श्री अशोक दाश एवं श्रीमती मणि दाश
जो भी मशीन पकड़ेगा, ठीक हो जाएगी
मुझे माताजी का बहुत प्यार- आशीर्वाद
मिला। उनके साथ बिताया एक- एक क्षण मेरे लिये धरोहर है। अभी मैं
शान्तिकुञ्ज में नया ही था। एक दिन माताजी का टेलीफोन खराब हो
गया। श्री वीरेश्वर उपाध्याय जी मुझे लेकर गये और बोले, ‘‘माताजी, यह ठीक कर देंगे’’। माताजी ने मुझसे पूछा, ‘‘लल्लू, तू ठीक कर देगा? अच्छा! देख तो!’’। मैंने टेलीफोन को उलट- पलट कर देखा और वह ठीक हो गया। माताजी खूब खुश हुईं और बोलीं ‘‘जा, आज से तू गुरुजी का और मेरा फोटो सामने रखकर जो भी मशीन पकड़ेगा, वो ठीक हो जाएगी’’।
उनका वह आशीर्वाद खूब फला। मैं किसी मशीन को उलट- पलट कर देखता
भर था कि वह ठीक हो जाती थी। कभी- कभी तो बिना कुछ किये, देख-
दाख कर रख भर देता था कि वह ठीक हो जाती थी। मुझे ऐसा ही
लगता कि माताजी ने स्वयं ही इसे ठीक कर दिया है।
मैं कोई राजेश खन्ना हूँ?
प्रारंभ में ई.एम.डी. विभाग बहुत छोटा सा था। थोड़ा- बहुत गीतों की रिकार्डिंग आदि का काम होता था। साधन भी कम थे और टैक्नीक
भी आज के जितनी विकसित नहीं थी। जब नया- नया रिकार्डिंग का सेट
आया तो मैं गुरुजी के पास गया कि गुरुजी आप की रिकार्डिंग
करनी है। गुरुजी ने मना कर दिया। मैं नीचे आ गया। इस प्रकार मैं,
दो- तीन बार खाली हाथ लौट कर आया। फिर एक दिन माताजी से कहा, ‘‘माताजी, गुरुजी तो रिकार्डिंग के लिये मना करते हैं’’। माताजी बोलीं, ‘‘ठीक है बेटा, मैं उनसे बात करूँगी’’। अगले दिन जब मैं गया तो माताजी ने कहा, ‘‘जा लल्लू, गुरुजी से मैंने कह दिया है’’।
मैं ऊपर गया तो गुरुजी ने मेरा कैमरा आदि देखकर मुझे तीखी
निगाहों से देखा। पर मैंने उनकी ओर नहीं देखा कि फिर डाँटेंगे
और चुप- चाप रिकार्डिंग में लग गया।
गुरुजी बोले, ‘‘मैं कोई राजेश खन्ना हूँ? देवानंद हूँ? जो तू मेरी रिकार्डिंग करेगा?’’।
फिर गुरुजी कैमरे की ओर एक- टक देखते रहे और कुछ- कुछ बोलते
रहे। मैं चुप- चाप रिकार्डिंग करता रहा। लगभग आधा घण्टा रिकार्डिंग
की। जब नीचे आया और देखा, तो उसमें कुछ भी रिकार्ड नहीं हुआ
था। मुझे बहुत अफसोस हुआ।
जब तक गुरुजी की इच्छा नहीं थी, तब तक हम लोग उनकी रिकार्डिंग नहीं कर सके।
तू मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना
वंदनीया माताजी के लगभग 150 गीत रिकार्ड हुए हैं। माताजी हम सबको बुलाती थीं। अपने विचार बोलती थीं और आद० प्रणव जी, उपाध्याय जी आदि गीत लिखते। उन्हें जहाँ जैसा शब्द चाहिये होता वे संशोधन करातीं
और फिर गाती थीं। गाते- गाते वे एकदम भावविह्वल हो जाती थीं।
अक्सर रिकार्डिंग के समय कोई शब्द जीवंत हो उठता और वे भावावेश
में चली जातीं। फिर उन्हें अपनी सुध- बुध नहीं रहती थी। रामकृष्ण
परमहंस जी की समाधि- अवस्था के विषय में पढ़ा- सुना था पर वह
कैसी होती है, यह माताजी को देखकर समझ पाये। उस दिन फिर
रिकार्डिंग का काम आगे नहीं बढ़ता, था। जीजी कहतीं, ‘‘भाई साहब, अब तो कल ही होगा’’ और हम लोग लौट आते।
