सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र

सावित्री साधना और कुण्डलिनी जागरण

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पिछले पृष्ठों में बताया गया है कि ब्रह्माजी के दो प्रत्नियाँ थीं । प्रथम गायत्री दूसरी सावित्री । इसे अलंकारिक प्रतिपादन में ज्ञान चेतना और पदार्थ सम्पदा कहा जा सकता है । इनमें एक परा प्रकृति है, दूसरी अपरा । परा प्रकृति के अन्तर्गत मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार-अहंकार चतुष्टय, ऋतम्भरा प्रज्ञा आदि का ज्ञान क्षेत्र आता है । दूसरी पत्नी सावित्री । इसे अपरा प्रकृति, पदार्थ चेतना, जड़ प्रकृति कहा जाता है । पदार्थों की समस्त हलचलें-गतिविधियाँ उसी पर निर्भर हैं ।

परमाणुओं की भ्रमणकारी, रसायनों की प्रभावशीलता, विद्युत ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व, ईश्वर आदि उसी के भाग हैं । पदार्थ विज्ञान इन्हीं साधनों को काम में लाकर अगणित आविष्कार करने और सुविधा साधन उत्पन्न करने में लगा हुआ है । इसी प्रकृति को सावित्री कहते हैं । कुण्डलिनी इसी दूसरी शक्ति का नाम है ।

दूसरी शक्ति सावित्री-पदार्थ शक्ति, क्रियाशीलता इस अपरा प्रकृति से ही प्राणियों को शरीर संचालन होता है और संसार की प्रगति चक्र चलता है । शरीर में श्वास-प्रश्वास, रक्त-संचार, निद्रा-जागृति, पाचन-विसर्जन, ऊष्मा-ऊर्जा, विद्युत प्रवाह अगणित क्रियाकलाप काया के क्षेत्र में चलते हैं ।

संसार का हर आदि पदार्थ क्रियाशील है । उत्पादन , अभिवर्धन और परिवर्तन का गतिचक्र इस सृष्टि में अनवरत गति से चलता है । प्राणी और पदार्थ सभी अपने-अपने ढंग से प्रगति पथ पर द्रुतगति से दौड़ रहे हैं । विकास की दिशा में कण-कण को धकेला जा रहा है । निष्क्रियता को सक्रियता के रूप में बदलने का प्रेरणा केन्द्र जिस महत्व में सन्निहित है, उसे अपरा प्रकृति कहते हैं । सत, रज, तम-पंचतत्व तन्मात्राएँ आदि का सूत्र संचालन यही शक्ति करती है । सिद्धियाँ और वरदान इसी के अनुग्रह से मिलते हैं । ब्राह्माजी की द्वितीय पत्नी सावित्री इसी को कहते हैं।

‍ मनुष्य शरीर में आरोग्य, दीर्घजीवन, बलिष्ठता, स्फूर्ति, साहसिकता,सौन्दर्य आदि अगणित विशेषताओं इसी पर निर्भर हैं । यों इसका विस्तार तो सर्वत्र है, पर पृथ्वी में ध्रुव केन्द्र में और शरीर के मूलाधार चक्र में इसका विशेष केन्द्र है साधना प्रयोजन में इसी को कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं ।

गायत्री और सावित्री दोनों परस्पर पूरक हैं । इनके मध्य कोई प्रतिद्वन्दिता नहीं है । गंगा-जमुना की तरह ब्रह्म हिमालय की इन्हें दो निर्झरिणी कह सकते हैं । सच तो यह है कि दोनों अविच्छन्न रूप से एक-दूसरे के साथ गूँथी हुई हैं । इन्हें एक प्राण दो शरीर कहना चाहिए । ब्रह्मज्ञानी को भी रक्त-मांस का शरीर और उसक निर्वाह का साधन चाहिए । पदार्थों का सूत्र संचालन चेतन के बिना सम्भव नहीं ।

इस प्रकार यह सृष्टिक्रम दोनों के संयुक्त प्रयास से चल रहा है । जड़-चेतन का संयोग बिखर जाय, तो फिर दोनों में से एक का भी अस्तित्व शेष न रहेगा । दोनों अपने मूल कारण में विलीन हो जाएँगे । इसे सृष्टि के, प्रगति रथ के दो पहिये कहना चाहिए । एक के बिना दूसरा निरर्थक है । अपंग तत्त्वज्ञानी और मूढ़ मति, नर-पशु दोनों ही अधूरे हैं ।

