संस्कार परम्परा

जन्मदिवस संस्कार

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मनुष्य को अन्यान्य प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है । जन्मदिन वह पावन पर्व है, जिस दिन स्रष्टा ने हमें श्रेष्ठतम जीवन में पदोन्तन किया । श्रेष्ठ जीवन प्रदान करने के साथ स्रष्टा प्राणी से उसी अनुरूप श्रेष्ठ आचरण की भी अपेक्षा रखता है । हमें उसे निराश करके अपने अंदर क्रमशः श्रेष्ठतर मानवोचित संस्कारों का विकास करने के संकल्प लेने चाहिए । उसके लिए अपने इष्टमित्रों-परिजनों की शुभकामनाएँ भी प्राप्त करनी चाहिए । युग ऋषि ने जन्मदिन को विवेक सम्मत संस्कार का रूप दिया है ।

व्याख्या

यों प्रचलित अनेक पर्व-त्यौहार आते और मनाये जाते हैं, पर व्यक्तिगत दृष्टि से मनुष्य का अपना जन्मदिन ही उसके लिए सबसे बड़े हर्ष, गौरव एवं सौभाग्य का दिन हो सकता है । राम के जन्मदिन की तिथि रामनवमी और कृष्ण का जन्मदिन-जन्माष्टमी जितनी महत्त्वपूर्ण है, उतना ही किसी सामान्य व्यक्ति के जीवन में उसका जन्मदिन किसी भी प्रकार कम आनन्द एवं उल्लास का नहीं होता । उसे ठीक तरह मनाया जाए, तो अपना प्रसुप्त आन्ान्द और उल्लास जगेगा ।

इसी अवसर पर यदि थोड़ा अधिक गंभीर आत्म-निरीक्षण कर लिया जाए और आगे के लिए कुछ ठोस सदुपयोग की बात सोच ली जाए, तो वह दिन एक नये सूर्योदय जैसा प्रकाशवान् हो सकता है । बुद्ध, वाल्मिकी, सूरदास, तुलसी, अंगुलिमाल आदि के पूर्व जीवन बहुत अच्छे न थे, पर एक दिन उनकी अन्तःस्फुरणा जग पड़ी, तो उनने अपनी दिशा ही बदल दी । यह बदलना इतना महत्त्वपूर्ण हुआ कि वे नर से नारायण बन गये । जन्मदिन की उल्लास भरी घड़ी में यदि मनुष्य यत्किंचित् भी आत्म-निर्माण की बात सोचने लगे, तो वह उसी अनुपात में उसके सौभाग्य की घड़ी सिद्ध हो सकती है । जन्मदिन दिखने में सामान्यः, किन्तु प्रभाव में असामान्य संस्कार है । किसी वर्ग किसी भी स्तर के व्यक्तियों के बीच इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है । एक इसी संस्कार के माध्यम से न चेतना को झकझोर कर सदाशयता से जोड़ देने का काम बड़ी कुशलता से सम्पन्न किया जा सकता है । सभी सृजन शिल्पियों को कटिबद्ध होकर इसे लोकप्रिय बनाना चाहिए ।

विशेष व्यवस्था

जन्म दिन संस्कार यज्ञ के साथ ही मनाया जाना चाहिए । अन्तःकरण को प्रभावित करने की यज्ञ की अपनी क्षमता विशेष है, परन्तु चूँकि इसे जन-जन का आन्दोलन बनाना है । इसलिए यदि परिस्थितियाँ अनुकूल न हों, तो केवल दीपयज्ञ करके भी जन्मदिन संस्कार कराये जा सकते हैं । नीचे लिखी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखी जाएँ । पंच तत्त्व पूजन के लिए चावल की पाँच छोटी ढेरियाँ पूजन वेदी पर बना देनी चाहिए । पाँच तत्त्वों के लिए पाँच रंग के चावल भी रंग कर अलग-अलग छोटी डिब्बियों या पुड़ियों में रखे जा सकते हैं । उनकी रंगीन ढेरियाँ लगा देने से शोभा और भी अच्छी बन जाती है । तत्त्वों के क्रम और रंग इस प्रकार हैं-

१. पृथ्वी-हरा,

२. वरुण-काला,

३. अग्नि-लाल,

४. वायु-पीला और

५. आकाश-सफेद ।

इसी क्रम से ढेरियाँ लगाकर रखनी चाहिए । दीपदान-जन्मोत्सव के लिए दीपक बनाकर रखें जाएँ । जितने वर्ष पूरे किये हों, उतने छोटे दीपक तथा नये वर्ष का थोड़ा दीपक बनाया जाए । दीपक आटे के भी बनाये जा सकते हैं और मिट्टी के भी रखे जा सकते हैं । अभाव में मोमबत्तियों के टुकड़े भी प्रयुक्त किये जा सकते हैं, उन्हें थाली या ट्रे में सुन्दर आकारों में सजाकर रखना चाहिए । व्रत धारण में क्या व्रत लिया जाना है? इसकी चर्चा पहले से ही कर लेनी चाहिए ।

