पूज्य गुरुदेव एक नहीं, अपितु अनेक शरीरों से काम करते थे। सन्
1984 में परम पूज्य गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण साधना की थी। उस
साधना के कुछ विशिष्ट प्रयोजन थे, जिनका वर्णन भी उन्होंने उस
वर्ष की अखण्ड ज्योतियों में किया है। उसके विषय में अखण्ड
ज्योति जुलाई 1984
पृ. 2 पर वे लिखते हैं-
‘‘हमारी
सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया का प्रयोजन पाँच कोशों पर आधारित
सामर्थ्यों को अनेक गुनी कर देना है। मनुष्य में पाँच कोश हैं।
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय। मोटे तौर से सभी कोशों
के जागृत होने पर एक मनुष्य को पाँच गुनी सामर्थ्य सम्पन्न माना
जाता है। पर दिव्य गणित के हिसाब से 5
5
5
5
5=3125
गुणा हो जाता है। चेतना के पाँच प्राण भी शरीर की परिधि में
बँधे रहने तक पाँच विज्ञजनों जितना ही होते हैं, पर सूक्ष्मीकृत
होने पर गणित की परिपाटी बदल जाती है और एक सूक्ष्म शरीर की
प्रखर सत्ता 3125 गुनी हो जाती है। यह कार्य युग परिवर्तन
प्रयोजन में भगवान् की सहायता करने के लिये मिला है। इस अवधि
में हमें न बूढ़ा होना है, न मरना। अपनी 3125 गुनी शक्ति के
अनुसार काम करना
है।’’ ‘‘हमारे
मार्गदर्शक की आयु 600 वर्ष से ऊपर है। उनका सूक्ष्म शरीर ही
हमारी रूह में है। हर घड़ी पीछे और सिर पर उनकी छाया विद्यमान
है। कोई कारण नहीं कि ठीक इसी प्रकार हम अपनी उपलब्ध सामर्थ्य
का सत्पात्रों के लिये सत्प्रयोजनों में लगाने हेतु उपयोग न करते
रहें।’’
यह रहस्योद्घाटन भले ही उन्होंने 1984 में किया, किन्तु अपने
नैष्ठिक परिजनों के सम्मुख वे स्वयं को प्रारंभ से ही प्रकट
करते रहे हैं।
एक शरीर तो हिमालय में तप करता रहता है
श्री
रामाधार विश्वकर्मा (बिलासपुर,
छ.ग.)
जी भी प्रारंभ के शिष्यों में से एक हैं। वे बताते हैं कि एक
बार वे पूज्यवर के पास मथुरा गये थे। पूज्यवर अपने कक्ष में
पत्र लेखन में तल्लीन थे। फिर उन्हें याद आया कि किसी के पास
मिलने जाने का निश्चय हुआ है। उन्होंने आधे पत्र ही लिखे थे, आधे
ऐसे ही छोड़ दिये। अपने कक्ष में ताला लगाकर मुझे साथ लेकर
निश्चित कार्यक्रम हेतु चल दिये। जब हम लौटकर आये, तो उन्होंने
स्वयं ही ताला खोला। मैंने देखा, कि पूज्यवर ने जो आधे पत्र छोड़
दिये थे, वे भी पूरे हो गये हैं। मैंने गुरुजी से पूछा,
‘‘गुरुजी! आपने तो आधे पत्र लिखे थे। फिर ये पूरे पत्र कैसे लिख
गये?’’
गुरुजी ने मुस्कुराते हुए कहा-
‘‘बेटा!
एक अकेले शरीर से इतना बड़ा काम कैसे हो पायेगा? मेरे पाँच
शरीर हैं न। एक शरीर तो हिमालय में तप करता रहता है, अन्य
शरीरों से युग निर्माण के बड़े कार्य हो रहे हैं। हमारा जो भी
कार्य आपको दिखायी दे रहा है, यह केवल दो परसेण्ट ही है। तीसरे
प्रतिशत का थोड़ा सा हिस्सा ही साधक स्तर के व्यक्ति जान पाये
हैं। शेष 97 प्रतिशत कार्य तो हमने अदृश्य स्तर पर ही किया
है, पूरी दुनिया से छिपाकर किया
है।’’
गुरुजी का नाश्ता
एक बार तो मैंने उनके सूक्ष्म शरीर के दर्शन भी किये। वह पल
तो मुझे भुलाये नहीं भूलते। कुछ क्षणों तक तो मैं धर्म संकट
में फँस गया था, मुझे लग रहा था कि मेरी जान ही निकल जायेगी।
यह शायद सन् 1965 या 1966 की घटना है। परम पूज्य गुरुदेव चौबीस
कुण्डीय यज्ञों की शृंखला में श्री उमाशंकर चतुर्वेदी के घर
रुके हुए थे। जब गुरुदेव बिलासपुर में होते, तब मैं पूरे समय
उनके आसपास ही रहता, क्योंकि श्री
चतुर्वेदीजी
को अनेक कार्य देखने होते। उस दिन भी ब्रह्ममुहूर्त में ही
मैं, श्री चतुर्वेदी जी के घर पहुँच गया। गुरुवर कमरे में (जहाँ
उन्हें ठहराया गया था) जा चुके थे। मैं सीधे ऊपर उनके कमरे में
ही चला गया।
थोड़ी देर आपस में हम दोनों की बातचीत हुई। गुरुदेव के साथ जो
सज्जन आये थे, उन्हें गुरुजी ने व्यवस्था हेतु यज्ञशाला भेज
दिया। यज्ञ प्रारंभ होने में अभी काफी देर थी। इसी समय गुरुजी ने
जाने मन में क्या सोचा, मुझसे कहा-
‘‘रामाधार!
