उपासना, साधना व आराधना

उपासना, साधना व आराधना

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(मार्च 1980  में शान्तिकुञ्ज परिसर में दिया उद्बोधन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ


ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।


      देवियो, भाइयो! गायत्री मंत्र तीन टुकड़ों में बँटा हुआ है। आध्यात्मिक साधना का सारा- का माहौल तीन टुकड़ों में बँटा हुआ है। ये हैं- उपासना, साधना और आराधना। उपासना के नाम पर आपने अगरबत्ती जलाकर और नमस्कार करके उसे समाप्त कर दिया होगा, परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। हमने अगरबत्ती जलाकर प्रारंभ तो अवश्य किया है, पर समाप्त नहीं किया। हमने अपने जीवन में अध्यात्म के जो भी सिद्धांत हैं, उन्हें अवश्य धारण करने का प्रयास किया है। त्रिवेणी में स्नान करने की बात आपने सुनी होगी कि उसके बाद कौआ कोयल बन जाता है। हमने भी उस त्रिवेणी संगम में स्नान किया है, जिसे उपासना, साधना और आराधना कहते हैं। वास्तव में यही अध्यात्म की असली शिक्षा है।

    उपासना माने भगवान् के नजदीक बैठना। नजदीक बैठने का भी एक असर होता है। चन्दन के समीप जो पेड़- पौधे होते हैं, वह भी सुगंधित हो जाते हैं। हमारी भी स्थिति वैसी ही हुई। चन्दन का एक बड़ा- सा पेड़, जो हिमालय में उगा हुआ है, उससे हमने सम्बन्ध जोड़ लिया और खुशबूदार हो गये। आपने लकड़ी को देखा होगा, जब वह आग के संपर्क में आ जाती है, तो वह भी आग जैसी लाल हो जाती है। उसे आप नहीं छू सकते, कारण वह भी आग जैसी ही बन जाती है। यह क्या बात हुई? उपासना हुई, नजदीक बैठना हुआ। नजदीक बैठना, यानि चिपक जाना अर्थात् समर्पण कर देना। चिपकने की यह विद्या हमारे गुरु ने हमें सिखा दी और हम चिपकते हुए चले गये। गाँव की गँवार महिला की शादी किसी सेठ के साथ होने पर वह सेठानी, पंडित के साथ होने पर पंडितानी बन जाती है। यह सब समर्पण का चमत्कार है।

      मित्रो, उपासना का मतलब समर्पण है। आपको भी अगर शक्तिशाली या महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बनना है, बड़ा काम करना है, तो आपको भी बड़े आदमी के साथ, महान गुरु के साथ चिपकना होगा। आप अगर शेर के बच्चे हैं, तो आपको भी शेर होना चाहिए। आप अगर घोड़े के बच्चे हैं, तो आपको घोड़ा होना चाहिए। आप अगर संत के बच्चे हैं, तो आपको संत होना चाहिए। हमने इस बात का बराबर ख्याल रखा है कि हम भगवान् के बच्चे हैं, तो हमें भगवान् की तरह बनना चाहिए। बूँद जब अपनी हस्ती समुद्र में गिराती है, तो वह समुद्र बन जाती है। यह समर्पण है। अपनी हस्ती को समाप्त करना ही समर्पण है। अगर बूँद अपनी हस्ती न समाप्त करे, तो वह बूँद ही बनी रहेगी। वह समुद्र नहीं हो सकती है। अध्यात्म में यही भगवान् को समर्पण करना उपासना कहलाती है। भगवान् माने उच्च आदर्शों, उच्च सिद्धान्तों का समुच्चय। उच्च आदर्शों, उच्च सिद्धान्तों को अपने साथ मिला लेना ही उपासना कहलाती है। हमने अपने जीवन में इसी प्रकार की उपासना की है, आपको भी इसी प्रकार की उपासना करनी चाहिए।