विशेष कर्मकाण्ड

अन्य संस्कारों की तरह मंगलचारण से रक्षाविधान तक के उपचार पूरे किये जाएँ । इसके बाद क्रमशः ये कर्मकाण्ड कराये जाएँ ।

पंचतत्त्व पूजन

शिक्षण एवं प्रेरणा- शरीर पंच तत्त्व से बना है । इस संसार का प्रत्येक पदार्थ मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पाँच तत्त्वों से बना है । इसलिए इस सृष्टि के आधारभूत ये पाँच ही दिव्य तत्त्व देवता है । उपकारी के प्रति कृतज्ञता की भावनाओं से अन्तःकरण ओत-प्रोत रखना भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग है । हम जड़ और चेतन सभी उपकारियों के प्रति कृतज्ञता-भावना की अभिव्यक्ति के लिए पूजा-प्रक्रिया का अवलम्बन लेते हैं । पूजा से इन जड़ पदार्थों, अदृश्य शक्तियों, स्वर्गीय आत्माओं का भले ही कोई लाभ न होता हो, पर हमारी कृतज्ञता का प्रसुप्त भाव जाग्रत् होने से हमारी आंतरिक उत्कृष्टता बढ़ती ही है । पंच तत्त्वों का पूजन विश्व के आधार स्तम्भ होने की महत्ता के निमित्त किया जाता है । इस पूजन का दूसरा उद्देश्य यह है कि इन पाँचों के सदुपयोग का ध्यान रखा जाए । शरीर जिन तत्त्वों से बना है, उनका यदि सही रीति-नीति से उपयोग करते रहा जाए, तो कभी भी अस्वस्थ होने का अवसर न आए । पृथ्वी से उत्पन्न अन्न का जितना, कब और कैसे उपयोग किया जाए, इसका ध्यान रखें तो पेट खराब न हो । यदि आहार की सात्त्विकता, मात्रा एवं व्यवस्था का ध्यान रखा जाए, तो न अपच हो और न किसी रोग की संभावना बने । जल की स्वच्छता एवं उचित मात्रा में सेवन करने का, विधिवत स्नान का, वस्त्र, बर्तन, घर आदि की सफाई, जल के उचित प्रयोग का ध्यान रखा जाए, तो समग्र स्वच्छता बनी रहे, शरीर मन, तथा वातावरण सभी कुछ स्वच्छ रहे । अग्नि की उपयोगिता सूर्य ताप को शरीर, वस्त्र, घर आदि में पूरी तरह प्रयोग करने में है । भोजन में अग्नि का सदुपयोग भाप द्वारा पकाये जाने में है । शरीर की भीतरी अग्नि ब्रह्मचर्य द्वारा सुरक्षित रहती एवं बढ़ती है । स्वच्छ वायु का सेवन, खुली जगहों में निवास, प्रातः टहलने जाना, प्राणायाम, गन्दगी से वायु का दूषित न होने देना आदि वायु की प्रतिष्ठा है । आकाश की पोल में ईथर, विचार शब्द आदि भरे पड़े हैं, उनका मानसिक एवं भावना क्षेत्र में इस प्रकार उपयोग किया जाए कि हमारी अंतःचेतना उत्कृष्ट स्तर की ओर चले, यह जानना, समझना आकाश तत्त्व का उपयोग है । इसी सदुपयोग के द्वारा हम सुख-शान्ति और समृद्धि का पथ-प्रशस्त कर सकते हैं ।

पंच तत्त्वों का पूजन, हमारा ध्यान इनके सदुपयोग की ओर आकर्षित करता है । तीसरी प्रेरणा यह है कि शरीर पंच तत्त्वों का बना होने के कारण जरा, मृत्यु से बँधा हुआ है । यह एक वाहन और माध्यम है । जड़ होने के कारण इसका महत्त्व कम है । इसे एक उपकरण मात्र माना जाए । शरीर की सुख-सुविधा को इतना महत्त्व न दिया जाए कि आत्मा के स्वार्थ पिछड़ जाएँ । आत्मा की उन्नति के लिए पंच तत्त्वों से बना यह शरीर मिलता है, इसलिए उसका सदुपयोग निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही किया जाए । क्रिया और भावना- प्रत्येक तत्त्व के पूजन के पूर्व उसकी प्रेरणाएँ उभारी जाएँ । हाथ में अक्षत, पुष्प देकर मन्त्रोच्चार के साथ सम्बन्धित प्रतीक पर अर्पित कराएँ । भावना की जाए कि सृष्टि रचना के इन घटकों के अन्दर जो सूक्ष्म संस्कार हैं, वे पूजन के द्वारा साधक को प्राप्त हो रहे हैं ।