शरीर में दो भुजाएँ, दो पैर, दो आँखें, दो फेफड़े, दो गुर्दे आदि हैं । ब्रह्म शरीर भी अपनी दो शक्ति धाराओं के सहारे यह सृष्टि प्रपंच संजोये हुए हैं, इन्हें उसकी दो पत्नियाँ, दो धाराएँ आदि किसी भी शब्द प्रयोग के सहारे ठीक तरह वस्तुस्थिति को समझने का प्रयोजन पूरा किया जा सकता है ।

पत्नी शब्द अलंकार मात्र है । चेतन सत्ता का कुटुम्ब परिवार मनुष्यों जैसा कहाँ है? अग्नि तत्व की दो विशेषताएँ हैं-गर्मी और रोशनी । कोई चाहे तो इन्हें अग्नि की दो पत्नियाँ कह सकते हैं । सरस्वती को कहीं ब्रह्मा की पत्नी, कहीं पुत्री कहा गया है । इसे स्थूल मनुष्य व्यवहार जैसा नहीं समझना चाहिए । यह अलंकारिक वर्णन मात्र उपमा भर के लिए है । आत्म-शक्ति को गायत्री और वस्तु-शक्ति को सावित्री कहते हैं । सावित्री साधना को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं । उसमें शरीरगत प्राण ऊर्जा की प्रसुप्ति, विकृति के निवारण का प्रयास होता है । बिजली व सावित्री के समन्वय के साधना की समग्र आवश्यकता पूरी होती है ।

नित्यकर्म में, संध्यावन्दन में की जाने वाली गायत्री उपासना सामान्य है । कुण्डलिनी जागरण के लिए गायत्री की उच्चस्तरीय उपासना का क्रम अपनाना पड़ता है । इसे जड़ और चेतन को परस्पर बाँधे रहने वाली सूत्र श्रृंखला कह सकते हैं । प्रकारान्तर से यह प्राण प्रवाह है जो व्यष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का संचालन करता है ।

नर और नारी अपनी जगह पर अपनी स्थिति में समर्थ होते हुए भी अपूर्ण हैं । इन दोनों को समीप लाने और घनिष्ठ बनाने में एक अविज्ञात चुम्बकीय शक्ति काम करती रहती है । इसी के दबाव से युग्मों का बनना और प्रजनन क्रम चलना सम्भव होता है । उदाहरण के लिए इन नर और नारी के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करने वाले चुम्बकीय धारा प्रवाह को कुण्डलिनी की एक चिनगारी कह सकते हैं।
‍प्रकृति और पुरुष को घनिष्ठता बनाये रहना और शरीर में लिप्सा, मन में ललक और अंतःकरण में निष्ठा उभारना इसी कुण्डलिनी महाशक्ति का काम है ।

जीव की समस्त हलचलें, आकांक्षा, विचारणा और सक्रियता के रूप में सामने आती है । इनका सृजन उत्पादन कुण्डलिनी ही करती है । अन्यथा जड़ पंच तत्वों में पुलकित कहाँ, निर्लिप्त आत्मा में उद्विग्न आतुरता कैसी? दृष्टि जगत की समस्त हलचलों के बीच जो बाजीगरी काम कर रही है, उसे अध्यात्म की भाषा में 'माया' कहा गया है । साधना क्षेत्र में इसी को कुण्डलिनी कहते हैं । इसे विश्व हलचलों का मानवी गतिविधियों का, उद्गम मर्मस्थल कह सकते हैं । यह प्रमुख कुञ्जी मास्टर के हाथ आ जाने पर प्रगति का द्वार बन्द किये रहने वाले सभी खुलते चले जाते हैं ।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में ऋतम्भरा प्रज्ञा उभारने के लिए, प्रत्यक्ष सत्ता को प्रखर बनाने के लिए कुण्डलिनी साधना की कार्य-पद्धति काम में लाई जाती है । गायत्री साधना का उद्देश्य मानसिक चेतनाओं का जागरण और कुण्डलिनी साधना का प्रयोजन पदार्थ गत सक्रियताओं का अभिवर्द्धन है ।