   आप लोगों को मालूम है कि ग्वाल- बाल इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने अपनी लाठी के सहारे गोवर्धन को उठा लिया था। इसी तरह रीछ- बन्दर इतने शक्तिशाली थे कि वे बड़े- बड़े पत्थर उठाकर लाये और समुद्र में सेतु बनाकर उसे लाँघ गये थे। क्या यह उनकी शक्ति थी? नहीं बेटे, यह भगवान् श्रीकृष्ण एवं राम के प्रति उनके समर्पण की शक्ति थी, जिसके बल पर वे इतने शक्तिशाली हो गये थे। भगवान् के साथ, गुरु के साथ मिल जाने से, जुड़ जाने से आदमी न जाने क्या से क्या हो जाता है। हम अपने गुरु से- भगवान् से जुड़ गये, तो आप देख रहे हैं कि हमारे अन्दर क्या- क्या चीजें हैं। आप कृपा करके मछली पकड़ने वालों, चिड़िया पकड़ने वालों के तरीके से मत बनना और न इस तरह की उपासना करना, जो आटे की गोली और चावल के दाने फेंककर उन्हें फँसा लेते और पकड़ लेते हैं तथा कबाब बना लेते हैं। आप ऐसे उपासक मत बनना, जो भगवान् को फँसाने के लिए तरह- तरह के प्रलोभन फेंकता है। बिजली का तार लगा हो, परन्तु उसका सम्बन्ध जनरेटर से न हो तो करेण्ट कहाँ से आयेगा? उसी तरह हमारे अंदर अहंकार, लोभ, मोह भरा हो, तो वे चीजें हम नहीं पा सकते हैं। जो भगवान् के पास हैं। अपने पिता की सम्पत्ति के अधिकारी आप तभी हो सकते हैं, जब आप उनका ध्यान रखते हों, उनके आदर्शों पर चलते हों। आप केवल यह कहें कि हम तो उन्हें पिताजी- पिताजी कहते थे तथा अपना सारा वेतन अपनी पाकेट में रखते थे और उनकी हारी- बीमारी से हमारा कोई लेना- देना नहीं था, तो फिर आपको उनकी सम्पत्ति का कोई अधिकार नहीं मिलने वाला है।

        साथियो, हमने भगवान् को देखा तो नहीं है, परन्तु अपने गुरु को हमने भगवान् के रूप में पा लिया है। उनको हमने समर्पण कर दिया है। उनके हर आदेश का पालन किया है। इसलिए आज उनकी सारी सम्पत्ति के हम हकदार हैं। आपको मालूम नहीं है कि विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस को देखा था, स्वामी दयानन्द ने विरजानन्द को देखा था। चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त का नाम सुना है न आपने। उनके गुरु ने जो उनको आदेश दिये, उनका उन्होंने पालन किया। गुरुओं ने शिष्यों को, भगवान ने भक्तों को जो आदेश दिये, वे उनका पालन करते रहे। आपने सुना नहीं है, एक जमाने में समर्थ गुरु रामदास के आदेश पर शिवाजी लड़ने के लिए तैयार हो गये थे। उनके एक आदेश पर वे आजादी की लड़ाई के लिए तैयार हो गये। यही समर्पण का मतलब है। आपको मालूम नहीं है कि इसी समर्पण की वजह से समर्थ गुरु रामदास की शक्ति शिवाजी में चली गयी और वे उसे लेकर चले गये।

     आपने नदी को देखा होगा कि वह कितनी गहरी होती है। चौड़ी एवं गहरी नदी को कोई आसानी से पार नहीं कर सकता है, किन्तु जब वह एक नाव पर बैठ जाता है, तो नाव वाले की सह जिम्मेदारी होती है कि वह नाव को भी न डूबने दे और वह व्यक्ति जो उसमें बैठा है, उसे भी न डुबाये। इस तरह नाविक उस व्यक्ति को पार उतार देता है। ठीक उसी प्रकार जब हम एक गुरु को, भगवान् को, नाविक के रूप में समर्पण कर देते हैं, तो वह हमें इस भवसागर से पार कर देता है। हमारे जीवन में इसी प्रकार घटित हुआ है। हमने अपने गुरु को भगवान् बना लिया है। हमने उन्हें एकलव्य की तरह से अपना सर्वस्व मान लिया है। हमने उन्हें एक बाबाजी, स्वामी जी गुरु नहीं माना है, बल्कि भगवान् माना है। हमारे पास इस प्रकार भगवान् की शक्ति बराबर आती रहती है। हमने पहले छोटा बल्ब लगा रखा था, तो थोड़ी शक्ति आती थी। अब हमने बड़ा बल्ब लगा रखा है, तो हमारे पास ज्यादा शक्ति आती रहती है। हमें जब जितना चाहिए, मिल जाता है। हमें आगे बड़ी- बड़ी फैक्टरियाँ लगानी हैं, बड़ा काम करना है। अतः हमने उन्हें बता दिया है कि अब हमें ज्यादा ‘पावर’ ज्यादा शक्ति की आवश्यकता है। आप हमारे ट्रांसफार्मर को बड़ा बना दीजिए। अब वे हमारे ट्रांसफार्मर को बड़ा बनाने जा रहे हैं। आपको भी अगर लाभ प्राप्त करना है, तो हमने जैसे अपने गुरु को माना और समर्पण किया है, आप भी उसी तरह मानिये तथा समर्पण कीजिए। उसी तरह कदम बढ़ाइए। हमने उपासना करना सीखा है और अब हम हंस बन गये हैं। आपको भी यही चीज अपनानी होगी। इससे कम में उपासना नहीं हो सकती है। आप पूरे मन से, पूरी शक्ति से उपासना में मन लगाइये और वह लाभ प्राप्त कीजिए जो हमने प्राप्त किये हैं। यही है उपासना।

