सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र

षठ चक्रों में कैद चेतन सागर

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मानवी काय सत्ता के जिस पक्ष की चर्चा पहले की गयी वह सामान्य ज्ञान की परिधि में आता है, उसे यंत्र उपकरणों के माध्यम से जाना जाने लगा है । यह काया का स्थूल पक्ष है । इसी को पैथालॉजिस्ट विश्लेषण करते, काय चिकित्सक एंव शल्य विशेषज्ञ इसी आधार पर टूट-फुट की मरम्मत करते रहते हैं ।

इससे आगे जो चेतन सत्ता का प्रसंग आता है वह स्थूल भी है और सूक्ष्म भी । स्थूल इतना कि प्राण निकलते ही सारा खेल समाप्त हो जाता है और क्षण भर पहले जो शरीर नाना प्रकार की हलचलें कर रहा था वही शरीर निश्चेष्ट होकर सड़ने लगता है । सूक्ष्म इतना कि इसके छोटे-बड़े अनेक घटक विश्व चेतना से जुड़े रहते हैं । इस ब्रह्मण्ड में भी कुछ विद्यमान है, उसे अपनी क्षमता के अनुरूप ग्रहण करते एवं सतत् फेंकते रहते हैं ।

व्यक्ति चेतना ब्राह्मी चेतना का ही अंग होने के नाते उसी से सतत् अनुदान पाती वह आदान-प्रदान का क्रम बनाए रखती है । कुण्डलिनी शक्ति के प्रसंग में जब भी चर्चा चलती है, इसी सूक्ष्म चेतनसत्ता का विवेचन इस संदर्भ में किया जाता है ।

मनुष्य शरीर में ऐसे अनेकों केन्द्र हैं जिनमें जीवनी शक्ति प्राण ऊर्जा की बहुलता होती है । इन्हें मर्म स्थान कहते हैं तथा इनकी संख्या सात सौ बताई गयी है । इन स्थानों में प्राणशक्ति में कमीवेशी होने पर स्वास्थ्य संतुलित बिगड़ जाता है और व्यक्ति को अनेकों बीमारियाँ धर दबोचती हैं । चिकित्सा विज्ञान में मर्म स्थानों का विशेष महत्व बतलाया गया है । जापान और चीन में एक्यूपंचर एवं एक्यूप्रेशर चिकित्सा प्रणाली का मूल आधार यही मर्म स्थान है ।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक के कार्लफ्रीड ने 'द वाइटल सेण्टर्स आफ मैन' ग्रंथ में कहा है कि मर्म स्थानों पर तंत्रिका तंतु अधिक एकत्रित और सघन होते हैं तथा वे केन्द्र से एवं एक-दूसरे से सम्बन्धित भी होते हैं । मर्म स्थानों के अतिरिक्त शरीर में सात ऐसे प्रमुख केन्द्र हैं जिनमें प्राणशक्ति अतिन्द्रिय क्षमताओं को अपार वैभव प्रसुप्त स्थिति में दबा पड़ा है । इन स्थानों को 'चक्र' या 'प्लेक्सस' कहते हैं । इन केन्द्रों में ज्ञान तंतु अधिक मात्रा में उलझे होते हैं । स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर के मिलन स्थान पर चक्रों की उपस्थिति बताई गयी है ।

योरोप के प्रख्यात मनोवैज्ञानिक पैरासेल्सस ने शरीरस्थ सूक्ष्म केन्द्रों को 'एस्ट्रम' (तारा) नाम से उन पर प्रकाश डालते हुए उन्हें शक्ति पुंज बताया है उनके मतानुसार इन सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों के माध्यम से ग्रह-नक्षत्रीय एवं ब्रह्मण्डीय शक्तियाँ मनुष्य के शरीर में अवतरित होती हैं ।

योगाचार्यों ने चक्रों को 'कमल' नाम से भी सम्बोधित किया है जैसे हृदय कमल, नाभिकमल सहस्रार कमल आदि । अंग्रेजी में इन्हें 'प्लेयूसोस' और जापानी 'जैन' धर्म की व्याख्यानुसार 'क्यूसोस' कहा गया है । चीन की ताओ प्रणाली में चक्रों को विश्व ब्रह्मण्ड मे बिखरे हुए नर और नारी-'यांग और यिन' शक्तियों के एकत्रीकरण-सम्मिलित का केन्द्र बताया गया है ।