पृथ्वी

ॐ मही द्यौः पृथिवी च न ऽ, इमं यज्ञं मिमिक्षताम् । पिपृतां नो भरीमभिः । ॐ पृथिव्यै नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -८.३२

वरुण

ॐ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानः, तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः । अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश, स मा नऽ आयुः प्रमोषी॥ ॐ वरुणाय नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -१८.४९

अग्नि

ॐ त्वं नो ऽ अग्ने वरुणस्य, विद्वान् देवस्य हेडोऽ अवयासिसीष्ठाः । यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो, विश्वा द्वेषा सि प्रमुमुग्ध्यस्मत् । ॐ अग्नये नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -२१.३ ॥ वायु॥ ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर , सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम् । वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व, यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः । ॐ वायवे नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -२७.२८

आकाश

ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती । तया यज्ञं मिमिक्षतम् । उपयामगृहीतोऽस्यश्विभ्यां, त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा । ॐ आकाशाय नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि । -७.११

दीपदान

शिक्षण और प्रेरणा- जन्मोत्सव का दूसरा कर्मकाण्ड दीपदान है । जितने वर्ष की आयु हो, उतने दीपक एक सुसज्जित चौकी पर बनाकर सजाये जाते हैं । आटे के ऊपर बत्ती वाले घृत दीप एक थाली में इस तरह सजाकर रखे जा सकते हैं कि उनका 'ॐ' स्वस्तिक अथवा कोई और सुन्दर रूप बन जाए । इन दीपकों के आसपास पुष्प, फल, धूपबत्तियाँ, गुलदस्ते या कोई दूसरी चीजें सुन्दरता बढ़ाने के लिए रखी जा सकती है । कलात्मक सुरुचि भीतर हो, तो सुसज्जिता के अनेक प्रकार बन सकते हैं । इन दीपकों का पूजन किया जाता है । जीवन का प्रत्येक वर्ष दीपक के समान प्रकाशवान् रहे, तभी उसकी सार्थकता है । दीपक स्वयं तिल-तिल करके जलता है और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करता है, इस रीति-नीति का प्रतीक होने के कारण ही दीपक को प्रत्येक मांगलिक कार्य में पूजा जाता है एवं उसे प्रधानता मिलती है ।

हमारे जीवन की रीति-नीति भी ऐसी ही होनी चाहिए । दीपक को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है । अज्ञान को अन्धकार व ज्ञान को प्रकाश की उपमा दी जाती है । जिस सीमा तक हमारा मस्तिष्क या हृदय अज्ञानग्रस्त है, उतना ही हम अन्धेरे में भटक रहे हैं । मस्तिष्क का अंधकार दूर करने के लिए हमें शिक्षा और हृदय का अंधकार दूर करने के लिए विद्या-ऋतम्भरा ज्ञान का अधिकाधिक मात्रा में संग्रह करना चाहिए । आत्मज्ञान का वैसा दीपक हमें अंतःकरण में जलाना चाहिए, जैसा रामायण के उत्तरकाण्ड में विस्तारपूर्वक बताया गया है । दीपदान में ऐसी ही अनेक प्रेरणाएँ सन्निहित हैं । क्रिया और भावना- थाली में सजाये दीपकों को क्रमशः प्रज्वलित किया जाए । उसके साथ सस्वर गायत्री मन्त्र का पाठ चलाएँ । यदि यज्ञ न करके केवल दीपयज्ञ ही करना हो, तो गायत्री मन्त्र के साथ स्वाहा लगाकर दीपक जलाने की प्रक्रिया को आहुति मानते हुए यज्ञीय वातावरण बनाया जाए । भावना की जाए कि मनुष्य कितने भी कम साधनों में जी रहा हो, छोटे से नाचीज दीपक की तरह सबका प्रिय प्रकाशदाता बन सकता है । छोटी सी पात्रता, थोड़ा सा स्नेह और जरा-सी वर्तिका (लगन) को ठीक क्रम से सजाकर ज्योतिदान प्राप्त कर सकता है । ज्योतित जीवन की कामना, प्रार्थना करते हुए दिव्य शक्तियों द्वारा उसकी पूर्ति की भावना की जानी चाहिए ।

ॐ अग्निज्र्योतिज्र्योतिरग्निः स्वाहा । सूर्यो ज्योतिज्र्योतिः सूर्यः स्वाहा । अग्निर्वचार्े ज्योतिर्वर्चः स्वाहा । सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वच्चः स्वाहा । ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा॥ -३६.२४-

व्रतधारण

अगला क्रम जन्मोत्सव का व्रत धारण है । व्रतों के बन्धन में बँधा हुआ व्यक्ति ही किसी उच्च लक्ष्य की ओर दूर तक अग्रसर हो सकने में समर्थ होता है । मनुष्य को शुभ अवसरों पर भावनात्मक वातावरण में देवताओं की उपस्थिति में-अग्नि की साक्षी में वातावरण करने चाहिए और उनका पालन करने के लिए साहस एकत्रित करना चाहए ।