   साधना किसकी की जाए? भगवान् की? अरे भगवान् को न तो किसी साधना की बात सुनने का समय है और न ही उसे साधा जा सकता है। वस्तुतः जो साधना हम करते हैं, वह केवल अपने लिए होती है और स्वयं की होती है। साधना का अर्थ होता है- साध लेना। अपने आपको सँभाल लेना, तपा लेना, गरम कर लेना, परिष्कृत कर लेना, शक्तिवान बना लेना, यह सभी अर्थ साधना के हैं। साधना के संदर्भ में हम आपको सर्कस के जानवरों का उदाहरण देते रहते हैं कि हाथी, घोड़े, शेर, चीजें जब अपने को साध लेते हैं, तो कैसे- कैसे चमत्कार दिखाते हैं। साधे गये ये जानवर अपने मालिक का पेट पालने तथा सैकड़ों लोगों का मनोरंजन करने, खेल दिखाने में समर्थ होते हैं। इन जानवरों को साध लिया गया होता है, जो सैकड़ों लोगों को प्राविडेण्ट फण्ड देते हैं, पेमेण्ट देते हैं, उनका पालन करते हैं। ये कैसे साधे जाते हैं। बेटे, यह रिंगमास्टर के हण्टरों से साधे जाते हैं। वह उन्हें हण्टर मार- मारकर साधता है। अगर उन्हें ऐसे ही कहा जाए कि भाईसाहब आप इस तरह का करतब दिखाइये, तो इसके लिए वे तैयार नहीं होंगे, वरन उल्टे आपके ऊपर, मास्टर के ऊपर हमला कर देंगे।

     साधना में भी यही होता है। मनुष्य के, साधक के मन के ऊपर चाबुक मारने से, हण्टर मारने से, गरम करने से, तपाने से वह काबू में आ जाता है। इसीलिए तपस्वी तपस्या करते हैं। हिन्दी में इसे ‘साधना’ कहते हैं और संस्कृत में ‘तपस्या’ कहते हैं। यह दोनों एक ही हैं। अतः साधना का मतलब है- अपने आपको तपाना। खेत की जोताई अगर ठीक ढंग से नहीं होगी, तो उसमें बोवाई भी ठीक ढंग से नहीं की जा सकेगी। अतः अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए पहले खेत की जोताई करना आवश्यक है, ताकि उसमें से कंकड़- पत्थर आदि निकाल दिए जाएँ। उसके बाद बोवाई की जाती है। कपड़ों की धुलाई पहले करनी पड़ती है, तब उसकी रँगाई होती है। बिना धुलाये कपड़ों की रँगाई नहीं हो सकती है। काले, मैले- कुचैले कपड़े नहीं रँगे जा सकते हैं।

     मित्रो, उसी प्रकार से राम का नाम लेना एक तरह से रँगाई है। राम की भक्ति के लिए साफ- सुथरे कपड़ों की आवश्यकता है। माँ अपने बच्चों को गोद में लेती है, परन्तु जब बच्चा टट्टी कर देता है, तो वह उसे गोद में नहीं उठाती है। पहले उसकी सफाई करती है, उसके बाद उसके कपड़े बदलती है, तब गोद में लेती है। भगवान् भी ठीक उसी तरह के हैं। वे मैले- कुचैले प्रवृत्ति के लोगों को पसन्द नहीं करते हैं। यहाँ साफ- सुथरा से मतलब कपड़े से नहीं है, बल्कि भीतर से है- अंतरंग से है। इसी को स्वच्छ रखना, परिष्कृत करना पड़ता है। तपस्या एवं साधना इसी का नाम है। अपने अन्दर जो बुराइयाँ हैं, भूले हैं, कमियाँ हैं, दोष- दुर्गुण हैं, कषाय- कल्मष हैं, उसे दूर करना व उनके लिए कठिनाइयाँ उठाना ही साधना या तपस्या कहलाती है। इसी का दूसरा नाम पात्रता का विकास है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्षा के समय आप बाहर जो भी पात्र रखेंगे- कटोरी गिलास जो कुछ भी रखेंगे, उसी के अनुरूप उसमें जल भर जाएगा। इसी तरह आपकी पात्रता जितनी होगी, उतना ही भगवान् का प्यार, अनुकम्पा आप पर बरसती चली जाएगी।

