युग-परिवर्तन को घडी सन्निकट है । व्यक्ति में दुष्टता और
समाज में भ्रष्टता जिस तूफानी गति से बढ़ रही है, उसे देखते हुए
सर्वनाश की विभीषिका सामने खड़ी प्रतीत होती है। किंतु ऐसे ही
विषम असंतुलन को समय-समय पर सुधारने संभालने के लिए स्त्रष्टा
की प्रतिज्ञा भी तो है। अपनी इस अनुपम कलाकृति, विश्व वसुधा को
नियंता ने बड़े अरमानों के साथ बनाया है। संकटों की घडी आने पर
उसका अवतरण होता है और असंतुलन फिर संतुलन में बदल
जाता है। अधर्म को निरस्त और धर्म को आश्वस्त करने वाली
ईश्वरीय सत्ता आज को संकटापन्न विषम वेला में उज्जल भविष्य
की संरचना के लिए अपनी अवतरण प्रक्रिया को फिर संपन्न करने
वाली है ।
यह आवश्यकता क्यों उत्पन्न हुई ? प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
उत्तर एक ही है-इन दिनों व्यापक क्षेत्रों में जो असंतुलन उत्पन्न हो
रहा है, वह इतना बढ़ गया है कि अब स्रष्टा ही उसे संतुलन में साध
और ढाल सकता है । यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर है कि
धरती की व्यवस्था सँभालने का उत्तरदायित्व स्त्रष्टा ने मनुष्य को सौंपा
है। साथ ही उसे इतना समर्थ शरीरतंत्र दिया है कि वह न केवल
जीवधारियों के लिए सुख-शांति बनाए रहे वरन ब्रह्माण्ड में संव्याप्त
अदृश्य शक्तियों को भी अनुकूल रहने के लिए सहमत रख सके।
अपने उस उत्तरदायित्व में व्यतिरेक करके जब मनुष्य