न मेरे शरीर को छूना, न किसी को पास आने देना, न तुम पास
आना, दरवाजा हल्का लगा दो व तुम देखते रहना, कहीं मत जाना, यहाँ
से हिलना मत। मैं नाश्ता करके आ रहा
हूँ।’’
क्योंकि मैं साधना करता था, थोड़ा बहुत साहित्य भी पढ़ता था। अतः स्पर्श की बात तो मुझे ठीक लगी, पर
‘‘नाश्ता करके आ रहा
हूँ!’’
यह बात कुछ समझ नहीं आई। फिर भी गुरुजी का आदेश है, उसका
प्राण- पण से पालन करेंगे मानकर जमा रहा। दरवाजा हल्का सा लगा
दिया ताकि अन्दर भी दिखाई देता रहे व ठीक दरवाजे से सटकर बैठ
गया तथा अन्दर- बाहर देखने लगा। मैंने देखा कि गुरुदेव ने चटाई
बिछाई, उस पर लेट गये व ध्यानस्थ हो गये। मैं देखता रहा। इतने
में क्या देखता हूँ कि गुरुवर के शरीर से एक छाया प्रकाश, नीले
रंग के छाया गुरु निकले और आकाश की तरफ धीरे- धीरे उड़ चले।
साधना में कहीं भी आ- जा सकने की क्षमता के विषय में पढ़ने को
तो बहुत मिला था, पर उसे, उस दिन मैं प्रत्यक्ष देख रहा था। सो
अधिक अचंभा तो नहीं हुआ किन्तु इसे अपनी आँखों से देख सकने पर
स्वयं को धन्य- धन्य मान रहा था।
मैं गुरुदेव के विषय में चिन्तन करते हुए उनकी आज्ञानुसार
वहाँ बैठा रहा। समय कब बढ़ रहा था, पता ही न चला। एक घंटा बीत
गया। इतने में श्री चतुर्वेदी जी आये, मैंने इशारे से मना किया
वे लौट गये। थोड़ी देर में फिर आये, कहा- विश्वकर्मा जी, मिलने वाले
लोग बढ़ रहे हैं, मैंने इशारे से फिर मना किया। वे फिर चले
गये। इसी प्रकार जब कई बार हुआ तो अन्त में चतुर्वेदी जी ने
कहा-
‘‘भीड़ काफी बढ़ गई है, गुरुदेव को उठाना ही होगा। आप नहीं उठाते तो मैं
उठाऊँगा।’’ मैं पसीने- पसीने हो गया। हे
भगवान! क्या
करुँ?
गुरुदेव का आदेश है, कैसे नहीं मानूँ ?? पर दो घंटे से भी अधिक
समय बीत चुका था। अब मेरा मन आशंकित होने लगा। कहीं कुछ अनहोनी
न हो जाय। पर भीतर जा नहीं सकता, किसी को बता भी नहीं सकता,
गुरुदेव का निर्देश था। मैं भीतर ही भीतर डर रहा था। फिर भी
मैंने अपना कर्तव्य निभाया व चतुर्वेदी जी को रोका। कहा-
‘‘कम से कम थोड़ी देर और इंतजार कर लीजिए, अन्यथा गुरु आज्ञा की अवहेलना का पाप सहना
पड़ेगा।’’
इस तर्क से चतुर्वेदी जी हार मानकर नीचे चले गये, पर मेरा मन
बहुत भारी हो रहा था। पब्लिक को कैसे समझायें? मेरे तो जैसे
प्राण ही निकले जा रहे थे। अब मैं मन ही मन कभी भगवान से तो
कभी गुरुजी से अनुनय- विनय करने लगा,
‘‘हे प्रभो! अब तो आ जाओ, मेरी लाज रख
लो’’
आदि- आदि प्रार्थना से अपने इष्ट को मना रहा था। उन्हें देखता
भी जा रहा था। इतने में पूज्यवर के शरीर में कुछ हलचल हुई,
प्रकाश शरीर आया जिसे पुनः मैंने स्पष्ट देखा और गुरुदेव उठ कर
बैठ गये। मेरी जान में जान आई। मन में कहा,
गुरुदेव!