सर जॉन बुडरफ ने ''पॉवर एज रिअलिटी'' एवं ''शक्ति एवं शाक्त में वी.जी.रेले ने ''दमिस्टीरियस कुण्डलिनी में श्रीदास गुप्ता ने ''हिन्दी ऑफ इण्डियन फिलॉसफी'' वॉल्यूष ''र'' में इवान्स वेण्टज ने ''टिबेटन बुक ऑफ ग्रेट लिबरेशन'' में एवं एच.जी.बेन्स ने ''माइथालॉजी ऑफ सोल'' में जिस सूक्ष्म शरीर की संरचना का वर्णन किया है वह मूलतः वही है योग व तंत्र पर भारतीय दर्शनकारों ऋषिगणों ने निरूपित किया है ।
योग कुण्डल्युपनिषद महानिर्वाण तंत्र षट्चक्र निरुपणम ध्यान बिन्दू उपनिषद् योगार्णव तंत्र कुलार्णव तंत्र शारदातिलक इत्यादि ग्रंथों में कुण्डलिनी-इड़ा पिंगला सुषुम्ना, मेरुदण्ड एवं मूलाधार सहस्रार रूपी दो केन्द्रों संबंधी जो विवेचन किया गया है उसे विज्ञान सम्मत भाषा में एक सीमा तक ही प्रस्तुत किया जा सकता है ।

सुषुम्ना को वैज्ञानिक स्थायी द्वितीय केन्द्र (इलेक्टि्रक डायपोल) मानते हैं कि जिसका अधोभाग जो काडा इक्वाइना कहलाता है ऋण आवेश है तथा उर्ध्व वाला ''सेरिब्रम'' नामक भाग धन आवेश युक्त । काडा इक्वाइना व मूलाधार चक्र की स्थिति एक है । इसी प्रकार सेरिब्रम में विद्यमान विद्युतस्फुलिंगों का फब्बारा ''एसेण्डिंग रेटीकुलर एक्टीटिंग सिस्टम'' सहस्रार के समकक्ष माना जाता है ।

असामान्य स्थिति में जब प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर बहता है तो इसे काम बीज से ब्रह्म बीज की महायात्रा कहते हैं जो मेरुदण्ड रूपी देवयान मार्ग पर पूरी की जाती है । अलंकारिक रूप से इन्हीं अंगों को विभिन्न नाम दिये गए हैं पर होते ये सूक्ष्म विद्युतचुम्बकीय प्रवाह के रूप में ही हैं ।

वैज्ञानिक बताते हैं कि शरीर में कुल मिलाकर मोटे तौर पर एक लाख वोल्ट प्रति सेण्टीमीटर का विद्युत दबाव होता है । अन्य जीवधारियों की भाँति यह भी जननेन्द्रियों से, त्वचा से, श्वास मार्ग से क्रमशः नित्य प्रतिदिन क्षरित होकर नष्ट होता रहता है । मात्र मनुष्य को यह सामर्थ्य विधाता से मिली है कि वह स्खलन के पतन गर्त्त में पड़ी आत्मसत्ता को उर्ध्वगामी बना सके, क्षरण को रोक सके एवं योगाभ्यास द्वारा चक्र बंधन करते हुए सहस्रार को जगाकर अपना तजोवलय बढ़ा सके ।

चक्र जैसा कि बताया जा चुका है-कुल छः है । सातवें सहस्रार की गिनती इसमें नहीं होती । उसे सहस्र दल कमल कहा गया है । नीचे से ऊपर ये चक्र जिस क्रम में है व उनका एनाटॉमी से किस सीमा तक संबंध है, उसका संक्षिप्त विवेचन यहाँ किया जा रहा है ।

मूलाधार चक्र सुषुम्ना (स्पाइनल कॉर्ड की मध्य केनाल) के चलते सिरे पर मेरुदण्ड के काक्सीजियल क्षेत्र-पेरीनियम में गुदा व जननेन्द्रिय के मध्य स्थित होता है । यहाँ पर काडा इक्वाइना से निकली सेक्रल नर्वरूट्रष कई गुच्छक बनाकर सेक्रल एवं पेरिनियल प्लेक्सस बनाती है । नाड़ी गुच्छाओं में प्रवाहित विद्युतधारा चक्रवात के समान ऊर्जा उत्पन्न करने वाली भँवर बनाती है । इसी सूक्ष्म विद्युत प्रवाह को मूलाधार शक्ति कहते हैं जिसका मूल कार्य है उत्पादन ।

