जिनमें संस्कृति की समझ है, वही संस्कारवान होने की डगर पर पाँव रखते हैं। ‘संस्कृति’
शब्द के अर्थ व्यापक हैं। यह जीवन की शुद्धि या परिष्कार की
प्रक्रिया है। व्यक्तित्व को सँवारने- गढ़ने व तराशने का कीमती
कीमिया है। चिंतन, चरित्र व व्यवहार;
शरीर, प्राण व अंतश्चेतना की अव्यवस्था, अस्त- व्यस्तता व
अस्वच्छता को दूर करने का प्रयास व्यक्ति को संस्कारवान बनाता
है। इसे व्यक्तित्व में दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्ति
सम्वर्द्धन का महाभियान भी कहा जा सकता है। संस्कृति व संस्कार
के आपसी सम्बन्धों की गहरी समझ आज के युग में विरले युवा ही
रखते हैं। अन्यथा ज्यादातर तो इन्हें नृत्य- गीतों की शैलियों का
पर्याय मान लेते हैं। ऐसे भ्रम के कारण सांस्कृतिक कार्यक्रमों के
नाम पर कुछ इस तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, जिनका
संस्कृति व संस्कार से दूर का रिश्ता नहीं होता।
इन सांस्कृतिक आयोजनों का चलन युवाओं में कुछ ज्यादा ही
है। जहाँ कहीं ऐसे आयोजन होते हैं, उनमें युवा बड़े उत्साह के
साथ भागीदार होते हैं। लेकिन दुःख की बात यह है कि इस भागीदारी
में उन्हें संस्कृति व संस्कार का कोई सार्थक परिचय नहीं मिलता।
उल्टे कभी- कभी तो ऐसे कार्यक्रमों व आयोजनों में शीलता, शिष्टता
एवं शालीनता की सामान्य समझ भी उपेक्षित हो जाती है। बस फूहड़पन
के कुछ नमूने ही उभरकर सामने आते हैं। समझ में नहीं आता इन्हें
किस तरह अपनी संस्कृति से जोड़ें। यह स्थिति दुःखद होते हुए भी
जमाने का यथार्थ है। युवाओं में पनप रहे भ्रान्ति- भ्रम का
परिचायक है।
समय की संधि ने इस युग को संस्कृति- संगम का युग बना
दिया है। सूचना व संचार की युग क्रान्ति ने दुनिया के विभिन्न
देशों की मान्यताओं, विचारों, परम्पराओं एवं प्रचलनों को आमने- सामने
ला दिया है। जिस तेजी से दुनिया और उसके लोग पास आये हैं,
उससे संस्कृतियों के बीच टकराहट व भ्रम की स्थिति बढ़ी है। सैमुअल हटिंग्टन ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘द क्लैशेज ऑफ सिविलाइजेशन’
में आज के संकट को संस्कृतियों व सभ्यताओं के टकराव का संकट
माना है। चयन की आजादी बढ़ जाने से युवा अपनी प्रकृति के विपरीत
सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का चयन कर रहे हैं। इस भ्रम को दूर करना
आज के युवा वर्ग की चुनौती है और कर्त्तव्य
भी। सवाल किसी संस्कृति की निन्दा का नहीं, परन्तु परस्पर संवाद
की स्थापना का है। आज सांस्कृतिक विसंगतियाँ कितनी भी क्यों न
पनप रही हों, पर इसमें यह सार्थकता भी है कि बड़ी समझदारी से
सभी संस्कृतियों के सार्थक तत्त्वों का चयन कर उन्हें किसी
आधारभूत सांस्कृतिक सूत्र में पिरोकर विश्व संस्कृति की स्थापना
की जा सकती है। शायद यही कल के विश्व का सांस्कृतिक भविष्य भी
है।
तकनीकी विशेषज्ञ निशान्त इस सम्बन्ध में कुछ प्रेरक कर भी रहे हैं। इन्होंने देश- विदेश के कुछ युवाओं के साथ मिलकर ‘विश्व संस्कृति संगम’
नाम का एक समूह बनाया है। इस समूह का काम विश्व की विविध
संस्कृतियों के तत्त्वों का चयन कर उनमें समन्वय करना है। निशान्त
का कहना है कि अपनी गहरी पृष्ठभूमि में विश्व की प्रायः सभी
संस्कृतियाँ किसी न किसी तरह भारतीय संस्कृति के मूल स्रोत से
निकली हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति इनके बीच आधारभूत समन्वयक की
भूमिका निभा सकती है। निशान्त
सार्थक सांस्कृतिक संवाद के लिए बौद्धिक एवं कलात्मक दोनों की
प्रक्रियाओं को अनिवार्य मानते हैं और वे ऐसा कर भी रहे हैं।
उनका और उनके साथियों का मानना है कि युवाओं में बेहतर व
सार्थक सांस्कृतिक समझ का होना अनिवार्य है। विश्व संस्कृति संगम की युवाकर्मी अंशिता
का मानना है कि जो भी प्रक्रिया युवाओं के जीवन का उत्थान,
उनके चरित्र का निर्माण एवं व्यक्तित्व का परिष्कार करे- वही
संस्कृति है। इसके विपरीत जो भी है और जहाँ भी है उसे विकृति
ही कहा जायेगा, फिर भले ही वह किसी भी देश से क्यों न आयातित
हो। अंशिता
के अनुसार युवाओं को संस्कृति एवं संस्कार की प्रक्रिया को
गहराई से अपनाना चाहिए। अच्छा हो कि इसमें उनकी सक्रिय भागीदारी
हो। अपना विचार क्रान्ति अभियान सही मायने में संस्कृति एवं
संस्कारों का ही अभियान है। देश के युवाओं की सक्रियता के लिए
यह प्रभावकारी मंच है। युवा इससे जुड़कर न केवल संस्कृति की सही
समझ पाकर संस्कारवान बन सकते हैं, बल्कि अपने सामाजिक दायित्व भी
निभा सकते हैं।