आज तो आपने मेरी कठिन परीक्षा ले ली। कृपा कर बचा लिया, शायद
अब मैं आपकी चौकीदारी न कर सकूँ। लीलाधारी को तो रहस्य एक बार
दिखाना था सो दिखा दिया। गुरुदेव उठे, तो मैं बस इतना ही कह
सका,
‘‘गुरुदेव आपका नाश्ता मुझे भारी पड़ रहा
था।’’ गुरुदेव
मुस्कुरा दिये व भीड़ को सँभालने यज्ञस्थल की ओर चल दिये।
मैं हर एक के कमरे में रहता हूँ
श्री
गजाधर भारद्वाज,
शांतिकुँज,
सन् 1973 में चौबीसवें प्राण प्रत्यावर्तन शिविर में, मैं
सम्मिलित हुआ था। मैं 31 नम्बर कमरे में दर्पण साधना कर रहा था।
अचानक मैंने देखा गुरुजी मेरे पीछे खड़े हैं। मैं पीछे मुड़ा पर
गुरुजी मुझे कहीं दिखाई नहीं दिये। फिर मैंने दर्पण में देखा तो
गुरुजी फिर दिखाई दिये। फिर पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं था।
मेरे कमरे का दरवाजा भी बंद था। जब प्रणाम करने गया तो गुरुजी
से पूछा कि गुरुजी ऐसा क्यों हुआ। गुरुजी ने बताया,
‘‘बेटा! मैं इन दिनों हर एक के कमरे में रहता
हूँ।’’
अभी -अभी यहाँ गुरुजी खड़े थे
20 मार्च से 20 अप्रैल के 29 दिन में गुरुजी के 58 भाषण हुए और मैंने, उपाध्याय जी,
चौरसिया
जी, महेन्द्र जी, कपिल जी, शिव प्रसाद जी आदि ने साथ- साथ
वानप्रस्थ धारण किया। सन् 1977 में मैंने समयदान किया। फिर मैंने
कार्यकर्त्ताओं से कहा कि अब मैं घर जाऊँगा और पैसे कमाऊँगा। मुझे अपने बच्चे पालने हैं। गुरुजी ने मुझे बुलाया और कहा,
‘‘अब तू अपना दिमाग मत लगा, यहाँ आ जा। बच्चों की
देखभाल
मैं करूँगा। बच्चों को यहाँ भर्ती कर दे और तू भी भर्ती हो
जा। बस तू चार बातों का ध्यान रखना। बच्चों को क्या करना है, कोई
दबाव नहीं डालना। नौकरी करेंगे तो उन्नति करा दूँगा, व्यापार
करेंगे तो फायदा करा दूँगा। हमारे पास रहेंगे तो बाबा- नाती का
रिश्ता भी
फायदेमंद ही
रहेगा।’’ उनके कहने पर मैं
शांतिकुंज का ही हो गया। दशहरे में उन्होंने मुझे
आँवलखेड़ा
भेज दिया। वहाँ पर एक दिन जब अखण्ड जप चल रहा था तो मैंने
मंदिर की तरफ बहुत ऊँचे लगभग 30- 40 फीट ऊँचे गुरुजी को खड़े
देखा। मैंने तीन- चार बार आँखें मलीं, पर मुझे वही दृश्य दिखाई
दिया। वहीं पर जानकी प्रसाद जोशी जी भी पूजा कर रहे थे। मैंने
पूछा,
‘‘तुम्हें कुछ अनुभव
हुआ।’’ वे बोले,
‘‘हाँ, अभी अभी यहाँ गुरुजी खड़े
थे।’’
माताजी का सूर्यार्घ्य
सन् 1981- 82 की बात है एक दिन मैंने माताजी को सूर्य भगवान्
को अर्घ्य देते हुए देखा। मैंने देखा सूर्य की गहरी प्रकाश
किरणों का एक समूह उनके चरणों में आ रहा है। फिर यह प्रकाश
किरणें बिखर कर शान्तिकुञ्ज के परिसर द्वारा सोखी जा रही हैं।
मैंने गुरुजी से पूछा,
‘‘गुरुजी, आज मैंने माताजी का विलक्षण स्वरूप देखा। यह क्या
है?’’ तो गुरुजी ने कहा,
‘‘माताजी के इसी दिव्य प्रकाश और शक्ति से शान्तिकुञ्ज और युग निर्माण योजना संचालित
है।’’
तूने मेरे सूक्ष्म शरीर के दर्शन किये हैं
ऐसे ही एक दिन जब मैं गुरुजी के कमरे में गया तो गुरुजी
ज़मीन पर बैठकर नक्शे में कुछ देख रहे थे। गुरुजी के पैरों के
तलवे मुझे स्पष्ट दिख रहे थे। मैंने देखा कि उनमें चक्र कमल
चिह्नित हैं। मैंने गुरुजी से पूछा तो गुरुजी ने बताया कि तूने