मस्तिष्क मार्ग से प्रकट होने वाली चेतनात्मक शक्तियों की सिद्धियों का वारापार नहीं है । योगी, तत्वज्ञानी, पारदर्शी, मनीषी, विज्ञानी, कलाकार, आत्मवेत्ता, महामानव इसी शक्ति का उपयोग करके अपने वर्चस्व को प्रखर बनाते हैं । ज्ञान शक्ति के चमत्कारों से कौन अपरिचित है? मस्तिष्क का महत्व किसे मालूम नहीं? उसके विकास के लिए स्कूली प्रशिक्षण से लेकर स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन और साधना समाधि तक के अगणित प्रयोग किये जाते रहते हैं । इस व्यावहारिक क्षेत्र को गायत्री उपासनापरा प्रकृति की साधना ही कहना चाहिए ।

दूसरी क्षमता है, क्रिया शक्ति । अपरा प्रकृति । शरीरगत अवयवों का सारा क्रिया-कलाप इसी से चलता है । श्वास-प्रश्वास, रक्त-संचार, निन्द्रा, जागृति, मलों का विसर्जन, ऊष्मा, ज्ञान, तत्व, विद्युत प्रवाह आदि अगणित प्रकार के क्रिया-कलाप शरीर में चलते रहते हैं । उन्हें अपना प्रकृति का कर्तव्य कहना चाहिए, इसे जड़-पदर्थों को गतिशील रखने वाली 'क्रिया-शक्ति' कहना चाहिए । व्यक्तिगत जीवन में इसका महत्व भी कम नहीं । आरोग्य, दीर्घजीवन, बलिष्ठता, स्फुर्ति, साहसिकता, सौन्दर्य आदि कितनी ही शरीरगत विशेषताएँ इसी पर निर्भर हैं । इसे व्यावहारिक रूप से कुण्डलिनी शक्ति कहना चाहिए । आहार, व्यायाम, विश्राम आदि द्वारा साधारणतया इसी शक्ति की साधना, उपासना की जाती है ।

यों प्रधान तो मस्तिष्क स्थित दिव्य-चेतना ही है । वह बिखर जाय ते तत्काल मृत्यु आ खड़ी होगी । पर कम उपयोगिता शरीरगत पदार्थ चेतना की भी नहीं कम है । उसकी कमी होने से मनुष्य दुर्बल, रुग्ण, अकर्मण्य, निस्तेज, कुरूप, निरुपयोगी, भार भूत जिन्दगी की लाश ही ढोता रहेगा ।

गायत्री का केन्द्र सहस्रार-मस्तिष्क का मस्तिष्क, ब्रह्मरन्द्र है । कुण्डलिनी का केन्द्र काम बीज-मूलाधार चक्र । गायत्री ब्रह्म चेतना की और सावित्री ब्रह्म तेज की प्रतीक हैं । दोनों में परस्पर सघन एकता और अविच्छिन्न घनिष्ठता है । गायत्री से दिव्य आध्यात्मिक विभूतियाँ उपलब्ध होती हैं और सावित्री से भौतिक ऋद्धि-सिद्धियाँ ।

गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय साधना पंचकोशों की, पंचयोगों की साधना बन जाती है । सावित्री कुण्डलिनी है और उसे पाँच तप साधनों द्वारा जगाया जाता है । योग और तप के समन्वय से ही सम्पूर्ण आत्म-साधना का स्वरूप बनता और समग्र प्रतिफल मिलता है । इसलिए पंचकोशों की गायत्री और कुण्डलिनी जागरण की सावित्री विद्या का समन्वित अवलम्बन अपनाना ही हितकर है ।

बिजली की दो धाराएँ मिलने पर ही शक्तिप्रवाह में परिणत होती हैं । आत्मिक प्रगति का रथ भी इन्हीं दो पहिओं के सहारे महान् लक्ष्य की दिशा में गतिशील होता है । गायत्री साधना का सन्तुलित लाभ उठाने के लिए सावित्री शक्ति को भी साथ लेकर चलना पड़ता है ।