एक दिन हमारी सारी टीम नीचे उतर गई थी, मैं अकेला ही बचा था। माताजी बोलीं, ‘‘लल्लू! तू मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’
तेरा डिब्बा नहीं चल रहा
अंतिम दिनों में माताजी बीमार रहने लगी थीं। निर्णय लिया गया
कि माताजी को गर्मी के कारण बहुत परेशानी होती है। अतः उनके
कमरे में ए.सी. लगाया जाये। माताजी के कमरे में ए.सी. लगाया गया। पर वह कभी चला नहीं। उन दिनों माताजी के कमरे में किसी को जाने की अनुमति नहीं थी। ए.सी. को ठीक करने के लिये अक्सर मुझे बुलाया जाता। मैं देखता, बाकी सब ए.सी. तो ठीक चल रहे हैं! बस माताजी का ही नहीं चल रहा। एक दिन माताजी बोलीं ‘‘लल्लू, तेरा डिब्बा नहीं चल रहा।’’
मैंने नीचे का सिस्टम ऊपर फिट कर दिया पर ऊपर जाकर वह भी
नहीं चला। मैं बहुत दिनों तक इसका रहस्य खोजता रहा। बहुत दिनों
बाद एक दिन समाधान मिला कि यह तो उनकी माया थी। वह तो
ब्राह्मणोचित जीवन जीने हेतु संकल्पबद्ध थीं। अतः बच्चों की भावना
भी रख ली और अपना संकल्प भी निभाया।
गुरुजी- माताजी गुणों के भी पारखी थे।
मणि दीदी बताती हैं कि वे किसी के गुण को देखते तो उसकी
प्रशंसा करते और अन्यों को भी उस गुण को धारण करने के लिये
प्रेरित करते। उनकी निगाहें बड़ी पैनी थीं। एक बार गुरुजी किसी काम
से नीचे आये थे। उन्हें प्यास लगी तो यादव अम्माजी ने पानी पिलाया। गुरुजी गिलास देखकर बोले, ‘‘वाह! गिलास तो खूब चमक रहा है।’’ और पानी पीते- पीते ही उन्होंने उनके कमरे का निरीक्षण कर लिया। फिर एक दिन गोष्ठी में बोले, ‘‘बेटा, स्वच्छता देखनी हो तो यादव अम्मा के घर जाकर देखो। विनम्रता सीखनी हो तो, रैणा की बहू (पत्नी) से सीखो। कपड़ों की धुलाई सीखनी हो तो शारदा अम्मा से सीखो।’’ इस प्रकार वे सबके गुणों की प्रशंसा करते हुए गुण ग्राहकता सिखाते थे।
माताजी एक बार श्री चौहान जी की प्रशंसा करते हुए बोलीं, ‘‘बेटा
एक शबरी थी, जो मातंग ऋषि के आश्रम में सबके जगने से पहले ही
रास्ता बुहार देती थी, और बेटा हमारे यहाँ, यह हमारे चौहान जी हैं।’’
सब जानते हैं कि श्री चौहान जी का आजीवन यह नियम रहा। वे
रात में दो- ढाई बजे ही उठकर शान्तिकुञ्ज क्षेत्र में प्रतिदिन
झाड़ू लगाते थे।
अब तुम लोग भी भोजन कर लो
एक दिन चौके की एक बहन से चावल धोते समय हाथ से बाल्टी
फिसल गई और बहुत सारा चावल, लगभग बाल्टी भर चावल नाली में बह
गया। माताजी को पता चला तो उन्होंने देखा और सारा चावल इकट्ठा
करके भर कर लाने को कहा। फिर बोलीं, ‘‘अब इसे अच्छी तरह से धुलो फिर पकाओ। आज चौके की सब बहनें इसे ही खाएँगी।’’
माताजी का आदेश भला कौन टाल सकता था? उस चावल को अच्छे से
धोया गया और पकाया गया। बहनें सोच रही थीं कि आज नाली का चावल
खाना पड़ेगा। माताजी ने देखा चावल पक गया है। बोलीं, ‘‘छोरियो, एक थाली में थोड़ा भात परोस कर लाओ तो।’’ माताजी को वह भात परोस कर दिया गया तो वे बड़े चाव से उसे खाने लगीं और बोलीं, ‘‘बेटा!