मेरे सूक्ष्म शरीर के दर्शन किये हैं, पर इस बात की चर्चा बाहर
मत करना।
गुरुदेव की लीला
श्री कैलास प्रसाद
लाम्बा
जी, कोरबा में ठेकेदारी का कार्य करते हैं। किसी भी ठेकेदार के
लिये मार्च का महीना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि सरकारी
काम का पैसा इसी समय प्राप्त होता है। अतः वे भी अपने वर्ष भर
के बिलों के भुगतान की प्राप्ति हेतु प्रयासरत थे। प्रसंग सन्
1977 मार्च के मध्य का है। शान्तिकुञ्ज से वंदनीया माताजी का
पत्र आया,
‘आपको पूज्यवर ने याद किया है, फौरन चले
आयें।’
श्री
लाम्बा
जी कहते हैं कि मैं बड़े पशोपेश में पड़ गया। यदि हरिद्वार जाता
हूँ, तो सारे बिल रह जायेंगे। यदि नहीं जाता हूँ, तो गुरुवर के
आदेश की अवज्ञा होगी। दो रात मैं सो नहीं सका। क्या करूँ? कुछ
समझ नहीं आ रहा था। अन्त में तीसरे दिन निर्णय ले ही लिया कि
चाहे जो हो, मुझे शान्तिकुञ्ज पहुँचना ही है। सभी बिल जैसे- तैसे
बनाकर, पेश करके मैं हरिद्वार पहुँच गया।
तब शान्तिकुञ्ज में गुरु जा से मिलने की कोई बंदिश नहीं थी।
परम वन्दनीया माताजी से मिलकर मैं ऊपर गुरुदेव से मिलने गया। एक
सीढ़ी नीचे से ही देखा कि पूज्यवर अपने साधना कक्ष में तखत पर
बैठे हैं। उन्होंने भी मुझे देख लिया व इशारे से मुझे वहीं
बुला लिया। मैंने वहाँ पहुँच कर गुरुदेव को प्रणाम किया व धीरे-
धीरे उनके पैरों को सहलाने लगा। किन्तु जैसे ही मैंने सिर उठाकर
गुरुजी की ओर देखा, मैं आश्चर्य चकित रह गया, मैंने देखा, तखत पर
पूज्यवर की जगह दादा गुरुजी बैठे हैं। कुछ सूझा नहीं, क्या
करूँ? फिर मैंने गुरुदेव की साधना स्थली की ओर मुँह किया तो
वहाँ गुरुदेव बैठे दिखाई दिये। फिर पलट कर तखत को देखा, तो पता
चला, गुरुजी तखत पर बैठे हैं। अब तो मेरी स्थिति अजीबोगरीब हो
गई। मैंने फिर साधना स्थली देखी, तो वहाँ दादा गुरुजी थे। तखत पर
देखा, तो वहाँ भी दादा गुरुजी नजर आये। फिर, साधना स्थली पर
गुरुजी दिखे। इस प्रकार तीन बार अलट- पलट कर देखा। मेरी स्थिति
विचित्र हो रही थी। मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ा, मैंने गुरुदेव के
चरणों में अपना सिर रख दिया और मन ही मन कहने लगा,
‘‘गुरुदेव! आपकी लीला न्यारी है। मैं अकिंचन कुछ भी नहीं समझ
सकता।’’ तब गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ रखा व कहने लगे-
‘‘ तूने कुछ नहीं देखा है। उठ।
जा! मैं तेरा सब काम ठीक कर
दूँगा।’’
उस समय तो मुझे कुछ समझ नहीं आया। लगा कि गुरुदेव तो ऐसा
कहते ही हैं, पर सचमुच उन दिनों मैं आर्थिक तंगी के दौर से
गुजर रहा था। घर आने पर पता चला, मेरा ढाई लाख का बिल पास हो
गया था और मैं आर्थिक तंगी के भँवर से उबर चुका था। ऐसे कृपालु
थे पूज्यवर।
ऐसा था उनका विश्राम
श्री वीरेश्वर उपाध्याय जी बताते हैं कि विश्राम के क्षणों
में भी उनकी चेतना सक्रिय रहती थी। हमें लगता था कि वे विश्राम
कर रहे हैं परंतु उन क्षणों में वे सूक्ष्म स्तर से अन्य
कार्यों में लगे रहते थे।
वे बताते हैं कि,
‘‘मेरे मथुरा छोड़ने (जून
७१) तक आप निश्चित रूप से इसी शरीर में
रहेंगे।’’ यह आश्वासन,
पू.