समन्वयात्मक साधना का जितना महत्व है उतना एकांगी का, असंबद्ध का नहीं । प्रायः साधना क्षेत्र में इन दिनों यही भूल होती रही है । ज्ञान मार्गी, राजयोगी-भक्तिपरक साधना तक सीमित रह जाते हैं और हठयोगी, कर्मकाण्डी, तप साधनाओं में निमग्न रहते हैं और उपयोगिता दोनों की है । महत्ता किसी की भी कम नहीं, (पर उनका एकांगीपन उचित नहीं) दोनों को जोड़ा और मिलाया जाना चाहिए । यह शिव-पार्वती विवाह ही गणेश जैसा भावनात्मक वरदान और कार्तिकेय जैसे पदार्थात्मक अनुदानों की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है ।
हम समन्वय साधना की उपयोगिता मानते रहे हैं और उसी का मार्ग-दर्शन करते रहते हैं । वैदिक योग साधन के साथ-साथ तांत्रिक प्रयोगों को भी महत्व दिया है । गायत्री साधना को प्रमुखता देते हुए भी कुण्डलिनी जागरण की उपयोगिता को माना है ।

यही कारण है कि प्रथम पाठ पढ़ाने के बाद दूसरे पाठ की भी पृष्ठभूमि तैयार की गयी है । इसे प्रकारांतर न समझा जाय इसमें विरोधाभास न ढूँढा जाय । यह इकलौती संतान के बड़े होने पर उसका जोड़ा मिलाने, विवाह करने का प्रयत्न मात्र है । यों गायत्री के देवता सविता को विष्णु या शिव मानते हैं और उनकी पत्नी अग्नि, लक्ष्मी, काली को कुण्डलिनी का प्रतीक माना गया है ।

इस प्रकार सुगम युग्म एक प्रकार से नर-नारी का, शिव-पार्वती का विवाह ही हुआ धनुष तोड़ने की प्रक्रिया पूरी करके इसे सिया स्वयंवर रामजी का विवाह सम्पन्न करना कहा जा सकता है । पर यदि कोई कुण्डलिनी और गायत्री में भाषा की दृष्टि से एक ही लिंग देखता हो तो भी उसे कुछ अचम्भा नहीं करना चाहिए । जीव और ब्रह्म दो पुल्लिंग होते हुए भी परस्पर विवाह करते हैं । साक्षी दृष्टा ब्रह्म निष्क्रिय है उसकी परा-अपरा प्रकृतियाँ दोनों परस्पर मिल जुलकर ही अपने संयोग-संभोग से इस समस्त सृष्टि का सृजन कर संचालन कर रही है । यह कथन अलंकार भर है । वस्तुतः नर-नारी जैसा लिंग भेद सूक्ष्म जगत में कहीं है ही नहीं ।

गायत्री या कुण्डलिनी को स्त्री और ब्रह्म शिव और पुरुष मानना अपनी बात को चेतना का उदाहरण देकर समझाना भर है । तत्वतः इस उच्च शक्ति क्षेत्र में नर-नारी जैसा कोई भेद है ही नहीं । इस जगत में भी जिन ब्रह्म वादियों को तत्वज्ञान हो जाता है वे नर-नारी के शरीर भेदों के अंतर को भी सर्वथा भुला ही देते हैं । उन्हें सभी में एक लिंग एक तत्व दिखाई पड़ता है । उनकी दृष्टि में न कोई नर है और न नारी । अद्वैत ज्ञान में भेद बुद्धि समाप्त होते ही नर-नारी की भिन्नता भी समाप्त हो जाती है । कुण्डलिनी और गायत्री विद्याओं के सम्बन्ध में यदि विवाह संयोग, समन्वय जैसी चर्चा अलंकारिक रूप से आ पड़े तो उसमें कुछ विस्मय न किया जा इसीलिए यह पंक्तियाँ लिखी गई हैं ।

तत्व-दर्शियों ने गायत्री और कुण्डलिनी को परस्पर पूरक माना है और एकात्म भाव में देखा है । इसके कुछ प्रकरण आगे देखिये ।
कुण्डलिनी साधना के अंतर्गत षट्चक्र वेधन प्रक्रिया मुख्य है । यही इस साधना का प्रधान आधार है । गायत्री शक्ति भी वही प्रयोजन पूरा करती है । इस प्रकार मूलतः वे दोनों एक ही छड़ के दो सिरों की तरह अभिन्न ही हैं । षट्चक्र जागरण में कुण्डलिनी शक्ति को गायत्री का सहकार प्राप्त हो जाता है ।