अन्न को बरबाद नहीं करना चाहिये। उसका अपमान नहीं करना चाहिये।
इसे खाने से कोई बीमार नहीं पड़ेगा। अब तुम लोग भी भोजन कर लो।’’
किसी के मन में कोई गलत भावना न आये, इसलिये माताजी ने पहले स्वयं उस भात को खाया, फिर सबको खिलाया।
ऐसे ही सन् 1978 में जब बाढ़ आई थी, तब ब्रह्मवर्चस में पानी
भर गया था। उस समय अधिकांश परिवार ब्रह्मवर्चस में ही रहते थे।
दाल- चावल के कुछ बोरे आधे- आधे भीग गये। जब माताजी तक सब
जानकारी पहुँची तो माताजी ने कहा, ‘‘बेटा!
सबको कह दो कि कुछ दिन तक अपने- अपने घर में कोई खाना नहीं
बनायेगा। सब खिचड़ी ही खायेंगे। घी मैं यहाँ से भेज देती हूँ।’’
माताजी सबके मन की बात जान जाती थीं। एक दिन दोपहर में माताजी आराम कर रही थीं। एक बहन के मन में आया, ‘‘माताजी मोटी हैं।’’ इतने में माताजी बोलीं, ‘‘तू सोचती है, माताजी मोटी हैं? कुछ काम नहीं कर पायेंगी? बेटा, मैं अभी भी 100 लोगों का खाना बना सकती हूँ।’’ वह बहन बेचारी हैरान रह गई कि मेरे मन में विचार बाद में आया और माताजी ने जवाब उसके पहले ही दे दिया।
पहले सुबह- शाम की चाय- प्रज्ञा माताजी के चौके में ही मिलती
थी। जब भीड़ बढ़ने लगी तब परिजनों की आवश्यकता को समझते हुए छोटी
सी कैंटीन बना दी गई। उसमें चाय के साथ पकौड़ी व जलेबी आदि भी
बन जाती थी। माताजी को पता चला कि लोग- बाग अनुष्ठान में भी
भोजनालय से प्रसाद ग्रहण न कर कैंटीन में ही डटे रहते हैं। तब
माताजी ने कहा था- ‘‘बेटा, यह प्रसाद है। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर प्रसाद से बनता है। इसे जिस भाव से खाओगे, वही मिलेगा।’’
गुरुजी माताजी का दाम्पत्य जीवन एक आदर्श दाम्पत्य जीवन था। हर
एक के लिये प्रेरणा देता हुआ कि परस्पर एक दूसरे का सहयोग ही
जीवन के बड़े उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होता है। इसी में
जीवन का असली आनंद है।
परिजन तो बताते ही हैं, पर माताजी भी गोष्ठियों में बताया
करती थीं कि मथुरा में प्रारंभ के दिनों में जब माताजी सबको
भोजन आदि कराकर बरतन साफ करने बैठतीं तो गुरुजी भी उनकी मदद
करने लगते। तब माताजी उन्हें कहतीं, ‘‘आचार्य जी, आप रहने दीजिये।’’ इस पर गुरुजी कहते, ‘‘माताजी, हमारे बच्चे कैसे सीखेंगे कि पत्नी का सहयोग कैसे करना चाहिये?’’