शिक्षण एवं प्रेरणा- दुष्प्रवृत्तियों का त्याग, व्रतशीलता का आरम्भिक चरण है । मांसाहार, तम्बाकू, भाँग, गाँजा, अफीम, शराब आदि नशों का सेवन, व्यभिचार, चोरी, बेईमानी, जूआ, फैशन-परस्ती, आलस्य, गंदगी, क्रोध, चटोरापन, कामुकता, शेखीखोरी, कटुभाषण, ईष्र्या, द्वेष, कृतघ्नता आदि बुराइयों को जो अपने में विद्यमान हों, उन्हें छोड़ना चाहिए । कितनी ही भयानक कुरीतियाँ हमारे समाज में ऐसी हैं, जो अतीव हेय होते हुए भी धर्म के नाम पर प्रचलित हैं । किसी वंश में जन्म लेने के कारण किसी को नीच मानना, स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अनधिकारिणी समझना, विवाहों में उन्मादी की तरह पैसे की होली फूँकना, दहेज, मृत्युभोज, देवताओं के नाम पर पर पशुबलि, भूत-पलीत, टोना-टोटका, अन्धविश्वास, शरीर को छेदना या गोदना, गाली-गलौज की असभ्यता, बाल-विवाह, अनमेल विवाह, श्रम का तिरस्कार आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ हमारे समाज में प्रचलित हैं । इन मान्यताओं के विरुद्ध-विद्रोह करने की आवश्यकता है । इन्हें तो स्वयं हमें ही त्यागना चाहिए । इसी प्रकार अनेक बुराइयाँ हो सकती हैं । उनमें से जो अपने में हों, उन्हें संकल्पपूर्वक त्यागने के लिए जन्म दिन का शुभ अवसर बहुत ही उत्तम है ।

यदि इस प्रकार की बुराइयाँ न हों, उन्हें पहले से ही छोड़ा जा चुका हो, तो अपने में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का व्रत इस अवसर पर ग्रहण करना चाहिए । रात को जल्दी सोना, प्रातः जल्दी उठना, व्यायाम, नियमित उपासना, स्वाध्याय, गुरुजनों का चरण स्पर्शपूर्वक अभिवादन, सादगी, मितव्ययिता, प्रसन्न रहने की आदत, मधुर भाषण, दिनचर्या बनाकर समय क्षेप, निरालस्य, परिवार निर्माण के लिए नियमित समय देना, लोकसेवा के लिए समयदान आदि अनेक सत्कार्य ऐसे हो सकते हैं, जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सम्मिलित किये जाने चाहिए । इस प्रकार की कम से कम एक अच्छी आदत अपनाने का संकल्प लेना चाहिए और कम से कम एक बुराई भी उसी अवसर पर छोड़ देना चाहिए । ये दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़ने और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने का क्रम यदि हर जन्म दिन पर चलता रहे, तो कुछ ही वर्षों में उसका परिणाम व्यक्तित्व में कायाकल्प की तरह दृष्टिगोचर होने लगेगा और जन्मोत्सवों का क्रम जीवन में दैवी वरदान की तरह मंगलमय परिणाम प्रस्तुत कर सकेगा ।

क्रिया और भावना-लिये गये व्रतों का उल्लेख किया जाए । उनका स्मरण रखते हुए व्रतपति देवशक्तियों से उनकी वृत्ति एवं शक्ति सहित मार्गदर्शन की याचना करें । दोनों हाथ उठाकर व्रतधारण के मन्त्र बोलें-

ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥१॥ ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥२॥ ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥३॥ ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥४॥ ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् । तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥५॥-मं० ब्रा० १.६.९-१३

विशेष-आहुति

व्रत धारण के बाद यज्ञादि क्रम पूरे किये जाएँ । गायत्री मन्त्र की आहुति के बाद मृत्युञ्जय मन्त्र की आहुतियाँ दी जाएँ । यदि केवल दीपयज्ञ किया गया हो, तो सभी लोग ५ बार मृत्युञ्जय मन्त्र का सस्वर पाठ करें ।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्यर्ोमुक्षीय मामृतात् स्वाहा । इदं महामृत्युञ्जयाय इदं न मम । -३.६०