'गायत्री-मंत्र' का 'भू कार' भू-तत्व या पृथ्वी-तत्व है । साधना के मार्ग में वह मूलाधार चक्र है । फिर जगन्माता के निम्नस्तर ब्राह्मी या इच्छाशक्ति-महायोनि-पीठ में सृष्टितत्व है । 'भुवः' भुवर्लोक या अन्तरिक्ष तत्व । साधना की दृष्टि से यह विशुद्ध-चक्र है और महाशक्ति के मध्यस्तर में पीनोन्नत पयोधार में, वैष्णवी या क्रिया-शक्ति पालन व सृष्टि तत्व है । 'स्वःकार' सुरलोक या स्वर्ग तत्व । साधना के पक्ष में सहस्रार निर्दिष्ट चक्र एवं आद्यशक्ति के ऊर्ध्व या उच्चस्तर में गौरी या ज्ञान-शक्ति, संहार या तय तत्व है । यही वेदमाता गायत्री का स्वरूप तथा स्थान रहस्य है ।

यों ज्ञान चेतना समस्त शरीर में संव्याप्त है पर उसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है । यों क्रिया-शक्ति सम्पूर्ण शरीर में फैली पड़ी है पर उसका केन्द्र स्थल जननेन्द्रिय है । नपुंसक व्यक्ति प्रायः सभी उच्चगुणों के अभिवर्धन और साहस भरे पुरुषार्थी के सम्पादन में असमर्थ रहते हैं । किसी को नपुंसक क्लीव कहना उसकी अतःक्षमता को अपमानित करने वाला है ।

शरीर के अन्य अंग दुर्बल हों तो उसके बिना प्रगति रुकेगी नहीं पर नपुंसक से कुछ महत्वपूर्ण कार्य बन पड़ना कठिन है । सरकारी नौकरियों में भर्ती करते समय डॉक्टरी जांच में यह भी परीक्षा की जाती है कि वह व्यक्ति नपुंसक तो नहीं है । शारीरिक विशेषताओं का केन्द्र इसीलिए जननेन्दि्रय गहर के मर्म स्थल योनि केन्द्र को माना गया है ।

साधना के यही दो मर्म हैं । उन्हें ही कायपिण्ड के दो ध्रुव कहते हैं । यों विद्युत-शक्ति एक ही है पर उसे दो भागों में विभाजित किया गया है एक धन (पोजेटिव) दूसरी ऋण (निगेटिव) मानवी समान चेतना की धन विद्युत इस ज्ञान केन्द्र में केन्द्रिरत है इस स्थल को अध्यात्म की भाषा में 'सहस्रार' कहते हैं । दूसरी ऋण विद्युत काय केन्द्र जननेन्द्रिय मूल में है जिस 'मूलाधार' कहते हैं । इन दो केन्द्रों में से ज्ञान केन्द्र को गायत्री का और काम केन्द्र को-कुण्डलिनी का उद्गम केन्द्र कहा गया है ।

भौतिक क्षमताएँ-समृद्धियाँ, दिव्यविभूतियाँ, ऋद्धियाँ गायत्री के द्वारा विकसित होती हैं । दोनों का सम्मिश्रण साधक को समृद्धियों और विभूतियों से ऋद्धियों को सिद्धियों से ज्ञान और क्रिया से सुसम्पन्न बनाता है । इसलिए दोनों की सम्मिश्रण साधना का अवलम्बन करना ही समन्वयत्मक प्रवृत्ति के साधकों के लिए उपयुक्त है ।
सहस्रार कमल को ब्रह्म केन्द्र के रूप में-गायत्री गहर के रूप में विष्णु के क्षीर सागर या शिव के कैलाश के रूप में चित्रित किया गया । इसके प्रमाण इस प्रकार मिलते हैं ।

ब्रह्मन्ध्र सरसीरुहो दर नित्यलग्नमवदात्मतभुम् कुण्डली
विवरकांड मंडितं द्वादशार्ण सरसीरुहं भजे ।
मस्तक के मध्य अधोमुखी सहस्र दल कमल है । उसके उदर में अद्भूत पथगामिनी नाड़ी है । उसे कुण्डलिनी कहते हैं ।

इदं स्थानं ज्ञात्वा नियतनिजचित्तो नरवरो,
न भूयात् संसारे पुनरपि न बद्धस्त्रिभुवने ।
समग्रा शक्तिः स्यान्नियतमनसस्तस्य कृतिनः,
सदा कर्तु हतु खगतिरपि वाणी सुविमला ।
इस सहस्रार कमल की साधना से योगी चित्त को स्थिर कर आत्मभाव में लीन हो जाता है । भवबन्धन से छुट जाता है । समग्र शक्तियों से सम्पन्न होता है । स्वच्छन्द विचरता है और उसकी वाणी विमल हो जाती है ।