गुरुजी कभी- कभी गोष्ठी में कहते, ‘‘बेटा, दाम्पत्य जीवन कैसा होना चाहिये, इसे हमारे जीवन से सीखना।’’
माताजी की आँख का आप्रेशन हुआ था। मैं माताजी से मिलने गई। उस
समय लगभग 11 बज रहे थे। गुरुजी उन दिनों सूक्ष्मीकरण साधना में
थे। गुरुजी भी माताजी को देखने आये थे। मुझे पता नहीं था कि
गुरुजी, माताजी के पास बैठे हैं। दरवाजा हल्का सा खुला था। मैं
जैसे ही भीतर जाने लगी देखा, गुरुजी, माताजी के पास बैठे हैं। मैं
पीछे हट गई। गुरुजी के दर्शनों का लोभ करके मैं बाहर ही खड़ी
रही, लौटी नहीं। मैंने देखा वे माताजी का हाथ थाम कर बैठे हैं।
लगभग एक घण्टा गुरुजी, माताजी का हाथ थाम कर बैठे रहे पर दोनों
में बातचीत कुछ भी नहीं हुई।
माताजी अक्सर गुरुजी को याद कर प्रवचन में बताया करती थीं, ‘‘बेटा,
दिन भर काम करके थक कर जब मैं ऊपर जाती तो गुरुजी पानी का
गिलास भर कर रखते और सीढ़ियों के मध्य तक आते थे। मेरा हाथ थाम
कर ऊपर ले जाते और बिठाते, फिर अपने हाथ से पानी का गिलास उठा
कर देते।’’ यह बताते हुए वे अक्सर रो पड़ती थीं।
‘‘सूक्ष्मीकरण साधना में जब वे गये तो मिशन के सब कार्यों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर सौंप दी। मैंने कहा, ‘‘आचार्यजी, यह सब मैं कैसे कर पाऊँगी?’’ तो बोले, ‘‘मैं जो तुम्हारे साथ हूँ।’’ जब कभी मथुरा आदि जाना पड़ता तो वे ऊपर से खिड़की में से देखते रहते थे।’’
कभी- कभी मथुरा के दिनों की याद कर बतातीं, ‘‘बेटा,
इस गायत्री परिवार को हमने और आचार्य जी ने अपने खून- पसीने से
सींचकर खड़ा किया है। मथुरा में बंदर खूब परेशान करते थे। मैं
खाना बनाती। गुरुजी परोसने में मदद करते। हाथ में लाठी भी रखते
और बंदरों को धकेलते रहते।’’
‘‘मथुरा में घर छोटा ही था। लैट्रिन-
बाथरूम भी कम थे। कभी- कभी, कोई- कोई बहन अपने छोटे बच्चों को छत
पर ही टट्टी- पेशाब करा देती। अक्सर हमें धुलाई करनी पड़ती थी।
गुरुजी पानी डालते थे और मैं झाड़ू लगाती थी। कभी- कभी मैं पानी
डालती और गुरुजी झाड़ू लगाते थे। झाड़ू की रगड़ से हाथों मे छाले
पड़ जाते और कभी- कभी खून भी आ जाता। बेटा, इस प्यार से हमने
परिवार को जोड़ा है।’’
‘‘मैं
जल्दी- जल्दी घर का सब काम निबटा कर गुरुजी के काम में मदद
करने तपोभूमि पहुँच जाती थी। गुरुजी को पत्र व्यवहार में भी मदद
करती थी। मैं पत्र पढ़ती जाती और गुरुजी जवाब लिखते जाते।’’
एक बार हम सब कार्यकर्ताओं की गोष्ठी थी। गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटा, तुम सब लोग परस्पर प्रणाम करते हो कि नहीं। रोज सुबह अपने पति के चरण स्पर्श किया करो।’’ फिर भाईयों की ओर उन्मुख होकर बोले, ‘‘तुम लोग भी पत्नी को प्रणाम किया करो। परस्पर एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। तुमको देखकर बच्चे स्वयं ही सीख जायेंगे |"
माताजी स्वावलंबन को बहुत महत्त्व देती थीं।
वे कहती थीं कि महिलाओं को जरूरत के सब काम सीखना चाहिये।
कृष्णा उपाध्याय भाभी जी बताती हैं कि जब वे शान्तिकुञ्ज आईं तब
थोड़े से ही परिवार शान्तिकुञ्ज में रहते थे। मुश्किल से 10- 12
परिवार थे। माताजी हम सबको सिलाई, कढ़ाई, बुनाई आदि सीखने के लिये
कहतीं। शुरू के दिनों में सिलाई मशीन नहीं थी तो उन्होंने सूई-
धागे से भी सिलना सिखाया। फिर सिलाई मशीनें भी मँगाई गईं। कौशल्या
जीजी सबको सिलाई सिखाती थीं। माताजी सबका ध्यान रखती थीं, कौन
