सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र

कुण्डलिनी योग का स्वरूप और प्रयोग

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योग का अर्थ है मिलना । दो और दो का योग चार होता है । इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा की मिलन प्रक्रिया सम्पन्न करने की विधि व्यवस्था का योग कहा जाता है ।

बिजली का एक तार अधूरा है ऋण और धन विद्युत की दोनों धाराएँ जब दो तारों के माध्यम से मिलतीं हैं उनका शक्ति चमत्कार तुरंत दिखने लगता है । एक तार एक प्रकार से निरर्थक ही है । बिजली को कोई कार्य तभी सम्पन्न हो सकेंगे जब दोनों तार मिल सकें ।

जीव अकेला किसी प्रकार पेट और प्रजनन से सम्बन्धित समस्याएँ भी बड़ी कठिनाई से पूरी कर पाता है । उसी प्रकार ईश्वर भी अपनी अव्यक्त चेतना सत्ता का चमत्कार दिखा सकने में जीव के साथ सम्पर्क हुए बिना एक प्रकार से असमर्थ ही रहता है ।

बछडे़ को गाय की आवश्यकता है ताकि उसे दूध मिले । गाय को बछड़े की आवश्यकता है ताकि उसके थनों का भार हलका हो जाय । गाय और बछडे़ के मिलन में दोनों का आनन्द तो है ही । जीव और ईश्वर को मिलाने वाला योग साधना जहाँ बिजली के तारों की तरह शक्ति को उदभव करती है वहाँ उसके द्वारा उपलब्ध होने वाले आनन्द की गरिमा भी कम नहीं है

योग साधन का दूसरा पहलू यह है कि भौतिक सिद्धियों और आत्मिक विभूतियों की समन्वयात्मक उपलब्धि या मार्ग प्राप्त करना । आमतौर से मनुष्य वासना, तृष्णा और अंहता की पूर्ति के लिए विविध विधि क्रिया-कलापों में निरंतर संलग्न रहते हैं उन्हें आत्म-कल्याण के लिए ध्यान देने का अवकाश अवसर ही नहीं मिलता । दूसरी ओर वे व्यक्ति हैं जो आत्म-कल्याण की बात सोचते हुए यह भूल जाते हैं कि यह जीवन भौतिक और आत्मिक दोनों ही तत्वों से मिलकर बना है ।

शरीर पंच भौतिक है तो आत्मा दिव्य सत्तात्मक । दोनों से मिलजुल कर ही यह जीवनक्रम चल रहा है, सो प्रगति के लिए दोनों ही पक्ष आवश्यक हैं । दोनों ही समान ध्यान दिया जाय । एक हाथ, एक टाँग, एक कान, एक नथूना, एक फेफड़ा आधे शरीर में लकवा, इस स्थिति में एक पहिये की गाड़ी ठीक तरह लुढ़क नहीं सकती ।

एकांगी प्रगति भी उसी तरह की है । व्यष्टि और समष्टि की उभय पक्षीय प्रगति आवश्यक है । मनुष्य और समाज, आचार और व्यवहार दोनों का ताल-मेल ठीक तरह बैठना चाहिए, यही संतुलित एवं संक्षिप्त योग का दार्शनिक पक्ष कहा जा सकता है ।

योग के साधनात्मक पक्ष के भी दो पहलू हैं । एक को आगम दूसरे को निगम, एक को वाम मार्ग दूसरे को दक्षिण मार्ग कहते हैं । इन्हीं का तंत्र और योग के नाम से भी उल्लेख किया जाता है गायत्री और सावित्री विद्या इसे ही कहते हैं ।

तंत्र पक्ष का कहना यह है कि शरीर और मन में शक्ति तत्व भरा पड़ा है, साधना के द्वारा उसी का जागरण और विकास किया जाना चाहिए इससे साधक की भौतिक समर्थता बढ़ेगी और उनके साथ ही आत्मिक उत्कर्ष की भी सम्भावना बढ़ चलेगी । इस पक्ष ने सारा जोर कर्मकाण्डात्मक शरीर और मन तथा उपकरणों के माध्यम से की जाने वाली साधनाओं पर बल दिया है । दसरा पक्ष दक्षिण मार्ग का है उसने भौतिक प्रगति की उपेक्षा की है और आत्मिक प्रगति को मूल माना है ।


दोनों के समन्वय की एक सर्वश्रेष्ठ साधना विधि है-कुण्डलिनी जागरण और योग तथा तंत्र दोनों के सिद्धान्त और प्रयोजनों को ठीक प्रकार सम्मिश्रण किया गया है । इसमें तांत्रिकों द्वारा अभीप्सित भौतिक उन्नति की जितनी सम्भावना है उतनी ही दक्षिण मार्गी ब्रह्मवादियों का भी प्रयोजन उससे पूरा होता है । इन दिनों पक्षों के समन्वय को ही सर्वांग पूर्ण योग साधना कह सकते हैं । कुण्डलिनी योग दृष्टि से समन्वयात्मक और सर्वांग पूर्ण योग साधना कहा जा सकता है ।