इसके बाद यज्ञ के शेष उपचार पूरे करके आश्शीर्वाद आदि के साथ समापन किया जाए ।

मनुष्य को अन्यान्य प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है ।। जन्मदिन वह पावन पर्व है, जिस दिन स्रष्टा ने हमें श्रेष्ठतम जीवन में पदोन्नत किया ।। श्रेष्ठ जीवन प्रदान करने के साथ स्रष्टा प्राणी से उसी अनुरूप श्रेष्ठ आचरण की भी अपेक्षा रखता है ।। हमें उसे निराश करके अपने अंदर क्रमशः श्रेष्ठतर मानवोचित संस्कारों का विकास करने के संकल्प लेने चाहिए ।। उसके लिए अपने इष्टमित्रों- परिजनों की शुभकामनाएँ भी प्राप्त करनी चाहिए ।। युग ऋषि ने जन्मदिन को विवेक सम्मत संस्कार का रूप दिया है ।।

व्याख्या

यों प्रचलित अनेक पर्व- त्यौहार आते और मनाये जाते हैं, पर व्यक्तिगत दृष्टि से मनुष्य का अपना जन्मदिन ही उसके लिए सबसे बड़े हर्ष, गौरव एवं सौभाग्य का दिन हो सकता है ।। राम के जन्मदिन की तिथि रामनवमी और कृष्ण का जन्मदिन- जन्माष्टमी जितनी महत्त्वपूर्ण है, उतना ही किसी सामान्य व्यक्ति के जीवन में उसका जन्मदिन किसी भी प्रकार कम आनन्द एवं उल्लास का नहीं होता ।। उसे ठीक तरह मनाया जाए, तो अपना प्रसुप्त आनन्द और उल्लास जगेगा ।।

इसी अवसर पर यदि थोड़ा अधिक गंभीर आत्म- निरीक्षण कर लिया जाए और आगे के लिए कुछ ठोस सदुपयोग की बात सोच ली जाए, तो वह दिन एक नये सूर्योदय जैसा प्रकाशवान् हो सकता है ।। बुद्ध, वाल्मीकि, सूरदास, तुलसी, अंगुलिमाल आदि के पूर्व जीवन बहुत अच्छे न थे, पर एक दिन उनकी अन्तःस्फुरणा जग पड़ी, तो उनने अपनी दिशा ही बदल दी ।। यह बदलना इतना महत्त्वपूर्ण हुआ कि वे नर से नारायण बन गये ।। जन्मदिन की उल्लास भरी घड़ी में यदि मनुष्य यत्किंचित् भी आत्म- निर्माण की बात सोचने लगे, तो वह उसी अनुपात में उसके सौभाग्य की घड़ी सिद्ध हो सकती है ।।

जन्मदिन दिखने में सामान्य, किन्तु प्रभाव में असामान्य संस्कार है ।। किसी वर्ग किसी भी स्तर के व्यक्तियों के बीच इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है ।। एक इसी संस्कार के माध्यम से न चेतना को झकझोर कर सदाशयता से जोड़ देने का काम बड़ी कुशलता से सम्पन्न किया जा सकता है ।। सभी सृजन शिल्पियों को कटिबद्ध होकर इसे लोकप्रिय बनाना चाहिए ।।

विशेष व्यवस्था

जन्म दिन संस्कार यज्ञ के साथ ही मनाया जाना चाहिए ।। अन्तःकरण को प्रभावित करने की यज्ञ की अपनी क्षमता विशेष है, परन्तु चूँकि इसे जन- जन का आन्दोलन बनाना है ।। इसलिए यदि परिस्थितियाँ अनुकूल न हों, तो केवल दीपयज्ञ करके भी जन्मदिन संस्कार कराये जा सकते हैं ।। नीचे लिखी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखी जाएँ ।। पंच तत्त्व पूजन के लिए चावल की पाँच छोटी ढेरियाँ पूजन वेदी पर बना देनी चाहिए ।। पाँच तत्त्वों के लिए पाँच रंग के चावल भी रंग कर अलग- अलग छोटी डिब्बियों या पुड़ियों में रखे जा सकते हैं ।। उनकी रंगीन ढेरियाँ लगा देने से शोभा और भी अच्छी बन जाती है ।। तत्त्वों के क्रम और रंग इस प्रकार हैं-

१. पृथ्वी- हरा,

२. वरुण- काला,

३. अग्नि- लाल,

४. वायु- पीला और

५. आकाश- सफेद ।।

इसी क्रम से ढेरियाँ लगाकर रखनी चाहिए ।। दीपदान- जन्मोत्सव के लिए दीपक बनाकर रखें जाएँ ।। जितने वर्ष पूरे किये हों, उतने छोटे दीपक तथा नये वर्ष का थोड़ा दीपक बनाया जाए ।। दीपक आटे के भी बनाये जा सकते हैं और मिट्टी के भी रखे जा सकते हैं ।। अभाव में मोमबत्तियों के टुकड़े भी प्रयुक्त किये जा सकते हैं, उन्हें थाली या ट्रे में सुन्दर आकारों में सजाकर रखना चाहिए ।। व्रत धारण में क्या व्रत लिया जाना है? इसकी चर्चा पहले से ही कर लेनी चाहिए ।।