    घोड़ा जितना तेजी से दौड़ सकता है, उसी के अनुसार उसका मूल्य मिलता है। गाय जितना दूध देती है, उसी के अनुसार उसका मूल्यांकन होता है। अगर आपके कमण्डलु में सुराख है, तो उसमें डाला गया पदार्थ बह जाएगा। नाव में अगर सुराख है, तो नाव पार नहीं हो सकती है। वह डूब जाएगी। अतः आप अपने बर्तन को बिना सुराख के बनाने का प्रयत्न करें। हमने सारी जिन्दगी भर इसी सुराख को बन्द करने में अपना श्रम लगाया है। वासना, तृष्णा और अहंता- यही तीन सुराख हैं, जो मनुष्य को आगे नहीं बढ़ने देते हैं। इन्हें ही भवबन्धन कहा गया है। अगर आपका मन संसार की ओर अधिक लगा हुआ है, तो आप आध्यात्मिकता की ओर कैसे बढ़ पाएँगे? फिर आपका मन पूजा- उपासना में कैसे लगेगा? आप इस दिशा में आगे कैसे बढ़ेंगे? गोली चलाने वाला अगर निशाना न साधे, तो उसका काम कैसे चलेगा? वह कभी इधर को भटके, कभी उधर को भटके, तो उससे निशाना कैसे साधा जाएगा? बीस जगह ध्यान रहा, तो आप विजेता नहीं बन सकते हैं। भगवान् आपको अपनाने के लिए हाथ बढ़ा रहा है, परन्तु ये तीन हथकड़ियाँ वासना, तृष्णा एवं अहंता आपको भगवान् तक पहुँचने में रुकावट पैदा कर रही हैं। आपको इनसे लोहा लेना होगा। आप अगर अपने हाथों को नहीं खोलेंगे, तो भगवान् की गोद में आप कैसे जाएँगे?

     मित्रो, साधना में आपको अपने मन को समझाना होगा। अगर मन नहीं मानता है, तो आपको उसकी पिटाई करनी होगी। बैल जब खेतों में हल नहीं खींचता है तथा घोड़ा जब रास्ते पर चलने अथवा दौड़ने को तैयार नहीं होता है, तो उसकी पिटाई करनी पड़ती है। हमने अपने आपको इतना पीटा है कि उसका कहना नहीं। हमने अपने आपको इतना धुलने का प्रयास किया है कि उसे हम कह नहीं सकते। इस प्रकार धुलाने के कारण हम फकाफक कपड़े के तरीके से आज धुले हुए उज्ज्वल हो गये। हमने अपने आपको रूई की तरह से धुनने का प्रयास किया है, जो धुनने के पश्चात् फूलकर इतनी स्वच्छ और मोटी हो जाती है कि उससे नयी चीज का निर्माण होता है।

     भगवान् का भजन करने एवं नाम लेने के लिए अपना सुधार करना परम आवश्यक है। वाल्मीकि ने जब यह काम किया, तो भगवान् के परमप्रिय भक्त हो गये। उनकी वाणी में एक ताकत आ गयी। उसने डकैती छोड़ दी, उसके बाद भगवान् का नाम लिया, तो काम बन गया। कहने का मतलब यह है कि आप अपने आपको धोकर इतना निर्मल बना लें कि भगवान् आपको मजबूर होकर प्यार करने लग जाए। राम नाम के महत्त्व से ज्यादा आपकी जीभ का महत्त्व है। आप जीभ पर कंट्रोल रखिए, तब ही काम बनेगा। जीभ पर काबू रखें, आप ईमानदारी की कमाई खाएँ, बेईमानी की कमाई न खाएँ।

      हमने अपनी जीभ को साफ किया है। उसे इस लायक बनाया है कि गुरु का नाम लेकर जो भी वरदान देते हैं, वह सफल हो जाता है। आप भी जीभ को ठीक कीजिए न! आप अपने आपको सही करें। अपने जीवन में सादा जीवन उच्च विचार लाएँ। इस सिद्धान्त को जीवन का अंग बनाने से ही काम बनेगा। आपको खाने के लिए दो मुट्ठी अनाज और तन ढँकने के लिए थोड़ा- सा कपड़ा चाहिए, जो इस शरीर के द्वारा आप सहज ही पूरा कर सकते हैं। फिर आप अपने जीवन को शुद्ध एवं पवित्र क्यों नहीं बनाते। अगर यह काम करेंगे, तो आप भगवान् की गोदी के हकदार हो जाएँगे। ऐसा बनकर आदमी बहुत कुछ काम कर सकता है।

सादा जीवन के माने है- कसा हुआ जीवन। आपको अपना जीवन सादा बनाना होगा। माल- मजा उड़ाते हुए, लालची और लोभी रहते हुए आप चाहें कि राम नाम सार्थक हो जाएगा? नहीं कभी सार्थक नहीं होगा। हमारे गुरु ने, हमारे महापुरुषों ने हमें यही सिखाया है कि जो आदमी महान बने, ऊँचे उठे हैं, उन सभी ने अपने आपको तपाया है। आप किसी भी महापुरुष का इतिहास उठाकर पढ़कर देखें, तो पायेंगे कि अपने को तपाने के बाद ही उन्होंने वर्चस्व प्राप्त किया और फिर जहाँ भी वे गये चमत्कार करते चले गये। तलवार से सिर काटने के लिए उसे तेज करना पड़ता है, पत्थर पर घिसना पड़ता है। आपको भी प्रगति करने के लिए अपने आपको तपाना होगा, घिसना होगा ।। हमने एक ही चीज सीखी है कि अपने आपको अधिक से अधिक तपाएँ, अधिक से अधिक घिसें, ताकि हम ज्यादा- से समाज के काम आ सकें। समाज की सेवा करना ही हमारा लक्ष्य है। अगर आप भी ऐसा कर सकें, तो बहुत फायदा होगा, जैसा कि हमें हुआ है।