नीचे दोनों पक्षों के तर्कों का प्रतिपादन करेंगे । तंत्र पक्ष के प्रतिपादन यह है कि शरीर स्वयं एक अद्भूत शक्ति भण्डार है । नित्य ही उसकी अपरिमित शक्ति अनावश्यक रूप में खर्च होती रहती है इसे यदि बचा लिया जाय और अभीष्ट उच्च प्रयोजनों में लगा दिया जाय तो साधना का बहुत बड़ा प्रयोजन उतने भर में ही सध सकता है ।

नेतृत्व विज्ञान के अनुसार मनुष्य की अपार शक्तियों का व्यय तीन प्रकार से होता है । प्रथम उन कार्यों में जो जीविका उपार्जन, परिवार व्यवस्था, मनोरंजन, नित्यकर्म, जन-सम्पर्क आदि की स्थूल जीवनयापन सम्बन्धी प्रयोजनों के लिए करने पड़ते हैं । दूसरे उन कार्यों में जो मस्तिष्क के द्वारा सम्पन्न होते हैं-जैसे पढ़ना, लिखना, सोचना, समझना, कहना, सुनना जैसे रचनात्मक और चिन्ता, निराशा, घृणा, ईष्र्या, क्रोध, भय, शोक, उद्वेग, संशय जैसे आवेशात्मक ।

इस प्रकर मस्तिष्क द्वारा शक्तियों का बहुत बड़ा भाग खर्च हो जाता है । इंद्रिय भोग जो चाहे मनोरंजन के लिए किये गये हों चाहे किसी उपयोगी प्रयोजन के लिए दोनों पक्षों पर प्रभाव डालते हैं । शरीर और मस्तिष्क की दोनों ही शक्तियों का खर्च उनके द्वारा होता है । तीसरा मार्ग शक्तियों के व्यय का है स्वसंचालित नाड़ी संस्थान ।

शरीर की कुछ क्रियाएँ अनायास ही होती रहती है जिन पर हमारा प्रत्यक्षतः कोई नियंत्रण नहीं होता । रक्त संचार हृदय की धड़कन, श्वांस, प्रश्वांस-क्रिया, मांसपेशियों का आकलन, प्रकुलन, हारमोन, प्रक्रिया नाड़ी-संस्थान की सक्रियता, मस्तिष्क की संवेदनाएँ, स्वेद आदि मलों का विसर्जन पाचन प्रक्रिया आदि कितने ही कार्य शरीर के भीतर अपने आप होते रहते हैं और हमें उनका पता नहीं चलता ।

इसी प्रकार अचेतन मस्तिष्क पर भी अपना सीधा नियंत्रण नहीं होता किन्तु उस भाग द्वारा भी इतनी अधिक तीव्र स्फुरणाएँ, प्रेरणायें प्रादुर्भाव होती हैं कि जीवन का स्वरूप ही एक प्रकार से उन पर निर्भर रहता है । उस अचेतन मन से उठने वाले प्रवाह इतने तीव्र होते हैं कि शरीर और मन इच्छा होते हुए भी उन पर नियंत्रण नहीं कर पाता और लगता रहता है कि कोई अज्ञात शक्ति बल पूर्वक उसे कहीं घसीटे लिए जा रही है ।

इस प्रकार शक्तियों के व्यय के तीन मार्ग हुए (१) शरीर, (२) मस्तिष्क, (३) स्वसंचालिका नाड़ी मण्डल अथवा अचेत मन । इन तीनों में जीवनी शक्ति के व्यय का अनुपात एक, दस और सौ है ।

मान लीजिए दिन-रात काम करने में एक सेर शक्ति खर्च होती है तो मन के द्वारा दस सेर व्यय होगी और स्वसंचालिका नाड़ी संस्थान सौ खर्च करेगा यह एक औसत अनुमान है । व्यक्ति विशेष की परिस्थितियों के अनुसार इसमें हेर-फेर भी हो सकता है पर सामान्यतया यही अनुपात शक्तियों के खर्च होते रहने का रहता है ।

तंत्र पक्ष का प्रतिपादन यह है कि जिस प्रकार मौन, ब्रह्मचर्य, उपवास, एकांत सेवन, पूर्ण विश्राम आदि से शरीर को विश्राम देकर उसकी शक्ति का व्यय बचाया जा सकता है और खोये हुए स्वास्थ्य का सुधारा जा सकता है मन की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा स्थिति मानसिक तनाव दूर करके मस्तिष्कीय काया कल्प किया जा सकता है उसी प्रकार अचेतन नाड़ी मन एवं स्वसंचालिका नाड़ी संस्थान पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सके तो शक्तियों को क्षरण असाधारण रूप से बचाया जा सकता है और उस बचत पूँजी से इतना सार्मथ्यवान बना जा सकता है जिसे शतगुणी कृत कहा जा सके ।

