निर्भर बनाने के लिए गाँव में पापड़, अचार बनाने और कस्बे, महानगरों में ब्यूटीशियन का कोर्स या सिलाई-कढ़ाई जैसे काम सिखाये जाते हैं, पर हम लिबर्टी प्रोजेक्ट के द्वारा कुछ नया कर रहे हैं। इसके अंतर्गत है पौरोहित्य कर्म, जिसमें अंतिम संस्कार कराना भी सिखाया जाता है।
हमारा मानना है कि जब जीवन का प्रारम्भ जननी से होता है, तो अंत जननी से क्यों नहीं। इस प्रोजेक्ट द्वारा प्रशिक्षित महलाएँ अंतिम संस्कार कराने में निष्णात हैं। वे बड़े इत्मिनान और स्वाभिमान के साथ अंतिम संस्कार के साथ अन्य कर्म सम्पन्न करा रही हैं। उनका यह कार्य समाज में एक नये परिवर्तन का संदेश और संकेत है; परन्तु यह संख्या अभी कम है। भारत जैसे विशाल देश और बड़ी आबादी तथा अनगिन रीति-नीति, प्रथा-परम्पराओं वाले समाज के अनुरूप सामाजिक दायित्व को निभाने वाले युवाओं की संख्या काफी अधिक होनी चाहिए। अपना विचार क्रान्ति अभियान पिछली अर्ध शताब्दी से भी अधिक समय पहले से युवाओं को इस कार्य के लिए आवाज देता रहा है। आज भी इसके आह्वान के स्वर भारत की धरती में ध्वनित हैं। युवा इसे सुनें और आगे बढ़ें। उनके पराक्रमी पगों से ही समाज परिवॢतत होगा और प्रकृति-पर्यावरण में एक नयी सुरभि महकेगी।