        साधना के पश्चात् आराधना की बात बताता हूँ आपको कि आराधना क्या है और किसकी की जानी चाहिए? आराधना कहते हैं- समाजसेवा को, जन कल्याण को। सेवाधर्म वह नकद धर्म है, जो हाथों हाथ फल देता है। इसमें पहले बोना पड़ता है। आज से साठ वर्ष पूर्व हमारे पूज्य गुरुदेव ने हमारे घर पर आकर दीक्षा दी और यह कहा कि तुम बोने और काटने की बात मत भूलना। कहीं से भी कोई चीज फोकट में नहीं मिलती है, चाहे वे गुरु हों या भगवान् हों। हाँ, यह हो सकता है कि बोया जाए और काटा जाए। हम मक्के का एक बीज बोते हैं, तो न जाने कितने हजार हो जाते हैं। वही बाजरे के साथ भी होता है। उन्होंने हमसे कहा कि बेटे, फोकट में खाने की विद्या एवं माँगने की विद्या छोड़कर बोने और काटने की विद्या सीख, इससे ही तुम्हें फायदा होगा। उन्होंने इसके लिए विधान भी बतलाया कि तुम्हें चौबीस साल तक गायत्री के महापुरश्चरण करने होंगे। इस समय जौ की रोटी एवं छाछ पर रहना होगा। उन्होंने जो भी विधि हमें बतायी, उसे हमने नोट कर लिया था। इसमें उन्होंने हमें एक नयी विधि बतलायी। वह विधि बोने और काटने की थी। उन्होंने कहा कि जो कुछ भी तेरे पास है, उसे भगवान् के खेत में बो दो। उन्होंने यह भी कहा कि तीन चीजें भगवान् की दी हुई हैं और एक चीज तुम्हारी कमाई हुई है।

        शरीर, बुद्धि और भावना-ये तीन चीजें जो भगवान् ने दी हैं। यह तीन शरीर-स्थूल सूक्ष्म और कारण के प्रतीक हैं। इसमें तीन चीजें भरी रहती हैं- स्थूल में श्रम, समय। सूक्ष्म में मन, बुद्धि। कारण में भावना। इसके अलावा जो चौथी चीज है, वह है धन-सम्पदा जो मनुष्य कमाता है। इसे भगवान् नहीं देता है। भगवान् न किसी को गरीब बनाता है, न अमीर। भगवान् न किसी को धनवान बनाता है, न कंगाल बनाता है। यह तेरा बनाया हुआ है, इसे तू बोना शुरू कर। हमने कहा कि कहाँ बोया जाए? उन्होंने कहा कि भगवान् के खेत में। हमने पूछा कि भगवान् कहाँ है और उनका खेत कहाँ है? उन्होंने हमें इशारा करके बतलाया कि यह सारा विश्व ही भगवान् का खेत है। यह भगवान् विराट् है। इसे ही विराट् ब्रह्म कहते हैं। अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण ने इसी विराट् ब्रह्म का दर्शन कराया था। उन्होंने दिव्यचक्षु से उनका दर्शन कराया था। यही उन्होंने कौशल्या जी को दिखाया था। हमारे गुरु ने कहा कि जो कुछ भी करना हो, इसी समग्र सृष्टि के लिए करना चाहिए। यही भगवान् की वास्तविक पूजा कहलाती है। इसे ही आराधना कहते हैं।

        उन्होंने हमें आदेश दिया कि तू इसी विराट् ब्रह्म के खेत में बो। अर्थात् जनसमाज की सेवा कर। जनसमाज का कल्याण करने, उसे ऊँचा उठाने, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने में अपनी समस्त शक्तियाँ एवं सम्पदा लगा, फिर आगे देखना कि यह सौ गुनी हो जाएँगी। जो भी तीन-चार चीजें तेरे पास हैं, उसे लगा दे, तुझे ऋद्धि-सिद्धियाँ मिल जाएँगी। यह सब तेरे पीछे घूमेंगी। तू मालदार हो जाएगा। अब हम तैयार हो गये। हमने विचार दृढ़ बना लिया। उन्होंने पूछा कि क्या चीजें हैं तेरे पास? हमने कहा कि हमारा शरीर है। हमने सूर्योदय से पहले भगवान् का नाम लिया है अर्थात् भजन किया है, बाकी समय हमने भगवान् का काम किया है। सूर्य निकलने से लेकर सूर्य डूबने तक सारा समय भगवान् के लिए लगाया, समाज के लिए लगाया है।