अर्थात एक व्यक्ति से सौ व्यक्तियों जितनी समर्थता संग्रह हो सके और उसका अभीष्ट प्रयोग करके निर्धारित दिशा में सौ गुनी अधिक प्रगति की जा सके ।

दक्षिण मार्गी साधना पक्ष का प्रतिपादन यह है कि यह तो स्थूल शक्तियों की-पंच भौतिक क्रिया-कलाप की सीमा मात्र हुई । इस प्रकार जो शक्ति संग्रह होगा वह उसी स्थूल स्तर का होगा और उससे जो कार्य किया जा सकेगा या लाभ उठाया जा सकेगा उससे सांसारिक एवं दृश्य प्रयोजनों की ही पूर्ति होगी ।

जो सिद्धियाँ उपलब्ध होंगी वे अपना कार्यक्षेत्र इस दृश्य जगत की हर वस्तु हर आकृति और हर परिस्थिति स्वयं में ही अति चंचल है । यदि योग उपलब्ध शक्तियों से मात्र इस अति चंचल और अति परिवर्तनशील जगत से ही कुछ घटनाओं की उलट-पुलट करना बिगाड़ना -सुधारना सम्भव हो सका जो यह चमत्कार जैसा दिखाई भले ही पड़े पर उससे कुछ वास्तविक और स्थिर प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।

इन दोनों पक्षों का दृष्टिकोण अपने-अपने ढंग से सही है । स्थूल शरीर में असीम शक्ति भरी पड़ी है और उसे हठयोग, तंत्रयोग, क्रिया योग आदि के माध्यमों से जाग्रत करके असीम भौतिक लाभ उठाया जा सकता है । दूसरा पक्ष भी सही है कि आत्मा की सामर्थ्य सर्वोपरि है । उसमें स्थिरता भी है और उत्कृष्टता भी फिर उसी का आश्रय क्यों न लिया जाय ।

चिरकाल से चले आ रहे इन अतिवादी पक्षों की एक समन्वित साधना पद्धति का निर्माण निर्धारित किया गया है वह है कुण्डलिनी योग । इसका दर्शन और साधना उपक्रम ऐसा है जिससे दोनों ही आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और भौतिक तथा आत्मिक प्रगति के द्वार समान रूप से खुल जाते हैं ।

कुण्डलिनी योग के अनुसार इस शरीर में दो केन्द्र दो शक्तियों के प्रतीक स्थल हैं । एक प्रकृति का एक परमेश्वर का । एक जीव का दूसरा आत्मा का । इन स्थलों में से एक को सर्पिणी कहते हैं । दूसरे को महासर्प । वस्तुतः यह दो पृथक सत्ताएँ ही नहीं है जैसा कि माना जाता है वरन् एक ही शक्ति के दो सिरे हैं । सर्प की पूँछ और फन दो स्थान पर दिखते हैं, और उनके स्वरूप तथा गुण भी प्रथक-प्रथक हैं पर गहराई से विचार करने पर एक ही सर्प आत्मा के दो अवयव मात्र रह जाते हैं ।

सर्प के प्राण के पृथक न पूँछ का अस्तित्व है न फन का । दोनों की सक्रियता एवं सजीवता सर्प के जीवन तत्व पर ही अवलम्बित है । इसी प्रकार मल और मूत्र स्थान के मध्य एक छोटा सा त्रिकोण परमाणु अवस्थित है, जिसे कूर्म या मूलाधार कहते हैं । इस स्थान पर एक भौतिक विद्युत से सर्वथा भिन्न-आत्मतड़ित का निवास है इसे महा सर्पिणी कहते हैं ।
इसे चाहें तो पूँछ कह सकते हैं । इसका दूसरा सिरा मस्तिष्क के बीचों बीच ब्रह्म रंध्र में है । जहाँ एक परमाणु गोल न होकर इस प्रकार है मानो उसके चारों ओर आरी जैसे छोटे-छोटे दाँत हों । इसे चाहें तो फन कह सकते हैं । कुण्डलिनी महा शक्ति इन दोनों के समन्वय से बनती है । उसे सर्प का प्राण कह सकते हैं ।

फुलझड़ी को दियासलाई से जलाने पर चिनगारियाँ उड़ती हैं । इसी प्रकार इन दोनों शक्ति केन्द्रों के मिलन से एक दिव्य धारा प्रवाहित होती है जिसे कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं । इसे भौतिक शक्तियों और सिद्धियों का बीज माना जाता है । इस प्रसुप्त शक्ति बीज में जितनी-जितनी स्फुरणा और आगृति उत्पन्न होती जाती है, साधक उतना ही समर्थ बनता चला जाता है । इस जाग्रति के स्तर के अनुरूप ही सिद्ध पुरुषों का स्तर होता है ।