कितना सीख रहा है। मैंने सिलना तो सीख लिया था पर, कटिंग करने में मुझे डर लगता था। एक दिन माताजी ने कौशल्या जीजी से कहा कि अब तुम उपाध्याय की बहू को कटिंग करके नहीं दोगी। वह खुद कटिंग करेगी फिर सिलकर मुझे दिखायेगी।
माताजी ने बच्चों के कपड़े- नेकर, कमीज़ आदि हम लोगों से सिलवाये। मैंने डरते- डरते कटिंग की और सिलाई करके माताजी को दिखाया। जब हम लोग उन्हें दिखाने गये तो बोलीं, ‘‘देखो
अब तुम्हारे इतने पैसे बच गये न। नहीं तो अभी इतने पैसे दर्जी
को देने पड़ते। अब इस बचत से तुम लोग दूसरी आवश्यक चीजें खरीद
सकते हो।’’
इस प्रकार माताजी ने स्वावलंबन के साथ- साथ मेहनत करना, बचत
करना और कम पैसे में भी कुशलतापूर्वक अपनी गृहस्थी चलाने के गुर
हम लोगों को सिखाये।
गुरुजी महिलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील थे।
समाज में फैली कुप्रथाओं और संकीर्ण सोच आदि के कारण महिलाओं
की दासता जैसी स्थिति का ध्यान करने मात्र से उन्हें असहनीय
वेदना होती थी। उनकी दयनीय स्थिति पर वे बहुत आहत होते थे। हम
लोग जिनने उनका सान्निध्य पाया है, देखा है। जब कभी वे महिला
उत्पीड़न संबंधी कोई समाचार पढ़ लेते थे, तब तो आकुल- व्याकुल हो
जाते थे। उनकी आँखों में आँसू आ जाते थे। कहते थे, ‘‘कब, मातृ शक्ति का उद्धार होगा?’’ उनके साहित्य में भी उनकी यह पीड़ा देखने को मिलती है।
पंडित लीलापत शर्मा जी ने भी एक बार ऐसा ही एक संस्मरण
सुनाया था कि गुरुजी को बहनों का कष्ट बिलकुल सहन नहीं होता
था। वे कहते थे, ‘‘जब तक मातृशक्ति रोती रहेगी, समाज का उद्धार संभव नहीं है।’’
उन्होंने बताया, ‘‘एक बार हम और गुरुदेव असम की यात्रा पर थे। ट्रेन में एक महिला बहुत बड़ा घूंघट
ओढ़े बैठी थी। वह बहुत दुखियारी जान पड़ रही थी, क्योंकि वह
लगातार रोये जा रही थी। गुरुजी की दृष्टि से वह भला कैसे ओझल
रहती? एक स्टेशन पर जब उसके साथ के परिजन नीचे उतरे तो गुरुजी
ने उसे पानी पिलाया और चना मुर्रा
खाने को दिया। उसका कष्ट पूछा पर वह अपने मुख से कुछ बता
नहीं पाई। गुरुजी तो अंतर्यामी थे, उसे सांत्वना दी। बोले, ‘‘रो मत बेटी, तेरा कष्ट दूर होगा।’’ साथ ही कहा, ‘‘यह घूँघट खोल दे।’’
उस महिला ने बस इतना ही कहा, ‘‘यह सब मुझे मार डालेंगे।’’ तब गुरुजी ने कहा, ‘‘मैं उन्हें समझाता हूँ।’’
महिला के परिजन जब ट्रेन पर चढ़े तो गुरुजी ने उन्हें समझाया। ‘‘मनुष्य-
मनुष्य के बीच क्या परदा? परदा तो आँखों का होता है। शिष्ट
व्यक्ति शालीन वैसे भी रहता है अन्यथा घूँघट से शर्म ढकी नहीं
रह सकती आदि- आदि।’’
गुरुजी की बात का उन लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने
वहीं पर उसका पर्दा खुलवा दिया। इस प्रकार रास्ते में भी गुरुजी
जनकल्याण करते चलते थे।
गोष्ठियों में अक्सर भाईयों को डाँट पिलाते थे, ‘‘तू गर्म- गर्म रोटी खाएगा और छोरी तेरे लिये बैठी रहेगी? बेटा! ये गर्म रोटी माँगे तो मुझे बताना।’’ बहनों को भी उन्होंने खूब आगे बढ़ाया। सामान्य बातचीत में भी वे बहनों को खूब प्रोत्साहन देते रहते थे।
ऐसे ही एक दिन शायद वे कुछ परेशान थे। कोई खबर पढ़ ली होगी। उस दिन कार्यकर्ताओं की गोष्ठी में भाईयों को डाँटते हुए बोले, ‘‘अच्छा! गरम रोटी खाना है? गरम रोटी खाना है?’’ फिर बहनों की ओर उन्मुख होकर बोले, ‘‘कहना अभी देती हूँ। फिर पहले खुद खा लेना। अच्छे से चबाना।’’ गुरुजी ने लगभग 5 मिनट चबाने की नकल की और फिर बोले, ‘‘और मुँह में डाल देना। कहना, तुम चबाना भी मत। इतना कष्ट भी क्यों करते हो?’’