गुरुदेव ने कुछ स्नेही अनुयायी परिजनों को स्पष्ट शब्दों में
दिया था। विदाई वर्ष के कार्यक्रमों की शृंखला में वे लगातार कई-
कई दिनों तक मथुरा से बाहर रहे। ऐसी ही एक अवधि में उक्त
आश्वासन प्राप्त व्यक्तियों में से दो (जयपुर से श्रीमती
चन्द्रमुखी देवी
रस्तोगी के पतिदेव तथा भोपाल से
श्रीरामचरण
राय) की स्थिति गंभीर होने के पत्र एवं टेलीग्राम मथुरा पहुँच
गए। दोनों ही गंभीर हृदय रोग से पीड़ित थे। तीन दिन बाद पूज्य
गुरुदेव दौरे से लौटे। सबेरे के समय मथुरा पहुँचे। आवश्यक सूचनाओं
के साथ उन्हें उक्त जानकारी भी दी गई। थोड़ा सोचकर वे चिंतित
स्वर में बोल उठे-
‘‘कहीं यह दौरा, दोनों के लिये
...घातक न
हो...।’’
यह शब्द उन्होंने नहाते- धोते, भोजन करते कई बार कहे। फिर
नियमानुसार भोजन के बाद विश्राम के लिए चले गए। कहते गए कि तुम
लोग अपना काम कर लो और घंटे भर बाद मिलो।
घंटे भर बाद मिलते ही स्पष्ट शब्दों में बोले-
‘‘अब टेलीग्राम भी भेज दो और पत्र भी लिख दो कि वे निश्चिन्त रहें, सब ठीक हो
जायगा।’’ वैसा ही किया गया। बाद में पता लगा कि उसी दिन
दोहपर से दोनों परिजनों की तबियत में काफी तेजी से सुधार आने लगा और वे स्वस्थ हो गये।
ऐसा ही एक प्रसंग यह भी है, सबेरे सात- साढ़े सात बजे के बीच पूज्य गुरुदेव अपने कक्ष में
कार्यकर्त्ताओं को दिशा- निर्देश दे रहे थे। नीचे से सूचना मिली कि दिल्ली से
ट्रंककाल आया है। एक भाई ने जाकर बात की। लौटकर बताया श्री शिवशंकर गुप्ता (तत्कालीन ट्रस्टी और कानूनी सलाहकार) कल दोपहर
११ बजे से बेहोश हैं। सबेरे तक होश नहीं आया।
पूज्य गुरुदेव ने सुना तो बोले-
‘‘अच्छा, आज की बात यही बंद करते
हैं।’’
यह कहकर नियमानुसार वन्दनीया माताजी के पास जाकर भोजन लिया और
विश्राम के लिए लेट गए। बाद में पता लगा कि श्री शिवशंकर जी
को सामान्य बेहोशी नहीं थी। केस
ब्रेनहैमरेज
का था। परिजनों को इसका अहसास भी नहीं था और एक सामान्य
चिकित्सक को दिखा कर ही परिणाम की प्रतीक्षा करने लगे थे। दोपहर
११
बजे से शाम हुई, रात बीत गई, तब सबेरे पूज्य गुरुदेव को फोन
से सूचना दी और एक भाई वहाँ से हरिद्वार के लिए रवाना भी हो
गए।
फोन से सूचना पाकर पूज्य गुरुदेव जिस अवधि में विश्राम में
रहे, उसी बीच श्री शिवशंकर जी की बेहोशी टूटी। उन्होंने आँखें
खोली। बोले कुछ नहीं। तकलीफ पूछने पर सिर की तरफ इशारा भर किया।
सहारा देने पर बैठ गए। चाय के लिए पूछा तो सिर हिलाकर सहमति दे
दी। चाय के साथ एकाध टुकड़ा ब्रेड का लेकर लेटे और पुनः उसी
बेहोशी में डूब गए।
बाद में उनके रोगोपचार का लम्बा क्रम चला। उन्हें कई चमत्कारी
अनुभव भी हुए। डॉक्टरों को आश्चर्य में डालते हुए वे ठीक हो
गए।
लेकिन उक्त प्रसंगों से यह तो स्पष्ट होता है कि युग ऋषि का
कथित विश्राम कैसा होता था। शरीर को शिथिल छोड़ कर वे चेतना
स्तर पर कैसे विलक्षण प्रयोग किया करते थे।
जब गुरुजी ने इलाहाबाद में पुस्तकें पढ़ीं
माधवपुर के श्री बहादुर सिंह बताते हैं कि इलाहाबाद वाले श्री