इन दो शक्ति केन्द्रों को पिण्ड रूपी विश्व के दो ध्रुव माना जा सकता है । पृथ्वी के दो ध्रुव हैं, एक उत्तर में दूसरा दक्षिण में । वैज्ञानिक कहते हैं कि इस विश्व में जितनी भी जड़ चेतन शक्तियाँ विद्यमान तथा गतिशील हैं उन सबके मूल केन्द्र यह दो ध्रुव ही है । यही उनके मूल उद्गम है ।

जड़ शक्तियाँ दक्षिण ध्रुव में और चेतन शक्तियाँ उत्तर ध्रुव में सन्निहित हैं । इन दो ध्रुवों को इस विश्व शरीर का हृदय एंव मस्तिष्क कहा जाता है । हृदय अर्थात शरीर को जीवित रखने वाला रक्त यंत्र । मस्तिष्क अर्थात चेतना को स्फुरित करने वाला केन्द्र ।

उत्तरी ध्रुव को मस्तिष्क कहें तो दक्षिण ध्रुव को का हृदय कहना पड़ेगा । इस हृदय को संचालन मोटर मूलाधार में कुछ दूर हटकर लगी है । इस प्रकार प्रकृति की प्रतिनिधि शक्ति को महा सर्पिणी और पुरुष के प्रतिनिधि को महा सर्प कह सकते हैं । महासर्प सहस्र दल कमल में और महा सर्पिणी मूलाधार में निवास करती हैं दोनों का युग्म जहँ लिपटा पड़ा है उसे मेरुदण्ड कहते हैं ।

दूसरी तरह इसी बात को यों भी कहा या समझाया जा सकता है कि एक कुण्डलिनी महाशक्ति मस्तिष्क के मध्य बिन्दू में अपना सिर-मेरुदण्ड में धड़ और लिंग भूल में अपनी पूँछ रखे हुए इस शरीर और प्राण के सम्मिश्रित जीवन साम्राज्य पर अपना अधिकार किये हुए पड़ी हैं । इसमें जितनी अद्भूत सामर्थ्य भरी पड़ी है उसकी तुलना में समस्त बिजली घर मिलकर भी कम पड़ते हैं ।

बिजली घरों में केवल जड़ विद्युत ही रहती है जो किसी चेतन व्यक्ति के नियंत्रण में ही उत्पन्न होती तथा प्रयोग की जा सकती है । कोई सजीव संचालक न हो तो बड़ा बिजली घर बेकार हो जायेगा । पर शरीर का यह कुण्डलिनी विद्युत भण्डार जड़ और चेतन दोनों प्रकार से संयुक्त सम्मिश्रित होने के कारण अलौकिक ही कहा जायगा । उसकी जैसी अद्भूत सम्भावनाएँ संसार के किसी भी मानव कृत बिजली घर में नहीं पाई जा सकती ।

आत्मा और परमात्मा का-जड़ और चेतन का-प्रकृति और पुरुष का मिलन होने में योग साधना है । साधना के क्षेत्र में इसे में इसे महा सर्प और महा सर्पिणी का संयोग सम्भोग कहा जाता है ।

वियोग की स्थिति में दोनों ही निरर्थक और निष्क्रिय रहते हैं जब मिलन का अवसर उत्पन्न होता है तो आग और बारूद के मिलन की तरह एक ऐसा विस्फोट होता है जिससे सारी जीवन धारा हिल उठती है और प्राचीन के स्थल पर सब कुछ नया प्रस्तुत हो जाता है ।

इस मिलन को संयोग इसलिए कहते हैं कि जैसे मैथुन में अपने ढंग का एक विलक्षण आकर्षण, उत्साह, मिथुन एवं आनन्द रहता है वैसा ही दोनों सत्ताओं का जब कभी मिलन होगा तो एक असाधारण आन्तरिक हलचल उत्पन्न होगी और कुछ अनन्य संतोष भरा उल्लास अनुभव होगा उसकी मैथुन के अतिरिक्त और किसी सांसारिक अनुभूति से तुलना नहीं की जा सकती । संयोग शब्द जैसे काम-सेवन के अर्थ में प्रयुक्त होता है उसी प्रकार उसे आत्मा और परमात्मा के-महा सर्प और महा सर्पिणी के मिलने के सम्बन्ध से भी व्यक्त किया जा सकता है ।