उन दिनों कानपुर का वह दिल दहला देने वाला समाचार सुर्खियों
में था। जब एक ही परिवार की तीन लड़कियों ने दहेज की ऊँची
माँगों से आहत होकर आत्महत्या कर ली थी। तब गुरुजी ने कहा था, ‘‘यदि सब लड़कियाँ दहेज लेकर शादी करने से इंकार कर दें, तो यह दहेज का दानव वर्ष भर में खतम हो जायेगा।’’
एक दिन माताजी से एक लड़की (माधवी) ने प्रश्न किया, ‘‘माताजी विधवा औरतों को बिंदी आदि नहीं लगाना चाहिये?’’ उसके इस प्रश्न पर माताजी बोलीं, ‘‘बेटा यह गलत धारणा है। सुहाग कभी मरता नहीं है। इसलिये बिंदी लगाना नहीं छोड़ना चाहिये।’’
जयपुर के श्री वीरेंद्र
अग्रवाल जी बताते हैं कि मैं गुरुजी के पास बैठा था। गुरुजी
ने किसी काम से अल्मारी खोली। मैंने देखा उनकी अल्मारी में
माताजी की तस्वीर रखी है। मैं कुछ पूछता इससे पहले ही गुरुजी
बोले, ‘‘बेटा, मैं माताजी को रोज प्रणाम करता हूँ। अपने सब कार्यों के लिये मैं माताजी से ही शक्ति लेता हूँ।’’
देखो! देखो! डॉक्टर लोग आ गये।
1986 में हरिद्वार में कुंभ लगने वाला था। एक दिन गुरुजी ने ब्रह्मवर्चस की पूरी टीम को बुलाया और बोले, ‘‘देखो!
कुंभ लगने वाला है। इस समय हिमालय की बड़ी- बड़ी हस्तियाँ भी
आयेंगी। ऋषि, मनीषी, तपस्वी सब किसी के भी रूप में आ सकते हैं।
तुम लोग ऐसा करना कि जितने भी लड़के हो, सब हर आने वाले के
जूते साफ करना। रगड़- रगड़ कर ठीक से साफ करना। अच्छे से चमकाना,
बिल्कुल धूल न रहे।’’ फिर बहनों की ओर मुखातिब होकर बोले, ‘‘लड़कियो! तुम सब लोग डॉक्टरों वाला कोट पहन लेना और गले में स्टै्रथोस्कोप टाँग लेना। जो भी आये, उसको पूरा ब्रह्मवर्चस दिखाना और बढ़िया से सब बताना। अच्छे से समझाना।’’
बहनों ने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी, हम यह सब कैसे करेंगे?’’ गुरुजी बोले ‘‘बेटा, सब हो जायेगा।’’
हम सब गुरुजी के कहे अनुसार सुबह से ही तैयार हो जाते। भाई लोग बहनों को खूब चिढ़ाते भी रहते, ‘‘देखो! देखो! डॉक्टर लोग आ गये।’’ एक दिन 10- 12 लोगों की टीम आई। डॉ. दत्ता भाई साहब ने मुझे बुलाया और कहा, ‘‘मणि जीजी, आप इन्हें गाइड करना।’’ मैं उनसे बोली, ‘‘भाई साहब, मुझे कुछ नहीं आता है। आप प्लीज़ मुझे माफ करिये। मुझे हिन्दी भी ठीक से बोलनी नहीं आती है। मैं नहीं कर पाऊँगी। आप ही कर दीजिये।’’ दत्ता जी बोले, ‘‘आपको गुरुजी पर भरोसा नहीं है क्या?’’ और मुस्कुराते हुए बोले, ‘‘हम तो भई अपना काम करेंगे। जूता साफ करेंगे।’’ मैं बोली, ‘‘गुरुजी पर तो भरोसा है।’’ वे बोले, ‘‘बस, फिर आप ही गाइड करेंगी।’’
जैसे ही वो लोग आए। मैंने उन्हें एक घण्टा गाइड किया। पूरा
ब्रह्मवर्चस दिखाया। मैंने उन्हें क्या- क्या बताया, मुझे खुद नहीं
पता। अंत में उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘आपने कहाँ से मैडिकल किया है? आप अपना परिचय दीजिये’’। मैं थोड़ा घबराई कि अब क्या बोलूँ? मैंने अपना थोड़ा बहुत परिचय दिया और फिर उनसे पूछा, ‘‘आप सब कहाँ से आये हैं’’? उन्होंने बताया ‘‘हम सब लखनऊ के मेडिकल कॉलेज से आये हैं। यह हमारी पूरी डॉक्टरों की टीम है’’।