विशेष कर्मकाण्ड

अन्य संस्कारों की तरह मंगलाचरण से रक्षाविधान तक के उपचार पूरे किये जाएँ ।। इसके बाद क्रमशः ये कर्मकाण्ड कराये जाएँ ।।

पंचतत्त्व पूजन

शिक्षण एवं प्रेरणा-

शरीर पंच तत्त्व से बना है ।। इस संसार का प्रत्येक पदार्थ मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पाँच तत्त्वों से बना है ।। इसलिए इस सृष्टि के आधारभूत ये पाँच ही दिव्य तत्त्व देवता है ।। उपकारी के प्रति कृतज्ञता की भावनाओं से अन्तःकरण ओत- प्रोत रखना भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग है ।। हम जड़ और चेतन सभी उपकारियों के प्रति कृतज्ञता- भावना की अभिव्यक्ति के लिए पूजा- प्रक्रिया का अवलम्बन लेते हैं ।। पूजा से इन जड़ पदार्थों, अदृश्य शक्तियों, स्वर्गीय आत्माओं का भले ही कोई लाभ न होता हो, पर हमारी कृतज्ञता का प्रसुप्त भाव जाग्रत् होने से हमारी आंतरिक उत्कृष्टता बढ़ती ही है ।। पंच तत्त्वों का पूजन विश्व के आधार स्तम्भ होने की महत्ता के निमित्त किया जाता है ।। इस पूजन का दूसरा उद्देश्य यह है कि इन पाँचों के सदुपयोग का ध्यान रखा जाए ।। शरीर जिन तत्त्वों से बना है, उनका यदि सही रीति- नीति से उपयोग करते रहा जाए, तो कभी भी अस्वस्थ होने का अवसर न आए ।। पृथ्वी से उत्पन्न अन्न का जितना, कब और कैसे उपयोग किया जाए, इसका ध्यान रखें तो पेट खराब न हो ।। यदि आहार की सात्त्विकता, मात्रा एवं व्यवस्था का ध्यान रखा जाए, तो न अपच हो और न किसी रोग की संभावना बने ।। जल की स्वच्छता एवं उचित मात्रा में सेवन करने का, विधिवत् स्नान का, वस्त्र, बर्तन, घर आदि की सफाई, जल के उचित प्रयोग का ध्यान रखा जाए, तो समग्र स्वच्छता बनी रहे, शरीर मन, तथा वातावरण सभी कुछ स्वच्छ रहे ।। अग्नि की उपयोगिता सूर्य ताप को शरीर, वस्त्र, घर आदि में पूरी तरह प्रयोग करने में है ।। भोजन में अग्नि का सदुपयोग भाप द्वारा पकाये जाने में है ।। शरीर की भीतरी अग्नि ब्रह्मचर्य द्वारा सुरक्षित रहती एवं बढ़ती है ।। स्वच्छ वायु का सेवन, खुली जगहों में निवास, प्रातः टहलने जाना, प्राणायाम, गन्दगी से वायु का दूषित न होने देना आदि वायु की प्रतिष्ठा है ।। आकाश की पोल में ईथर, विचार शब्द आदि भरे पड़े है, उनका मानसिक एवं भावना क्षेत्र में इस प्रकार उपयोग किया जाए कि हमारी अंतःचेतना उत्कृष्ट स्तर की ओर चले, यह जानना, समझना आकाश तत्त्व का उपयोग है ।। इसी सदुपयोग के द्वारा हम सुख- शान्ति और समृद्धि का पथ- प्रशस्त कर सकते हैं ।।

पंच तत्त्वों का पूजन, हमारा ध्यान इनके सदुपयोग की ओर आकर्षित करता है ।। तीसरी प्रेरणा यह है कि शरीर पंच तत्त्वों का बना होने के कारण जरा, मृत्यु से बँधा हुआ है ।। यह एक वाहन और माध्यम है ।। जड़ होने के कारण इसका महत्त्व कम है ।। इसे एक उपकरण मात्र माना जाए ।। शरीर की सुख- सुविधा को इतना महत्त्व न दिया जाए कि आत्मा के स्वार्थ पिछड़ जाएँ ।। आत्मा की उन्नति के लिए पंच तत्त्वों से बना यह शरीर मिलता है, इसलिए उसका सदुपयोग निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही किया जाए ।। क्रिया और भावना- प्रत्येक तत्त्व के पूजन के पूर्व उसकी प्रेरणाएँ उभारी जाएँ ।। हाथ में अक्षत, पुष्प देकर मंत्रोच्चार के साथ सम्बन्धित प्रतीक पर अर्पित कराएँ । भावना की जाए कि सृष्टि रचना के इन घटकों के अन्दर जो सूक्ष्म संस्कार हैं, वे पूजन के द्वारा साधक को प्राप्त हो रहे हैं ।।