यह कुण्डलिनी जागरण योग साधना का केन्द्र बिन्दु है । योग के अनेक मार्ग है । राजयोग, हठायोग, लययोग, प्राणयोग, ऋजुयोग, नादयोग, स्वर योग, मंत्र प्रयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, तंत्रयोग यह बारह प्रसिद्ध हैं । यों उनकी संख्या ४ तक गिनाई गई है । इन सबका मूल प्रयोजन अपने-अपने ढंग से कुण्डलिनी जागरण करना ही है ।
इसी तथ्य को शास्त्रकारों ने स्थान-स्थान पर प्रतिपादित किया है-

अत्र शुभ्र सहस्रारे पूर्णेन्द्र मध्य विस्फटितम् ।
तदन्तरे परं शून्य निसर्गाधो व्यवस्थितम्॥
परां शक्ति जगयोनि कलाषोडश्य धोमुखी ।
तत्र कुण्डलिनी शक्ति कोटय्यादित्य प्रभावयीः॥ -कुलार्णव
सहस्रार कमल के बीच में परम शून्य है । वहाँ परा शक्ति जगद्योनि, मूलाधार निवासिनी अधोमुखी, षोडश कलावंती, कोटी सूर्य का प्रभावती कुण्डलिनी शक्ति बिहार करती है ।

कुण्डलिनि योग साधन में दोनों प्रकार की शक्तियों का समन्वय है शरीर, मन और स्वसंचालिका नाड़ी संस्थान में उत्पन्न होने वाली भौतिक शक्तियों का भी इसमें उतना ही उपयोग है जितना कि आत्मा, अन्तःकरण और प्राण के दिव्य और तत्वों का । उर्ध्व अवस्थित सहस्रार चक्र आत्म शक्ति और अधःवासी मूलाधार चक्र भौतिक शक्तियों का प्रतिनिधि केन्द्र है । इन दोनों को मेरुदण्ड एवं इड़ा पिंगला सुषुम्ना के माध्यम से मिलाकर चलने वाली तथा सिद्धियों विभूतियों का पथ प्रशस्त करने वाली ।

संतुलन के दो पथ हैं-एक अर्जन दूसरा विसर्जन । पेट मुख के द्वारा ग्रहण करता है और जो अनुपयुक्त है उसे मल मार्ग से विसर्जित कर देता है । नौकरों की भर्ती और तरक्की भी होती रहती है और जो अयोग्य अपराधी सिद्ध होते हैं उन्हें मुअत्तिल एवं वर्खास्त भी किया जाता रहता ।

श्रेष्ठता का सम्मान परिपोषण और निकृष्टता की भर्त्सना प्रताड़ना भी होती रहती है । सज्जनों को अधिकतर सौपे जाते और गुणानुवाद होता है । दुर्जनों को विराम असहयोग ही नहीं सहना पड़ता जेल, मृत्युदण्ड जैस त्रास भी मिलते हैं । सृष्टा की विधि-व्यवस्था में इसी दृष्टि से स्वर्ग जैसा समझना है । समदर्शी का तात्पर्य जैसे को तैसा समझना है । गुड़ गोबर का एकभाव खरीदना बेचना नहीं ।

अध्यात्म साधना के कषाय-कल्मषों से जुझना और निरस्त करना पड़ता है । साथ ही सत्यप्रवृत्तियों का उन्नयन सम्बर्धन भी संतुलन इसी प्रकार बनता है । लोक व्यवहार में भी यह उभयपक्षीय विधि व्यवस्था कार्यान्वित की जाती है । इन्जन उलटा भी चलता है और सीधा भी । बिजली ए.सी.करेन्टों में से एक खींचता है और दूसरा फेंकता है । तप द्वारा प्रतिमा को जगाया झकझोरा जाता है और योग द्वारा उसे उपयुक्त कार्य में नियोजित किया जाता है ।

आत्म चेतना के धनी जहाँ श्रेष्ठता को आकर्षित संगठित और समुन्नत बनाते हैं वहाँ उसका एक कार्य यह भी है कि दुष्टता को, विगठित, दुर्बल बहिष्कृत और दण्डित करे । यह संतुलन बन पड़ने पर पदार्थों और प्राणियों की अधोगामी प्रवृत्ति निकृष्टता की दिशा में ही वह चलेगी और जो भी चपेट मे आयेगा उसे साथ में लपेटती-घसीटती चलेगी ।

इसलिए प्रवाह के लिए जहाँ नहरें बनाई जाती हैं वहाँ दूसरी ओर रोकथाम करने वाले बाँध भी बाँधे जाते हैं । न श्रेष्ठता की अवहेलना हो सकती है । और न दुष्टता की पूजा प्रतिष्ठा । संतुलन ही जीवन है । उसी के साथ प्रसन्नता और प्रगति जुड़ी हुई है । यह सिद्धान्त भौतिक और आत्मिक जगत में समान रूप से लागू होता है ।