शिरःकपालविवरे ध्यायेद्दुग्ध महोदधिम् ।
तत्र स्थित्वा सहस्रारे पद्मे चन्द्रं विचिन्तयेत्॥ शिव संहिता ५/१७९
कमल की गुफा में क्षीर सागर समुद्र का तथा सहस्र दल कमल में चन्द्रमा जैसे प्रकाश का ध्यान करे ।

सहस्रार चन्द्र की कैलाश पर्वत से तुलना करते हुए वहाँ की दिव्य परिस्थितियों का मत्स्य पुराण में वर्णन किया गया है । यह वर्णन तिब्बत स्थित कैलाश पहाड़ का नहीं वरन् विशुद्ध रूप से ब्रह्मरन्ध्र में अवस्थित सहस्रार ज्ञान केन्द्र का ही है । संवर्तक बड़वानल विद्युत का वहीं निवास है । महासर्पो का सरोवर उसी केन्द्र में है । साधना की सिद्धि इसी केन्द्र में तीव्रगति से होती है । यह तथ्य कैलाश पहाड़ पर लागू नहीं हो सकते ।

परस्परेण द्विगुणा र्धम्मतः कामतोऽर्थतः ।
हेमकूटस्य पृष्ठं तु सर्पाणां तत्सरः स्मृतम्॥
सरस्वतीं प्रभवति तस्माज् ज्योतिष्ठती तु या ।
इत्येते पर्वताविष्टाश्चत्वारो लवणोदधिम् ।
छिद्ममानेषु पक्षेषु पुरा इन्द्रस्य वै भयात्॥
कैलाश पर्वत पर ही हुई साधना से दूनी सिद्धि होती है । धर्म, अर्थ, काम तीनों ही प्राप्त होते हैं । वह हेम कूट पर्वत का सरोवर सर्पो का बनाया हुआ है । ज्योतिर्मान, प्रज्ञा वहीं उत्पन्न होती है । वहाँ संवर्तक नामक महा भयानक अग्नि जलता रहता है । वह उस सरोवर के जल को पी जाता है । यह अग्नि समुद्र को भी सुखा देने वाला बड़वा मुख है ।

मूलाधार को शक्ति का केन्द्र माना गया है । इसे अग्नि कुण्ड-शक्ति उद्गम-काली पीठ तथा क्रिया-शक्ति की अधिष्ठात्री कुण्डलिनी के रूप में चित्रित किया गया है । इसका संकेत अध्यात्म शास्त्र में विस्तृत रूप से मिलता है ।

इन बस तथ्यों पर दृष्टिपात करते हुए निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि गायत्री की ज्ञान शक्ति का और कुण्डलिनी की क्रिया शक्ति का परस्पर अन्योन्याश्रम सम्बन्ध है । दोनों के मिलने से ही परिपूर्ण एवं समग्र उत्कर्ष की सम्भावना मूर्तिमान होती है । इन दोनों साधनाओं में विरोधाभास नहीं माना जाना चाहिये और न प्रकारान्तर । वरन् यही समझना चाहिए कि साधनाक्रम में दोनों का समन्वय होने से भौतिक और आत्मिक दोनों ही सफलताओं के पथ प्रशस्त होता है ।

यह समन्वयात्मक साधना भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रयोजनों को पूरा करती है । इसीलिए साधना विज्ञान के तत्ववेत्ता एकाँगी साधना की अपूर्णता को ध्यान में रखते हुए उभय प्रयोजन पूरे करने वाली समग्र साधना का पथ प्रदर्शन करते रहे हैं । वही यहाँ भी किया जा रहा है ।

या देवता भोगकरी सा मोक्षाग्र न कल्पते ।
मोक्षदा नहि भोगाय त्रिपुरा तु द्वय प्रदा॥
जो देवता भोग देते हैं वे मोक्ष नहीं देते, जो मोक्ष देते हैं, वे भोग नहीं देते । पर कुण्डलिनी दोनों प्रदान करती हैं ।
(सवित्री कुण्डलिनी एवं तन्त्र : पृ-1.19)






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