पृथ्वी

ॐ मही द्यौः पृथिवी च न, इमं यज्ञं मिमिक्षताम् ।। पिपृतां नो भरीमभिः ।। ॐ पृथिव्यै नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि ।। -८.३२

वरुण

ॐ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानः, तदा शास्त्रे यजमानों हविर्भिः ।। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश, समान आयुः प्रमोषी:॥ ॐ वरुणाय नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि ।। -१८.४९

अग्नि

ॐ त्वं नो ऽ अग्ने वरुणस्य, विद्वान् देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः ।। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो, विश्वा द्वेषा सि प्रमुमुग्ध्यस्मत् ।। ॐ अग्नये नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि ।। -२१.३ ॥ वायु॥ ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर ,, सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम् ।। वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व, यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।। ॐ वायवे नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि ।। -२७.२८

आकाश

ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती ।। तया यज्ञं मिमिक्षतम् ।। उपयामगृहीतोऽस्यश्विभ्यां, त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा । ॐ आकाशाय नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि ।। -७.११

दीपदान

शिक्षण और प्रेरणा-

जन्मोत्सव का दूसरा कर्मकाण्ड दीपदान है ।। जितने वर्ष की आयु हो, उतने दीपक एक सुसज्जित चौकी पर बनाकर सजाये जाते हैं ।। आटे के ऊपर बत्ती वाले घृत दीप एक थाली में इस तरह सजाकर रखे जा सकते हैं कि उनका 'ॐ' स्वस्तिक अथवा कोई और सुन्दर रूप बन जाए ।। इन दीपकों के आसपास पुष्प, फल, धूपबत्तियाँ, गुलदस्ते या कोई दूसरी चीजें सुन्दरता बढ़ाने के लिए रखी जा सकती है ।। कलात्मक सुरुचि भीतर हो, तो सुसज्जित के अनेक प्रकार बन सकते हैं ।। इन दीपकों का पूजन किया जाता है ।। जीवन का प्रत्येक वर्ष दीपक के समान प्रकाशवान् रहे, तभी उसकी सार्थकता है ।। दीपक स्वयं तिल- तिल करके जलता है और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करता है, इस रीति- नीति का प्रतीक होने के कारण ही दीपक को प्रत्येक मांगलिक कार्य में पूजा जाता है एवं उसे प्रधानता मिलती है ।।

हमारे जीवन की रीति- नीति भी ऐसी ही होनी चाहिए ।। दीपक को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है ।। अज्ञान को अन्धकार व ज्ञान को प्रकाश की उपमा दी जाती है ।। जिस सीमा तक हमारा मस्तिष्क या हृदय अज्ञानग्रस्त है, उतना ही हम अँधेरे में भटक रहे हैं ।। मस्तिष्क का अंधकार दूर करने के लिए हमें शिक्षा और हृदय का अंधकार दूर करने के लिए विद्या- ऋतम्भरा ज्ञान का अधिकाधिक मात्रा में संग्रह करना चाहिए ।। आत्मज्ञान का वैसा दीपक हमें अंतःकरण में जलाना चाहिए, जैसा रामायण के उत्तरकाण्ड में विस्तारपूर्वक बताया गया है ।। दीपदान में ऐसी ही अनेक प्रेरणाएँ सन्निहित हैं ।। क्रिया और भावना-

थाली में सजाये दीपकों को क्रमशः प्रज्वलित किया जाए ।। उसके साथ सस्वर गायत्री मन्त्र का पाठ चलाएँ ।। यदि यज्ञ न करके केवल दीपयज्ञ ही करना हो, तो गायत्री मन्त्र के साथ स्वाहा लगाकर दीपक जलाने की प्रक्रिया को आहुति मानते हुए यज्ञीय वातावरण बनाया जाए ।। भावना की जाए कि मनुष्य कितने भी कम साधनों में जी रहा हो, छोटे से नाचीज दीपक की तरह सबका प्रिय प्रकाशदाता बन सकता है ।। छोटी सी पात्रता, थोड़ा सा स्नेह और जरा- सी वर्तिका (लगन) को ठीक क्रम से सजाकर ज्योतिदान प्राप्त कर सकता है ।। ज्योतित जीवन की कामना, प्रार्थना करते हुए दिव्य शक्तियों द्वारा उसकी पूर्ति की भावना की जानी चाहिए ।।

ॐ अग्निज्र्योतिज्र्योतिरग्निः स्वाहा ।। सूर्यो ज्योतिज्र्योतिः सूर्यः स्वाहा ।। अग्निर्वचार् ज्योतिर्वर्चः स्वाहा ।। सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वचः स्वाहा ।। ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा॥ -३६.२४- व्रतधारण