मैंने एक मुहावरा सुना था, ‘सिर पर पैर रख कर भागना’ पर उसका अनुभव मुझे उस दिन हुआ। मुझे कुछ सूझा नहीं। मैंने उनसे कहा, ‘‘मुझे कुछ काम है, आगे की बात आपको डॉक्टर दत्ता बतायेंगे’’ और मैं सिर पर पैर रखकर भागी। आज भी, मैं जब उस घटना को याद करती हूँ, तो गुरुजी के शब्द याद आते हैं, ‘‘बेटा, तुम बस वह करो जो मैं कहता हूँ। मैं जिस चेतना का अवतरण करना चाहता हूँ, वह मैं करा दूँगा’’।
श्री ब्रजमोहन गौड़
उनसे क्या जुड़ा, धन्य हो गया
ग्वालियर में शिवरात्रि पर्व 1969 में पूज्य गुरुदेव के द्वारा
गायत्री मंदिर में गायत्री माता की प्राण प्रतिष्ठा हुई। मैं यह
सुनकर वहाँ गया था कि एक संत आ रहे हैं। मैं गुरु की खोज
में था। मैंने पूछा कि आचार्यजी कहाँ हैं? एक परिजन ने बताया कि
कमरे में हैं। उनके पास दो- तीन महिलाएँ बैठी थीं। उनमें से एक
महिला ने पूछा कि गुरुजी!
कल्याण में शंकराचार्य ने लिखा है कि महिलाओं को गायत्री नहीं
जपनी चाहिए। गुरुदेव ने कहा बेटी, शंकराचार्य ने वेद नहीं लिखे
हैं। मैंने वेदों का भाष्य किया है। महिलाओं को गायत्री जप करना
चाहिए। मैं सुनकर कमरे से बाहर आया। थोड़ी देर बाद एक आवाज सुनाई
पड़ी, जिन्हें पूज्य गुरुदेव से दीक्षा लेनी हो, वे यज्ञशाला में आ
जाएँ। मैं बहुत वर्षों से गुरु की खोज में था। अनेक साधु- संतों
के संपर्क में आया पर अन्तःकरण ने कभी किसी को गुरु मानने की
स्वीकृति प्रदान नहीं की। उस दिन हृदय मचल उठा। अनुभूति हुई कि
गुरुदीक्षा इसी क्षण ले लेनी चाहिए। मैं यज्ञशाला में जाकर बैठ
गया और पूज्य गुरुदेव से दीक्षा ले ली।
अब पूज्य गुरुदेव का सूक्ष्म शक्ति प्रवाह उपासना के द्वारा
प्रेरणा देता रहा। धीरे- धीरे तन- मन सब पूज्यवर के विचारों में
रंगता गया। घर बैठे- बैठे ही परिव्राजक बन गया। 1974 में
शान्तिकुञ्ज पहुँचा। तब पूज्य गुरुदेव से साक्षात्कार हुआ। उन्होंने
पूछा, ‘‘क्या काम करते हो?’’ मैंने कहा, ‘‘नौकरी।’’
‘‘कितने पैसे मिलते हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘250 रुपये।’’ उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारा वेतन दुगुना करा देते हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘रुपये नहीं चाहिए।’’ उन्होंने कहा कि व्यापार करा देते हैं। मैंने कहा, ‘‘वह मैं नहीं कर सकता।’’ उन्होंने कहा, ‘‘जमीन- जायदाद दिलवा देते हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं चाहिए।’’ उन्होंने कहा, ‘‘सोना- चाँदी दिलवा देते हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘हमें नहीं चाहिए।’’
पूज्य गुरुदेव नाराज होकर बोले, ‘‘हमें
नहीं जानते? हमने मूँगफली बेचने वालों को लखपति बना दिया है। हम
हिमालय से आए हैं। अभी हमने अपनी तपस्या का चार आने खर्च किया