प्रजनन कुण्डलिनी महाशक्ति साढ़े तीन कुण्डलिनी में लिपटी यहीं सोयी पड़ी रहती है । यहाँ स्थित प्रवाह को ४ पुखुड़ियों वाले कमल के रूप में योगीराज देखते व इन्हें ४ वृत्तियों परमानन्द, सहजानन्द, योगानन्द, वीरानन्द का प्रतीक बताते हैं । यहाँ जो शब्द ब्रह्म के कम्पन होते हैं उससे जो शब्द की व्युत्पत्ति होती है उसे ''ल'' नाम दिया गया है । इस चक्र की तन्मात्रा गंध व तत्व पृथ्वी है ।

ऊपर की ओर यात्रा करते हुए अगला चक्र स्वाधिष्ठान आता है जो मूलाधार से चार अंगुल ऊपर हाइपोगेस्टि्रयम के स्थान पर अवस्थित है । यहीं पर स्थित प्लेक्सस सुषुम्ना के दोनों ओर स्थित सिम्पैथेटिक गैंगलियान व सुषुम्ना के कड़ी गुच्छकों से मिलकर बनता है । इससे जुड़ा आंतरिक अंग एड्रीनल ग्रंथि है जो एड्रीनल हार्मोन से संबंधित है ।

तनाव से जूझने व प्रतिकूलताओं से मोर्चा लेने की क्षमता इसी की सक्रियता से आती है । उत्सर्जन-विसर्जन इसका मूल कार्य है । किन्तु इसके जाग्रत होने पर बलिष्ठता व स्फूर्ति बढ़ती है । आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गुण मिटते हैं । यहाँ स्थित कमल की छः पंखुरियाँ मानी गयी हैं । बीज मंत्र ''ब'' है । इस चक्र की तन्मात्रा रस एवं तत्व जल है । मूलाधार व स्वाधिष्ठान होनों ही एक समूह में आते हैं एवं इनका मिलन बिन्दू रुद्रगंथि कहलाता है ।
तीसरा चक्र मणिपूर है । शरीर संरचना की दृष्टि से यह नाभिस्थान में मेरुदण्ड के लम्ब रीजन में होता है । यहीं पर सोलर प्लेक्सस होता है जो सिम्पैथेटिक गैंगलियान एवं बेगस नर्व के नाड़ी गुच्छकों से मिलकर बनता है । इससे जुड़ी ग्रंथि पैंक्रियाज है, जो हार्मोन्स के अतिरिक्त एन्जाइम्स बनाती है । इस चक्र के जागरण से संकल्प बल व पराक्रम बढ़ता है ।

पाचन क्रिया में सहायता इसका मूल कार्य है । मनोविकार घटते हैं एवं परमार्थ में रुचि बढ़ती है ।नाभि स्थित यह कमल दस दल वाला माना गया है । इसका बीज मंत्र ''र'' मन्मात्रा रूप (दृश्य) एवं तत्व 'अग्नि' है । इसके जागरण से शरीर को तीनों अग्नियाँ जाग्रत होती व उर्ध्वगमन में सहायता बनती हैं । इस चक्र के उद्भूत ऊर्जा को अपनी चक्रा मशीन से जापान के डॉ. हिरोशिमा मोटोयाम ने मापा व ग्राफ पर अंकित भी किया है । तिब्बती इसे मणिपद्म कहते हैं ।

चौथा चक्र अनाहत है जो हृदय के पीछे कार्डियक प्लेक्सस के स्थान पर अवस्थित माना जाता है । यहाँ सिम्पेथेटिक गैंगलियान चेन व सुषुम्ना तथा वेगस के नर्व तन्तु मिलकर एक जाल बनाते व पूरे हृदय क्षेत्र को ऊर्जा देने की भूमिका हैं । पेसमेकर का ऊर्जा स्रोत यही है । इसे भाव संस्थान भी माना गया है । कलात्मक उमंगें-रसानुभूति व कोमल संवेदनाओं का उत्पादन स्रोत यही चक्र है । इसके जागरण से उदार सहकारिता, परमार्थ, परायणता, ''वसुधैव कुटुम्बकम'' के भाव उभरते हैं ।