अगला क्रम जन्मोत्सव का व्रत धारण है ।। व्रतों के बन्धन में बँधा हुआ व्यक्ति ही किसी उच्च लक्ष्य की ओर दूर तक अग्रसर हो सकने में समर्थ होता है ।। मनुष्य को शुभ अवसरों पर भावनात्मक वातावरण में देवताओं की उपस्थिति में- अग्नि की साक्षी में वातावरण करने चाहिए और उनका पालन करने के लिए साहस एकत्रित करना चाहिए ।।

शिक्षण एवं प्रेरणा-

दुष्प्रवृत्तियों का त्याग, व्रतशीलता का आरम्भिक चरण है ।। माँसाहार, तम्बाकू, भाँग, गाँजा, अफीम, शराब आदि नशों का सेवन, व्यभिचार, चोरी, बेईमानी, जुआ, फैशन- परस्ती, आलस्य, गंदगी, क्रोध, चटोरापन, कामुकता, शेखीखोरी, कटुभाषण, ईष्र्या, द्वेष, कृतघ्नता आदि बुराइयों को जो अपने में विद्यमान हों, उन्हें छोड़ना चाहिए । कितनी ही भयानक कुरीतियाँ हमारे समाज में ऐसी हैं, जो अतीव हेय होते हुए भी धर्म के नाम पर प्रचलित हैं ।। किसी वंश में जन्म लेने के कारण किसी को नीच मानना, स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अधिकारिणी समझना, विवाहों में उन्मादी की तरह पैसे की होली फूँकना, दहेज, मृत्युभोज, देवताओं के नाम पर पर पशुबलि, भूत- पलीत, टोना- टोटका, अन्धविश्वास, शरीर को छेदना या गोदना, गाली- गलौज की असभ्यता, बाल- विवाह, अनमेल विवाह, श्रम का तिरस्कार आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ हमारे समाज में प्रचलित हैं । इन मान्यताओं के विरुद्ध- विद्रोह करने की आवश्यकता है ।। इन्हें तो स्वयं हमें ही त्यागना चाहिए ।। इसी प्रकार अनेक बुराइयाँ हो सकती हैं ।। उनमें से जो अपने में हों, उन्हें संकल्पपूर्वक त्यागने के लिए जन्म दिन का शुभ अवसर बहुत ही उत्तम है ।।

यदि इस प्रकार की बुराइयाँ न हों, उन्हें पहले से ही छोड़ा जा चुका हो, तो अपने में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन का व्रत इस अवसर पर ग्रहण करना चाहिए ।। रात को जल्दी सोना, प्रातः जल्दी उठना, व्यायाम, नियमित उपासना, स्वाध्याय, गुरुजनों का चरण स्पर्शपूर्वक अभिवादन, सादगी, मितव्ययिता, प्रसन्न रहने की आदत, मधुर भाषण, दिनचर्या बनाकर समय क्षेप, निरालस्य, परिवार निर्माण के लिए नियमित समय देना, लोकसेवा के लिए समयदान आदि अनेक सत्कार्य ऐसे हो सकते हैं, जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सम्मिलित किये जाने चाहिए ।। इस प्रकार की कम से कम एक अच्छी आदत अपनाने का संकल्प लेना चाहिए और कम से कम एक बुराई भी उसी अवसर पर छोड़ देना चाहिए ।। ये दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़ने और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने का क्रम यदि हर जन्म दिन पर चलता रहे, तो कुछ ही वर्षों में उसका परिणाम व्यक्तित्व में कायाकल्प की तरह दृष्टिगोचर होने लगेगा और जन्मोत्सवों का क्रम जीवन में दैवी वरदान की तरह मंगलमय परिणाम प्रस्तुत कर सकेगा ।।

क्रिया और भावना- लिये गये व्रतों का उल्लेख किया जाए ।। उनका स्मरण रखते हुए व्रतपति देवशक्तियों से उनकी वृत्ति एवं शक्ति सहित मार्गदर्शन की याचना करें ।। दोनों हाथ उठाकर व्रतधारण के मन्त्र बोलें-

ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।। तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥१॥ ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।। तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥२॥ ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।। तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥३॥ ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।। तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥४॥ ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।। तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि॥५॥- मं० ब्रा० १.६.९- १३

विशेष- आहुति

व्रत धारण के बाद यज्ञादि क्रम पूरे किये जाएँ ।। गायत्री मन्त्र की आहुति के बाद मृत्युञ्जय मन्त्र की आहुतियाँ दी जाएँ ।। यदि केवल दीपयज्ञ किया गया हो, तो सभी लोग ५ बार मृत्युञ्जय मन्त्र का सस्वर पाठ करें ।।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम् ।। उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्यर्मुक्षीय मा मृतात् स्वाहा ।। इदं महामृत्युञ्जयाय इदं न मम् ।। -३.६०

इसके बाद यज्ञ के शेष उपचार पूरे करके आशीर्वाद आदि के साथ समापन किया जाए ।।

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