     दूसरी, बुद्धि है हमारे पास। आज लोगों की बुद्धि न जाने किस-किस गलत काम में लग रही है। आज लोग अपनी बुद्धि को मिलावट करने, तस्करी करने, गलत काम करने में खर्च कर रहे हैं। हमने निश्चय किया कि हम अपनी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर ले जाएँगे तथा इससे समाज, देश को ऊँचा उठाने का प्रयास करेंगे। हमने अपनी अक्ल एवं बुद्धि को यानी अपने सारे-के-सारे मन को भगवान् के कार्य में लगाया।

        और क्या था हमारे पास? हमारे पास थी भावना-संवेदना यह भी हमने अपने कुटुम्बियों के लिए, बेटे-बेटी के लिए नहीं लगाई। हमने अपनी भावना एवं संवेदना के माध्यम से इस संसार में रहने वाले व्यक्तियों के दुःखों के निवारण के लिए हमेशा उपयोग किया। हमने हमेशा यह सोचा कि हमारे पास कुछ है, तो उसे किस तरह से बाँट सकते हैं? अगर किसी के पास दुःख है, तो उसे किस तरह से दूर कर सकते हैं। यही हमने अपने पूरे जीवनकाल में किया है। इसके अलावा जो भी धन था, उसे भी भगवान् के कार्य में खर्च कर दिया। इससे हमें बहुत मिला, इतना अधिक मिला कि हम आपको बतला नहीं सकते। हमें लोग कितना प्यार करते हैं, यह आपको नहीं मालूम। लोग यहाँ आते हैं, तो यह कहते हैं कि हमें गुरुजी का दर्शन मिल जाता, तो कितना अच्छा होता। यह क्या है? यह है हमारा प्यार, मोहब्बत, जो हमने उन्हें दी है तथा उनसे हमने पायी है। गाँधी जी ने भी दिया था एवं उन्होंने भी पाया है। हमने तो कहीं अधिक पाया है। मरने के बाद तो कितने ही व्यक्तियों की लोग पूजा करते हैं। भगवान् बुद्ध की पूजा करते हैं। मरने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण की जय बोलते हैं, जबकि उस समय लोगों ने उन्हें गालियाँ दी थीं। हमारे मरने के बाद कोई आरती उतारेगा कि नहीं, मैं यह नहीं कह सकता, परन्तु आज कितने लोगों ने आरती उतारी है, प्यार किया है, इसे हम बतला नहीं सकते। यह क्या हो गया? यह है हमारा ‘बोया एवं काटा’ का सिद्धान्त। यह है हमारी आराधना-समाज के लिए, भगवान् के लिए।

          मित्रो, हमने पत्थर की मूर्ति के लिए नहीं, वरन् समाज के लिए काम किया है। पत्थर की मूर्ति को भगवान् नहीं कहते हैं। समाज को ही भगवान् कहते हैं। हमने ऐसा ही किया है। हमें दो मालियों की कहानी हमेशा याद रहती है। एक राजा ने एक बगीचा एक माली को दिया तथा दूसरा बगीचा दूसरे माली को। एक ने तो बगीचे में राजा का चित्र लगा दिया और नित्य चन्दन लगाता, आरती उतारता तथा एक सौ आठ परिक्रमा करता रहा। इसके कारण बगीचे का कार्य उपेक्षित पड़ा रहा। बगीचा सूखने लगा।

      दूसरा माली तो राजा का नाम भी भूल गया, परन्तु वह निरन्तर बगीचे में खाद-पानी डालने, निराई करने का काम करता रहा। इससे उसका बगीचा हरियाली से भरा-पूरा होता चला गया। राजा एक वर्ष बाद बगीचा देखने आया, तो पहले वाले माली को उसने हटा दिया, जो एक सौ आठ परिक्रमा करता और आरती उतारता था। दूसरे उस माली का अभिनन्दन किया, उसे ऊँचा उठा दिया, जिसने वास्तव में बगीचे को सुन्दर बनाने का प्रयास किया था।
     