रामलाल जी ने मुझे एक घटना सुनाई।
पूज्यगुरुदेव मध्य प्रदेश के दौरे पर थे। उन्हें इलाहाबाद होते हुए जाना था। स्टेशन के लिये निकलते समय बोले,
‘‘ट्रेन तो देरी से है, इस बीच
यूनिवर्सिटी पुस्तकालय हो लेते
हैं।’’ पहले भी गुरुदेव पुस्तकों के लिये 2- 3 बार इलाहाबाद पुस्तकालय आ चुके थे। यह सोचकर कि यदि देर हो जायेगी तो
युनिवर्सिटी से ही सीधे स्टेशन निकल जायेंगे, मैं, गुरुदेव का सामान आदि लेकर चलने लगा। गुरुजी बोले,
‘‘भई रामलाल! यहीं आकर जायेंगे। अभी आते
हैं।’’ मैंने सामान रख दिया।
विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में पहुँचकर पूज्यवर ऐसे डूब गये
कि उन्हें दीन दुनिया का होश ही नहीं रहा। जैसे- जैसे
ट्रेेन
के आने का समय समीप आ रहा था, मेरा मन घबरा रहा था। मैंने
दो- तीन बार कहा कि गुरुजी, सामान भी लेना है और स्टेशन भी
पहुँचना है। थोड़ी देर बाद गुरुजी बोले,
‘‘समय हो गया होगा। यह भी तो एक यज्ञ है। इसे बीच में छोड़कर नहीं चल
सकते।’’
गुरुदेव पुस्तकें पढ़ने में पूरी तरह मगन थे। एक पुस्तक में
लगभग 10 मिनट लगते। वे पुस्तक पढ़ते व एक तरफ रख देते। वे
हिन्दी, अंग्रेजी, प्राकृत, पाली, संस्कृत सभी भाषाओं की किताबें देख
गये।
इसी बीच मेरे मित्र भटनागर जी गुरुदेव को लेकर स्टेशन जाने
के लिए घर पहुँचे तो उन्हें पता चला कि गुरुजी और मैं दोनों
साथ में ही हैं। उन्होंने अनुमान लगाया कि हम लोग स्टेशन ही गये
होंगे। सो वे सीधे वहीं पहुँच गये। थोड़ी देर
ढूँढा पर यह सोचकर कि कहीं बैठ गये होंगे, और वे छूट जायेंगे, भटनागर जी ने
टिकिट लिया व चलती गाड़ी में बैठ गये।
निर्धारित कार्यक्रम में पूरा भाग लिया, लौटे तो बहुत खुश। कहने
लगे कि न जाने कैसे गुरुदेव ने ट्रेन में हमें
ढूँढ
लिया और अगले स्टेशन पर ही हमारे पास आकर बैठ गये पर आप
नहीं मिले। उन्होंने बताया, कार्यक्रम बहुत बढ़िया रहा। हम सीधे
स्टेशन से ही आ रहे हैं, पर स्टेशन पर उतरने के बाद गुरुदेव
दिखे ही
नहीं! इसलिए सीधा आपके पास ही आ रहा हूँ।
मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि वे क्या कह रहे हैं? गुरुदेव तो
लाइब्रेरी से ट्रेन टाइम के निकल जाने के भी आधे घण्टे बाद
मेरे साथ घर लौटे व चादर ओढ़कर सो गये। कार्यक्रम में तो वे गये
ही नहीं थे। पिछले तीन- चार दिन से गुरुदेव तो हमारे घर पर ही
थे। वे रोज इलाहाबाद विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में किताबें
पढ़ने जाते रहे थे। मैंने पूछा भी कि अब कार्यक्रम का क्या होगा?
तब वे हँसकर टाल गये थे और बोले,
‘‘कार्यक्रम की व्यवस्था भी हो
जायेगी।’’
मैंने भटनागर जी से कहा,
‘‘गुरुदेव तुम्हें दिखते भी कैसे वे तो यहीं हैं। कार्यक्रम में तो वे गये ही नहीं
थे।’’
भटनागर जी ने
आश्चार्य मिश्रित स्वर में कहा,
‘‘क्या
कह रहे हैं आप? मैं झूठ बोल रहा हूँ क्या? मैं, गुरुजी के साथ
था। मैं तो यह सोच रहा था कि आप कैसे हैं, जो गुरुजी को अकेले
भेजकर खुद घर पर रह
गये?’’