मनीषियों ने जितना जोर सेवा साधना पर दिया है उतना ही अवाँछनीयता की भर्त्सना और प्रताड़ना पर भी । यह नीति अपने ऊपर भी लागू होती है दूसरों पर भी । दुष्कर्मों के लिए प्रायश्चित का विधान है और अनाचार के दमन की आवश्यकता पड़ी थी । विशाल और संस्कृत भारत के निर्माण में प्रथम भूमिका कुरुक्षेत्र में धर्मयुद्ध लड़ना पड़ा था ।

आमंत्रण और निष्कासन की अपनी-अपनी उपयोगिता है । रसोई घर और स्नानागार की तरह शौचालय और कूड़ेदान भी चाहिए । कचरे को गलाकर उर्वरता का आधार खाद सड़ाना पड़ता है । दोनों ही पक्षों का महत्व समान है । इनमें से एक को भी नहीं छोड़ा जा सकता और न किसी एकाकी से समग्र प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ।

योग में परब्रह्म की महत्ता के साथ-साथ आत्म-चेतना का संयुक्त किया जाता है । ताप से तपाकर सोने के साथ मिले हुए घटिया को जलाकर उसे खरा बनाया जाता है । दोनों कार्य एक-दूसरे में विपरीत भर प्रतीत होते है । पर हैं एक-दूसरे के पूरक । धुलाई के बाद रंगाई होती है । भट्टी में गलाई किये जाने के बाद ढलाई वाला साँचा अपना प्रयोजन पूरा करता है ।

न समाज एकपक्षीय है न व्यक्ति न लोक अपने आप में पूर्ण है न परलोक । दोनों के संयोग से ही सुयोग बनता है । आत्म विद्या के प्रयोक्ता तथ्यों को समझते हैं और दो पैरों से एक के बाद दूसरा उठाते हुए निश्चित लक्ष्य तक पहुँचते हैं । विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को बला अतिबला विद्या सिखाई थी ।

इन्हीं को सावित्री में संशोधन है और गायत्री में अभिवर्धन संशोधित विषों से ही अमृतोपम रसायनें बनती है । आघात सहकर ही वाद्य यंत्र झंकृत होते हैं । सरकस के जानवर रिंग मास्टर के हण्टर नचाने पर अपना प्रशिक्षण पूरा करते है ।

तंत्र और योग का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । दुरुपयोग से तो अमृत भी विष हो सकता है । उपयोगी यंत्र चलाने वाली बिजली, गलत ढंग से प्रयोग किये जाने पर प्राण घातक बन सकती है । तंत्र की निन्दा तभी है जब वह हेय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाय उसे स्वार्थ, लोभ एवं दर्प में निमित्त कार्यान्वित किया जाय । अन्यथा मवाद निकालने वाला आपरेशन और घाव भरने का मरहम उपचार अपने-अपने अवसर पर अपने-अपने स्थान पर उपयोगी एवं प्रशंसनीय ही कहे जायेंगे ।

तंत्र दमन प्रधान है यह आत्म-दमन, मनोविग्रह भी हो सकता है और दुष्टता का पद दलन भी । देव मंदिर जितने उपयोगी हैं उतने ही जेलखाने और फाँसी पर भी । दोनों ही समाज की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं ।

तंत्र अपने आप में विशुद्ध विज्ञान है । हेय वह स्वयं नही उसका दुरुपयोग है । शेष सद्बुद्धि का सम्वर्धन करते हैं तो कार्तिकेय असुरता का दमन । सरस्वती सद्बुद्धि की देवी है और दुर्गा महिषासुर मर्दिनी । दोनों के वाह्म स्वरूप में अन्तर प्रतीत होता है पर वस्तुतः उनकी दिशाधारा मिलकर उस संगत की भूमिका पूरी करती है जो अवतार का मूल प्रयोजन है ।

धर्म की स्थापना के लिए अधर्म का नाश भी आवश्यक माना गया है । समय की आवश्यकता कभी नारद के भक्ति प्रचार को आमंत्रित करती है तो कभी परशुराम के कुठार को । दोनों ही अपने आप में अपूर्ण है धर्मतंत्र और राजतंत्र का समन्वय ही सुव्यवस्था बना पाता है ।

तंत्र की व्याख्या में दमन का प्रमुखता दी गई है । पशु प्रवृत्तियों अनुनय विनय को मान्यता नहीं देती, उनके लिए भय ही एकमात्र सूत्र संचालक है । मनष्यों में आमतौर से पशुता अधिक और मनुष्यता स्वल्प मात्रा में पाई जाती है । इसलिए उसके लिए जितना आवश्यक शास्त्र है उतना ही शस्त्र भी । द्रोणाचार्य और गुरु गोविन्दसिंह ने दोनों को साथ-साथ ले चलने को प्रयत्न और निर्वाह किया था ।