  हमारा भगवान् भी उसी तरह का है। उन्होंने कहा था कि जो कुछ भी करना भगवान् के लिए करना, समाज के लिए करना। हमने सारी जिन्दगी इसी तरह का काम किया है और जितना किया है, उतना पा लिया है। आगे जो हम करेंगे, उसके एवज में भी हम पाते रहेंगे। आपका तो हमेशा दिल धड़कता रहता है। आपको तो भगवान् का नाम लेना सहज मालूम पड़ता है, पर भगवान् का काम करना मुश्किल पड़ता है तथा उसके लिए पैसा लगाना तो और भी मुश्किल मालूम पड़ता है। यह आपके लिए मुश्किल हो सकता है, परन्तु हमारे लिए तो यह एकदम सरल है। हमारे दिमाग, शरीर, साहित्य, हमारी प्लानिंग को देख लीजिए, यह हमारी सिद्धियाँ हैं। ज्ञान की थाह आप ले लीजिए, हमारे धन की जानकारी ले लीजिए, हमारी भावना को देख लीजिए, कितने लोग हमारे दर्शन को लालायित रहते हैं। यह सारी हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ हैं। ऋद्धियाँ तो हमारी दिखलाई नहीं पड़ती। हमें खूब आराम से नींद आ जाती है, पास में नगाड़ा भी बजता रहे, तो भी कोई परवाह नहीं। चिन्ता हमारे पास नहीं है। हम निर्भीक हैं। आत्मसंतोष हमारी ऋद्धि है। हमारा लोकसम्मान बहुत है। लोकसम्मान उसे कहते हैं- जिसमें जनता का सहयोग मिलता है। भगवान् का अनुग्रह भी हमें मिला है। अनुग्रह कैसा होता है, कहते हैं कि देवता ऊपर से फूल बरसाते हैं। हमारे ऊपर हमेशा फूल बरसते रहते हैं, जिसे हम प्रोत्साहन, साहस, हिम्मत, प्रेरणा, उत्साह, उम्मीद कह सकते हैं। देवता इसे हमारे ऊपर बरसाते रहते हैं।

        मित्रो, हम अपने पिता के वफादार बेटे हैं। हमने उनके धन को पाया है, क्योंकि हमने उनके नाम को बदनाम नहीं किया है। हमने अपने पिता की लाज रखी है। हमने अपने पिता के व्यवसाय को जिंदा रखा है हमने उनके बगीचे को हमेशा हरा-भरा तथा अच्छा बनाने का प्रयास किया है। मनुष्यों को सुसंस्कारी तथा समुन्नत बनाने के लिए जो भी संभव था, उसे हमने पूरा किया है। हमारे पिता हमसे हमेशा प्रसन्न रहते हैं। युवराज वह होता है, जो अपने पिता के समान हो जाता है। हम अपने पिता के युवराज हैं। हम अपने पिता के समकक्ष हो गये हैं। हमने पिता को गुम्बज की आवाज-प्रतिध्वनि के रूप में देखा है। जो शब्द हमने कहा-वैसा ही सुनने को मिला। हमने कहा कि जो कुछ भी हमारे पास है, वह आपका है। उसने भी ऐसा ही कहा कि जो कुछ हमारे पास है, वह तुम्हारा है। हमने कहा कि हमें नहीं चाहिए आपका, उसने भी वैसा ही कहा।

       भगवान् हमेशा हमारे बॉडीगार्ड के रूप में फिरता रहता है। वह कहता है कि कभी भी हिम्मत मत हारना, साहस मत खोना, किसी से डरना मत। जो तुम्हें तंग करेगा, उसे हम ठीक कर देंगे। उसकी नाक में दम कर देंगे। वह परेशान एवं हैरान हो जाएगा। उसे हम धूल में मिला देंगे। हमारा बॉडीगार्ड आगे-आगे चलता है। हम उसके पीछे चलते हैं। हमारा पायलट आगे चलता है, बॉडीगार्ड पीछे चलता है। हम सुरक्षित होकर मिनिस्टर के तरीके से शानदार ढंग से चलते हैं। यह हमारा प्रत्यक्ष चमत्कार है, जो आप देख रहे हैं।

        आध्यात्मिक क्षेत्र में सिद्धि पाने के लिए अनेक लोग प्रयास करते हैं, पर उन्हें सिद्धि क्यों नहीं मिलती है? साधना से सिद्धि पाने का क्या रहस्य है? इस रहस्य को न जानने के कारण ही प्रायः लोग खाली हाथ रह जाते हैं। मित्रो, साधना की सिद्धि होना निश्चित है। साधना सामान्य चीज नहीं है। यह असामान्य चीज है। परन्तु साधना को साधना की तरह किया जाना परम आवश्यक है। साधना कैसी होनी चाहिए इस सम्बन्ध में हम आपको पुस्तकों का हवाला देने की अपेक्षा एक बात बताना चाहते हैं, जिसकी आप जाँच-पड़ताल कभी भी कर सकते हैं।

       हम पचहत्तर साल के हो गये हैं। कहने का मतलब यह है कि हमारे पूरे ७५ साल साधना में व्यतीत हुए हैं। यह हमारा जीवन एक खुली पुस्तक के रूप में है। हमने साधना की है। उसका परिणाम मिला है और जो कोई भी साधना करेगा, उसे भी परिणाम अवश्य मिलेगा। हमें कैसे मिला, इसके संदर्भ में हम दो घटनाएँ सुनाना चाहते हैं।