हम दोनों का वार्तालाप गुरुजी अन्दर लेटे- लेटे सुन रहे थे। उन्होंने हमें बुलाया और कहा,
‘‘क्या
लड़कपन करते हो? दोनों की बात सच्ची है। मैं यहाँ भी था, वहाँ
भी था। वहाँ रेल में भी भटनागर जी के साथ मैं ही था। यज्ञ में
भी मैं ही था। तुम इस बात को गोपनीय ही रखना। यह मेरा स्वरूप
मेरे महाप्रयाण के बाद ही लोगों को पता लगे, यह ध्यान रखना। समय
आने पर ऐसी ढेरों बातें लोगों को पता चलेंगी, तब वे हमारे
स्वरूप को पहचान
पायेंगे।’’
देखता हूँ कैसे नहीं मानती?
कोरबा के श्री कैलाश प्रसाद
लाम्बा जी कहते हैं कि
जांजगीर तहसील छत्तीसगढ़ के
कुलीपोटा ग्राम के श्री साध राम
साहू
अक्सर अपने जीवन की एक अविस्मरणीय घटना सुनाया करते थे। यह सन्
67- 68 की घटना है। एक दिन गुरुदेव प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन
करते- करते ही अचानक उनका चेहरा गुस्से से लाल हो गया व कहने
लगे- नहीं मानती, नहीं मानती, देखता हूँ कैसे नहीं मानती? बंद करना
पड़ेगा। आदि- आदि।
राजस्थान के कोटा जिले के बूँदी तहसील में
इन्द्रगढ़
देवी का मंदिर है। उन दिनों वहाँ प्रति वर्ष एक हजार से भी
अधिक बकरों की बलि दी जाती थी। संभवतः उसी परिप्रेक्ष्य में
पूज्यवर ने वह कथन कहे थे, क्योंकि इसके तुरंत बाद वे
शिविरार्थियों की ओर मुखातिब होकर बोले,
‘‘गुरु
गोविन्द सिंह के पंच प्यारे थे, जिन्होंने आदर्शों के लिये
स्वयं को बलिदान कर दिया। गुरु आज्ञा पर अपना सिर कटाने को
तैयार हो गये थे। क्या आज हमारे शिष्यों में भी ऐसे पंच प्यारे
हैं? जो हमारी आज्ञा पर अपना सिर देने को तैयार
हैं।’’
शिविरार्थी शिष्य जो लगभग 50- 60 की संख्या में थे, उनमें से
27- 28 व्यक्तियों ने हाथ उठाया। पुनः गुरुदेव ने पूछा,
‘‘देखो भई, ये बताओ कितनों को घर से
परमीशन लेनी पड़ेगी? अभी यहीं से जाने के लिये कौन- कौन तैयार
है?’’
कहाँ जाना है? क्या करना है? अभी यह बात स्पष्ट नहीं थी। बात, सिर कटाने की थी, सो घर से
परमीशन की आवश्यकता नहीं लेने वाले केवल आठ ही हाथ ऊपर उठे बाकी सभी नीचे हो गये।
प्रवचन समाप्त हुआ। उन आठों को
घीयामंडी बुलाया गया। सारी बातें समझाई गईं। तुम्हें एक माह के लिये
इन्द्रगढ़ जाना है। पशु बलि के विरुद्ध अभियान छेड़ना है। सुबह यज्ञ करना व दिन भर प्रचार- प्रसार।
माताजी ने सारी बातें सुनीं तो रो पड़ीं। कहने लगीं-
‘‘बेटा,
वहाँ रेगिस्तान की तपती रेत में तुम्हें नंगे पैरों चलना होगा।
जब वहाँ रेत की आँधी चलती है, तब कुछ सूझता नहीं। खाने- पीने का
कोई ठिकाना
नहीं।’’ भारी मन लिये उन्होंने हमारे साथ पाँच- किलो सत्तू व एक किलो गुड़ बाँध दिया। कहा,
‘‘बेटा, जब भूख लगे खा
लेना।’’
दिये हुए पते पर आठों बलिदानी गये। देखा पूरा
खटीकों
का गाँव था। गाँव से बाहर अपना तम्बू लगाया। जैसा समझाया गया
था, वैसा कार्य सबने दूसरे दिन से प्रारंभ कर दिया। तीसरे दिन एक
साधु मिला, केवल लंगोटी धारी। बातचीत हुई, सबने अपना उद्देश्य
बताया। उसने कहा, आप लोग अच्छा काम कर रहे हो। आपके गुरु महान्
हैं। मैं भी आपके साथ चलूँ तो नौ हो जायेंगे। सब मान गये। नौ की
टोली प्रचार- प्रसार हेतु जुट गयी। दूसरे दिन यज्ञ के उपरान्त
सबके चलने की बारी आई तो उस साधु ने कहा- मुझे घर पर ही रहने
दें तो अच्छा हो।