थाइमस इससे जुड़ी ग्रंथि है । प्राण धारण एवं उसका सुनियोजिन इसका मूल कार्य है । इस चक्र का बीज मंत्र ''य'' है। अनाहत नाद अथवा शब्द ब्रह्म की केन्द्र स्थली इसे माना गया है । शब्द ही इसकी तन्मात्रा एवं वायु इसका तत्त्व है । अनाहत व मणिपुर दोनों मिलकर सूर्य खण्ड बनाते है विष्णु ग्रंथि कहलाते हैं ।

कण्ठ में विशुद्धि चक्र होता है । थाइराइट ग्रंथि तथा उसी के पीछे स्थित फेरेन्जियल व लेरेन्जियल प्लेक्सस इससे संबंधित हैं । इस चक्र के जागरण से अतिन्द्रिय क्षमता के प्रसुप्त बीजांकुर फूट पड़ते हैं । यह चक्र सीधे अचेतन मन व चित्त संस्थान को प्रभावित कर दायें मस्तिष्क के ''साइलेण्ट एरिया'' को जगाता है । यहाँ स्थित कमल १६ पंखुरियों वाला है एवं इनका बीज मंत्र 'हं' है । स्पर्श इसकी तन्मात्रा एवं आकाश तत्त्व है ।

आज्ञा चक्र छटा एवं अंतिम चक्र है जो विशुद्धि के साथ मिलकर चन्द्र समूह तथा ब्रह्म ग्रंथि बनाता है । इसका बीज मंत्र ॐ एवं तत्व मनस् है । इसे द्विदलीय कहा गया है जो पीनियल व पीटयूटरी ग्रंथि से मिलाकर बनते हैं । मध्य की सीध में ये दोनों ग्रंथियाँ हैं जो पूरे शरीर की गतिविधियों का संचालन करती हैं । इसके जागरण से दिव्य चक्षु खुल जाते हैं । लिम्बिक सिस्टम व हाइपोथेलेमस में जाग्रति आने से मस्तिष्क की सभी परतें खुल जाती हैं ।

व्यष्टि सत्ता समष्टि चेतना से संबंध जोड़ने में सक्षम हो जाती हैसहस्रार कुण्डलिनी जागरण की महायात्रा का अंतिम पडाव है जो मस्तिष्क मध्य में इन्टरनल कैप्सूल व रेटीकूलर एक्टीवेटिंग सिस्टम में अवस्थित माना जाता है । यहाँ से स्फुल्लिंग सहस्रों की संख्या में उठते हैं । इसलिए इसे सहस्रार कहा गया है । इसे ब्रह्मलोक एवं ब्रह्मरध्र भी कहते हैं । आज्ञाचक्र इसका उत्पादन केन्द्र होने के नाते जुड़ा है ।

सहस्रार उत्तरी ध्रुव है जो ब्रह्माण्डीय चेतना से जुडकर ब्रह्मानन्द की प्राप्ति कराता है । सहस्रार के जागरण का अर्थ है सारे ग्रे मैटर के केन्द्रों का जागरण । सुषुम्ना नाड़ी जो मूलाधार चक्र से चलकर ऊपर बढ़ती है अपने दोनों ओर बायें से दायें व फिर दायें से बायें इड़ा (गंगा)एवं पिंगला (यमुना)नाड़ियों को लेकर चलती है । इड़ा बायीं ओर होती व चन्द्र नाड़ी कहलाती है एवं नेगेटिव आवेश युक्त होती है । पिंगला दायीं ओर होती व सूर्य नाड़ी कहलाती है एवं पॉजीटिव आवेशयुक्त होती है । दो इन के संगम स्थल हैं, जो सुषुम्ना रूपी सरस्वती से मिलकर मूलाधार व आज्ञा चक्र पर त्रिवेणी संगम बनाते हैं । इड़ा व पिंगला नाड़ियाँ पेरासिम्पैथेटिक व सिम्पैथेटिक सिस्टम का प्रतिनिधित्व करती है ।

वस्तुतःकुण्डलिनी शक्ति का स्थूल एनॉटामी की शब्दावली में वर्णन करना असंभव है । जो भी परिकल्पना विभिन्न मनीषियों ने की है उसका सार उर्पयुक्त वर्णन माना जा सकता है । कुण्डलिनी, सर्पेण्टपॉवर, जीवनीशक्ति, फायर ऑफ लाइफ न जाने कितने नामों से जानी जाती है । षट्चक्र वे धन व कुण्डलिनी जागरण से उद्भूत ऊर्जा व्यक्ति को ब्रह्मवर्चस सम्पन्न बनाती है ।

(सावित्री कुण्डलिनी एवं तन्त्र : पृ-6.12)


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