चाणक्य ने अपना कार्यक्षेत्र अक्षुण्ण रखते हुए भी चन्द्रगुप्त को दिग्विजय के लिए प्रशिक्षित किया था । समर्थ गुरु रामदास की तपश्चर्या में शिवाजी को उत्साहित करके घमासान करने के लिए उठा देने में कोई विक्षेप नहीं पड़ा । कृष्ण सारथी रहे पर उन्होंने अर्जुन को गाण्डीव का अनवरत प्रयोग करने के लिए आदेश दिया । योग की अपनी सीमा मर्यादाएँ अक्षुण्ण रखनी चाहिए । पर उसे समय की आवश्यकता देखते हुए तंत्र को सजीव एवं सुसंगठित होने देना चाहिए ।

शास्त्रों की विशिष्टता हर किसी के मस्तिष्क पर छाई हुई है । आयुधों का निर्माण करने में पदार्थ विज्ञान की कलाएँ प्रधान रूप से नियोजित है । फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि प्रयोक्ताओं में किसका मनोरथ पूरा होगा । क्योंकि विजय और पराजय का परिणाम क्या निकला इस पर सब कुछ निर्धारित है ।

विजय पराजित से भी अधिक घाटे में हर सकते हैं और पराजित के हाथ वह पूँजी लग सकती है जिससे वह संकट का समाधान माना जाय और शांति एवं प्रगति का श्रेय प्राप्त करे।

सब कुछ पदार्थ सम्पदा और अस्त्रों की बहुलता पर ही निर्भर नहीं है । किसने क्या रणनीति अपनाई और कितनी दूरदर्शिता दिखाई, इस तथ्य पर युद्ध का वास्तविक परिणाम निर्भर है । किसने कितने अधिक प्राण हरण किये यदि इसी पर विजय निर्भर रही होती हो नाजी सारी दुनिया के अधिपति बनकर रहे होते ।
वास्तविकता यह है कि किस अदृश्य की-परिस्थितियों की-अनुकूलता मिली और किसने सही चाल चली और हारी बाजी जीती । इस स्तर का कौशल उपलब्ध करने के लिए अंतःप्रेरणा और वातावरण की अनुकूलता आवश्यक है । इस प्रयोजन की सिद्धि में तंत्र की महती भूमिका हो सकती है ।

युद्ध मानवी भविष्य का प्रश्न चिन्ह तो है । पर उसका निर्णायक या निर्धारणकर्त्ता नहीं । इसके लिए भाव संवेदना धर्म धारण की लोग मानस में प्रतिष्ठापना के लिए अध्यात्म का योग पक्ष तत्वज्ञान अपने भूमिका निभा सकते है किन्तु वातावरण को उलटकर सीधा करने की क्षमता के लिए तंत्र का आश्रय लेना पड़ेगा ।

बँगला देश की स्वतंत्रता में सैन्य शक्ति ने युद्ध कौशल में वह कार्य नहीं किया जो अदृश्य वातावरण के द्वारा नई राह पकड़ लेने के कारण सम्भव हुआ । जापान और जर्मनी को हर दृष्टि से दीन दुर्बल बना दिये जाने के उपरान्त भी वे कुछ ही समय में जिस प्रकार उभरे उसे बौद्धिक तारतम्य बिठाकर सिद्ध नहीं किया जा सकता ।

इन पुनरुत्थान के पीछे अदृश्य शक्तियों का हाथ रहा है । भारत की स्वतंत्रता का इतिहास मात्र जेल यात्रियों के कारण ही इतनी आवश्चर्यजनक सफलता के रूप में नहीं ढला । वरन् उसके पीछे ऐसी अदृश्य शक्तियाँ घटनायें एवं परिस्थितियाँ रही हैं जिससे पर्वत जैसा कठिन कार्य सरल एंव हलका हो गया । दासप्रथा, जमींदारीप्रथा, आदि का जिस प्रकार उन्मूलन हुआ, उसमें आन्दोलनकर्त्ताओं के प्रयासों को ही सब कुछ नहीं कहा जा सकता ।

बहते हुए विचार प्रवाह और उठते हुए उभार ने भी इन प्रसंगों में अपना योगदान किया है । कोई चाहे तो इसे अदृश्य का निर्धारण कह सकता है । इससे भी गहराई में उतरा जाय तो उसे अदृश्य का अनुकूलन भी माना जा सकता है । इस प्रकार की उथल-पुथल करने में अध्यात्म का जीवट काम करता है यदि तंत्र प्रक्रिया कहा जाय तो अनुचित न होगा ।