हम सब चले गये। रात को वापस आये तो देखा आस- पास से फूस
लाकर तम्बू में लगा दिया गया है। गरम पानी किया रखा है। भोजन भी
तैयार हो चुका है। सबने इसे गुरु कृपा माना। इसके बाद साधु
सबके पैर, गरम पानी से धोने लगा। हम सब मना करते, फिर भी वह
खींच- खींच कर पैर धोता। रोज वही भोजन बना कर खिलाता। इस प्रकार
वह साधु हमें वरदान बनकर मिला।
पूरे एक माह तक सबने
पशु
बलि निषेध का प्रचार किया। इसकी हानियाँ समझाईं। देवताओं के
रुष्ट होने की बात कही। प्रतिदिन 20 किलोमीटर तक अलग- अलग
क्षेत्रों में पैदल नापते थे। सबके पैरों में छाले पड़ जाते थे।
फिर भी गुरु श्रद्धा के वशीभूत हो सभी ने एक माह के अन्दर जन-
जागृति की हवा फैला दी।
अब वह गाँव जो
खटीकों का था, उन्हें भी भय लगा कि
क्या...? सचमुच पशुबलि बंद हो जायेगी? अतः पूरा गाँव इकट्ठा हुआ और तय किया कि आठ ऐसे
बुढ्ढे
जो मरने वाले हों, वे खड़े हो जाएँ व आठों की गर्दन उड़ा दें।
फिर भले फाँसी पर लटक जाना पड़े। इस प्रकार दोनों तरफ के जागरण
का असर प्रशासन के कानों तक भी पहुँचा। वह भी कैसे चुप रहता?
पूरे जिले के प्रशासन की बैठक हुई। वातावरण ऐसा बन गया था कि
कब क्या हो जाय? अतः पुलिस भी पूरी तरह चौकन्ना थी। किसी भी
अप्रत्याशित घटना से निपटने के लिये वहाँ पुलिस छावनी बन गई थी।
नवरात्रि के अंतिम दिन हम आठों बलिदानियों ने सुबह चार बजे
ही नहा- धोकर मंदिर को घेर लिया। ताकि कोई भी व्यक्ति हमारे
जीवित रहते तक बलि न दे सके। उस समय वह साधु साथ नहीं था। सभी
अंध श्रद्धालु अपने साथ बकरा लिये हुए मंदिर की ओर आ रहे थे।
वहाँ भीड़ बढ़ती जा रही थी। इस सबसे मंदिर के अन्दर जाने में
दिक्कत होने लगी। हम आठों ने भी स्पष्ट कर दिया कि बिना हमको
मारे आप मंदिर के अन्दर नहीं जा सकते। हालात नाजुक बनते जा रहे
थे। अचानक वे लंगोटीधारी साधु अपने कन्धों पर बकरा लादे हुए
प्रकट हो गये। अपने साथी को इस प्रकार बकरा लाते देखकर हम सभी
आश्चर्य में पड़ गये। सब, कुछ सोच पाते, इसके पहले ही उन्होंने
बकरे को नीचे पटका और जोर की गर्जना करते हुए बोल पड़े। पशु में
भी आत्मा का निवास है। यह बात किसी को समझ में नहीं आ रही
है? हिम्मत है? तो इस बकरे को काटकर दिखाओ। उस साधु के सिंह नाद
में वह गर्जना थी कि जो व्यक्ति थोड़ी देर पहले पशु बलि के
पक्ष में खड़े थे, सभी भाग खड़े हुए। मौका देखकर पुलिस ने भी कमान
संभाल ली और धारा 144 लागू हो गयी। सभी तितर- बितर हो गये।
गर्दन उड़ाने वाले
खटीक भी खिसक लिए।
हम आठों को लग रहा था कि आज तो हमारी गर्दन उड़ेगी ही
क्योंकि, इसके लिये ही तो मथुरा से चले थे। किन्तु पलक झपकते ही
वह साधु आया, ललकारा और भीड़ को तितर- बितर कर
अंर्तध्यान हो गया। फिर कहीं
ढूढँने
पर भी नहीं मिला। तभी कुछ लोगों ने कहा हमने तो उसे उसी समय
नीचे देखा था। साढ़े सात सौ सीढ़ियाँ दो- चार मिनटों में कैसे तय
की जा सकती हैं? अतः सबने एक स्वर से उन्हें चमत्कारी बाबा ही
माना, जो ऐन वक्त पर अपने शिष्यों की रक्षा हेतु प्रकट हुए थे।
अन्यथा क्षण भर की भी देर होती तो सभी की गर्दन कट जाती।
पूज्यवर भला ऐसा कैसे होने देते? साधु का भी कहीं अता- पता नहीं
था। अतः आठों अपना डेरा उठाकर मथुरा आये। गुरुदेव ने मुस्कुराते
हुए समाचार पूछा,
‘‘कहो, क्या हाल चाल