      पहली बार हमारे पिताजी हमें महामना मदनमोहन मालवीय जी के पास यज्ञोपवीत एवं दीक्षा दिलाने के लिए बनारस ले गये थे। मालवीय जी ने काशी में हमें यज्ञोपवीत भी पहनाया और दीक्षा भी दी। उस समय उन्होंने हमें बहुत-सी बातें बतलायीं। उस समय हमारी उम्र बहुत कम यानी ९ वर्ष की थी, परन्तु दो बातें हमें अभी भी ज्ञात हैं। पहली बात उन्होंने कहा कि हमने जो गायत्री मंत्र की दीक्षा दी है, वह ब्राह्मणों की कामधेनु है। हमने पूछा कि क्या यह अन्य लोगों की नहीं है? उन्होंने कहा कि नहीं, ब्राह्मण जन्म से नहीं, कर्म से होता है। जो ईमानदार, नेक, शरीफ है तथा जो समाज के लिए, देश के लिए, लोकहित के लिए जीता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं। एक औसत भारतीय की तरह जो जिए तथा अधिक से अधिक समाज के लिए लगा दे, उसे ब्राह्मण कहते हैं। गाँधीजी ने भी राजा हरिश्चन्द्र का नाटक देखकर यह वचन दिया था कि हम हरिश्चन्द्र होकर जियेंगे। वे इस तरह का जीवन जिए भी। हमने भी मालवीय जी के सामने यह संकल्प लिया था कि हम ब्राह्मण का जीवन जियेंगे। हमने वैसा ही जीवन प्रारम्भ से जिया है।

        हमारे दूसरे आध्यात्मिक गुरु, जो हिमालयवासी हैं और जो सूक्ष्म-शरीरधारी हैं, उन्होंने हमारे घर में प्रकाश के रूप में आकर दीक्षा दी। उन्होंने हमें पूर्व जन्म की बातें दिखलाईं। उसके बाद उन्होंने हमें गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। हमने कहा कि गायत्री मंत्र की दीक्षा तो हम पहले से लिए हुए हैं, फिर दोबारा देने का क्या अर्थ है? उन्होंने कहा कि आपके पहले गुरु ने यह कहा था कि यह ब्राह्मणों की गायत्री है। अब हम यह बतलाते हैं कि बोओ और काटो। इस मंत्र के अनुसार हमने अपने पिता की सम्पत्ति को भी लोकमंगल में लगा दिया। हमने बोया और पाया है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि इसके अलावा अन्य चार चीजों को भगवान् के खेत में लगाना चाहिए। समय, श्रम, बुद्धि-जो भगवान् से मिली है। धन वह है, जो संसार में कमाया जाता है। ये चारों चीजें हमने समाज में लगा दीं। इसके द्वारा हमारी पूजा, उपासना एवं साधना हो गयी। हमारे ब्राह्मण-जीवन का यही चमत्कार है। यही मेरी पूजा है।
    
समय के बारे में आप देखना चाहें, तो इन पचहत्तर वर्षों में हमने क्या किया है, कितना किया है, वह आप देख सकते हैं। हमने भगवान् यानी जो अच्छाइयों का समुच्चय है, उसे समर्पण करके यह सब किया है। हमारी उपासना और साधना ऐसी है कि हमने सारी जिन्दगी भर धोबी के तरीके से अपने जीवन को धोया है और अपनी कमियों को चुन-चुनकर निकालने का प्रयत्न किया है। आराधना हमने समाज को ऊँचा उठाने के लिए की है। आप यहाँ आइये और देखिये, अपने मुख से अपने बारे में कहना ठीक बात नहीं है। आप यहाँ आइये और दूसरों के मुख से सुनिये। हम सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, असामान्य व्यक्ति हैं। यह हमें उपासना, साधना और आराधना के द्वारा मिला है। आप अगर इन तीनों चीजों का समन्वय अपने जीवन में करेंगे, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपको साधना से सिद्धि अवश्य मिलेगी।

      हमारे जो भी सहयोगी, सखा, सहचर एवं मित्र हैं, उनसे हम यही कहना चाहते हैं कि आप केवल अपने तथा अपने परिवार के लिए ही खर्च मत कीजिए, वरन् कुछ हिस्सा भगवान् के लिए भी खर्च कीजिए। साथ ही हम यह भी कहते हैं कि बोइये और काटिये। फिर देखिये कि जीवन में क्या-क्या चमत्कार होते हैं। आप जनहित में, लोकमंगल में, पिछड़ों को ऊँचा उठाने में अपना श्रम, समय, साधन लगाएँ। अगर आप इतना करेंगे, तो विश्वास रखिये आपको साधना से सिद्धि मिल सकती है। हमने इसी आधार पर पाया है और आप भी पा सकेंगे, परन्तु आपको सही रूप से इन तीनों को पूरा करना होगा। आपकी साधना तब तक सफल नहीं होगी, जब तक आप हमारे साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलेंगे। यदि आप हमारे कंधे से कंधा मिलाकर और कदम से कदम मिलाकर चल सकें, तो हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आपका जीवन धन्य हो जाएगा, पीढ़ियाँ आपको श्रद्धापूर्वक याद रखेंगी। आज की बात समाप्त।



ॐ शान्तिः
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