धर्म शिक्षा में कुछ मनुष्यों को किसी सीमा तक सज्जन बनाया जा सकता है पर उन पर छाई हुई दुष्प्रवृत्तियाँ इतने भर से निरस्त हो जायेगी यह नहीं कहा जा सकता । उसके लिए चेतन मन को नीति निष्ठ एवं सामाजिकता के आधार पर उस स्तर का नहीं बनाया जा सकता, जिसकी आवश्यकता एवं अपेक्षा है । इसके लिए मानवी अचेतन को ही अदृश्य वातावरण को भी झकझोरना पड़ेगा ।

उसके लिए विचारणा ही सब कुछ नहीं हो सकती । इस संदर्भ में ऐसी शक्ति का उद्भव होना चाहिए जो लोक मानस की आस्था, आकाँक्षा विचारणा, प्रवृत्ति एवं विधि व्यवस्था में जमीन आसमान जैसा अन्तर कर सके । इसके लिए तंत्र उपक्रम ही कारगर हो सकता है क्योंकि उसी में भक्ति और शक्ति का समन्वय है ।

अदृश्य जगत और व्यापक वातावरण की तरह ही प्रतिभाओं और व्यक्तियों का भी निजी क्षेत्र में महत्व है । उनकी गलाई और ढलाई के लिए जितनी प्रचण्ड ऊर्जा चाहिए उतनी आध्यात्म का तंत्र पक्ष ही उत्पन्न कर सकता है ।

जनसंख्या नहीं, प्रतिभाएँ ही गतिविधियों, परिस्थितियों का आधारभूत कारण रही हैं । उनकी प्रकृति बदलने विशेषतया अवांछनीयता से उत्कृष्टता की दिशा में उन्मुख करने के लिए मात्र स्वाध्याय सत्संग ही काम नहीं दे सकता । उन पर ऐसा दबाव भी पड़ना चाहिए जिससे आकृति बदलती हुए दृष्टिगोचर हो सके ।

तंत्र की सीमा व्यक्तित्व लोभ से द्वेष से आवृत्त होकर किसी को त्रास देना नहीं है । ऐसी रीति-नीति तो क्षुद्र स्तर के लोग ही अपनाते हैं । अपना दर्प दिखाने, बाल बुद्धि लोगों को चमत्कृत करने के कुछ कौतुक इस आधार पर दिखाये जा सकते हैं । प्रतिशोध लिये जा सकते हैं और दण्ड दिये जा सकते हैं । सताया और भयभीत भी किया जा सकता है ।

पर इतने भर के लिए तंत्र जैसी महती शक्ति का उपार्जन उपयोग करने की क्या आवश्यकता? यह कार्य तो बाहुबल, छद्म या आततातियों के सहयोग से भी हो सकते हैं । जो कार्य इतने सुगम तरीके से हो सकते हों उनके लिए बाजीगरी एंव धूर्तों का कुचक्री प्रयास ही पर्याप्त हो सकता है । उसके लिए क्यों तो शक्ति उपार्जित की जाय और क्यों इनके उथले रूप में बर्बाद किया जाय?

तंत्र अध्यात्म का भौतिक पक्ष है । योग उसका अन्तरंग पक्ष । दोनों की तुलना एवं समता प्रायः एक जैसी है । योगी तपस्वी होना जितना कठिन है उससे कम नहीं अधिक ही कष्टसाध्य प्रयोग तंत्र साधना में करना पड़ता है । यह दूसरों को हानि पहुँचाने की तुलना में अधिक मूल्यवान और कष्टसाध्य है । ऐसी दशा में उसका उपयोग भी दूर दृष्टि से महान प्रयोजन के लिए ही होना चाहिए । तभी इस महाविद्या की सार्थकता एवं सफलता है ।

पिछले दिनों क्षुद्र प्रकृति के अनाचारी तांत्रिक इस विद्या का उपयोग दुर्बलों को त्रास देने, भटकाने, आतंक जमाने के लिए करते रहे हैं । बौद्धिक या शारीरिक दृष्टि से किसी को अपंग बना देने, त्रास देकर नीचा दिखाने और शरणागत होने के लिए विवश करने में ऐसी क्या विशिष्टता है जिसके लिए स्वयं गर्व किया जा सके या दूसरों को अपना सहयोगी समर्थक बनाकर प्रसन्न हुआ जा सके ।

जनरेटर बनाना, चलाना और उसे बड़े कामों के लिए प्रयुक्त करना प्रशंसनीय कार्य हो सकता है पर उससे असंख्य गुना महत्वपूर्ण यह है कि अपने व्यक्तित्व, स्तर एवं मानस को इतना प्रचण्ड प्रखर बना लिया जाय तो परिस्थितियों की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सके । अपना तथा असंख्यों का भला कर सके ।

यह कार्य अध्यात्म विज्ञान के आधार पर ही हो सकता है जहाँ तक लौकिक प्रयोजनों का सम्बन्ध है वहाँ तक तंत्र की प्रमुखता है ।

(सावित्री कुण्डलिनी एवं तन्त्र : पृ-8.26)


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