है, बारह आने अभी हमारी मुठ्ठी में है।’’ फिर वे बोले, ‘‘तुम कुछ माँगते क्यों नहीं?’’ मैंने कहा, ‘‘कुछ नहीं चाहिए।’’ उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हें संसार में कुछ नहीं चाहिए?’’ मैंने कहा, ‘‘कुछ नहीं चाहिए।’’ उन्होंने कहा, ‘‘फिर तुम्हें ब्राह्मण फकीर बना दें।’’ मैं चुप रहा। उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, फकीर बनने से डर लगता है?’’ मैं चुप रहा। उन्होंने कहा, ‘‘फकीर
बनने से आदमी डरता है। सोचता है, रोटी कहाँ से मिलेगी? पर बेटा
भगवान् अपने कुत्ते को भी रोटी खिला देता है और भक्त को तो
स्वयं हाथों से खिलाकर खाता है।’’ मैंने कहा, ‘‘बना दीजिए।’’
प्रतिवर्ष शान्तिकुञ्ज आने- जाने का क्रम चलता रहा। जब विदाई होती तब तिलक लगाते समय कहते, ‘‘जा रहा है, जाना- आना बंद कर। जा रहा है तो यहाँ आना मत। आए तो कभी यहाँ से जाना मत।’’
एक बार 1980 दिसम्बर में काँवट, जयपुर, राजस्थान में श्री वीरेन्द्र अग्रवाल जी के यहाँ पूज्य गुरुदेव शक्तिपीठ का उद्घाटन करने पहुँचे। मैं और अग्रवालजी प्रातःकाल उनके दर्शन करने गये। प्रणाम करने के बाद गुरुदेव ने कहा, ‘‘अब
तूने यदि नौकरी नहीं छोड़ी तो हजार वर्ष तक मेरा शाप तुझे
खाएगा, और नौकरी छोड़ देगा तो हजार वर्ष तक मेरा आशीर्वाद तुझे
फलेगा। तू नहीं देखता, बेटा, हमने तूफान चला दिया है।’’
मैं मार्च 1981 में शान्तिकुञ्ज आया। गुरुदेव बोले, ‘‘नौकरी छोड़ दी।’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं’’। उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, यहीं से अपना इस्तीफा भेज दो।’’
मैंने नौकरी छोड़ दी। परिवार में परिजनों का बहुत विरोध था।
मित्र परिजन भी बहुत विरोध में थे, पर अन्तरात्मा ने कहा, ‘‘पूज्य गुरुदेव की आज्ञा मानने में ही कल्याण है।’’ मैं गुरुदेव- माताजी की छत्रछाया में रहने लगा।
कुम्हार जैसे बर्तन तैयार करता है, वैसे ही पूज्य गुरुदेव का
स्नेह- प्यार और डाँट मिलने लगी। धीरे- धीरे मिशन के कार्यों को
करने की जिम्मेदारी बढ़ती गई। शान्तिकुञ्ज में ब्राह्मण जीवन जीने
का प्रशिक्षण और अभ्यास होने लगा। मन में तृप्ति, तुष्टि, शांति
आने लगी। जीवन की सार्थकता समझ में आने लगी।
इतने से कम में हमारा गुरु हमें नहीं मिला
बसंत
पर्व 1990 में प्रातः, पूज्य गुरुदेव के पास गोष्ठी चल रही थी।
गोष्ठी के बाद उन्होंने मुझे रोक लिया। गुरुदेव कहने लगे, ‘‘तूने मुझे बहुत धोखा दिया है।’’ मैंने कहा, ‘‘समझ नहीं पाया।’’ उन्होंने कहा, ‘‘
तू सबसे कहता है कि मैंने गुरुदेव के लिए नौकरी छोड़ दी पर
तेरे दिमाग में तेरे बीबी- बच्चे बैठे रहते हैं। तू हमारा नहीं है’’। मैं चुप हो गया।
उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से मेरे अंतस
में झाँक लिया था। मैं दुःखी हुआ और धर्मपत्नी से चर्चा करते
हुए कहा कि यह जीवन तो बेकार हो गया, क्योंकि आज गुरुजी ने कहा
कि हमारे दिमाग में बच्चों की चिन्ता रहती है।’’
फिर दोपहर में मैं अपनी पत्नी के साथ गुरुदेव के पास पहुँचा। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ मैंने कहा कि मेरे दिमाग �