ऋषि युग्म की झलक-झाँकी-1

पूज्य गुरुदेव- विशिष्ट व्यक्तियों की दृष्टि में

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सिद्ध गोदड़ी महाराज की भविष्यवाणी

नन्दी चौधरी, हल्द्वानी

   1970 में अपनी बहिन के पास जोशीमठ गयी थी। अक्टूबर माह में दीपावली के दिन थे। विदित हुआ कि धौलीगंगा- नीतिघाटी में तपोवन के समीप एक सिद्ध गोदड़ी महाराज रहते हैं। महाराज अपना अधिकांश समय तपस्या में एक गुफा में व्यतीत करते थे। सौभाग्यवश वहाँ जाने पर हमें उनके दर्शन हो गये। कहा जाता है कि सिद्ध महाराज दो सौ वर्ष से भी अधिक की अवस्था के हैं। उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘बेटी, तुम लड़की नहीं लड़का हो। कलियुग की अवतार शक्ति आँवलखेड़ा में अवतरित हो चुकी है। अभी दुनियाँ को पता नहीं है। 15 वर्ष पश्चात् तुम उनके दर्शन करोगी।’’

  समय के साथ- साथ मैं इस बात को भूल गयी। वर्ष 1985- 86 में नैतिक शिक्षा के प्रशिक्षण कार्यक्रम में मुझे शान्तिकुञ्ज हरिद्वार जाने का अवसर प्राप्त हुआ। पूज्यवर के एवं वंदनीया माताजी के दर्शन किये, और अल्मोड़ा वापस आ गये। किन्तु उस समय सिद्ध महाराज की बात का कुछ ध्यान नहीं आया। वर्ष १९८९ में बसंत पर्व पर वंदनीया माताजी का प्रवचन सुना। प्रवचन में जब गुरुदेव के जन्म स्थान, शिक्षा इत्यादि के संबंध में सुना तो अनायास ही ‘सिद्ध बाबा गोदड़ी महाराज’ की बात याद आ गयी। मन ने कहा, ‘‘बस यही भगवान् हैं’’ और गुरुदेव एवं माताजी के प्रति श्रद्धा दृढ़ हो गयी। आज भी मैं प्रतिपल उनकी प्रेरणा व जीवन में शांति और सुरक्षा का अनुभव करती हूँ।

देवराहा बाबा

  देवराहा बाबा भारत के मान्य संत रहे हैं। बड़े- बड़े उद्योगपति एवं राजनेता उनका आशीर्वाद पाने के लिए लालायित रहते थे। जब कभी कोई गायत्री परिवार के परिजन उनके दर्शन करने पहुँचते थे, तो वे बड़ी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्हें खूब प्रसाद और आशीर्वाद देते थे। पू. गुरुदेव के बारे में पूछने पर वे बड़े भावभरे सम्मानयुक्त शब्द कहा करते थे। जैसे-

श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी

  एक बार मैं और मेरा एक मित्र के. पी. श्रीवास्तव देवराहा बाबा जी से मिलने गये। हम लोग बाबाजी के मचान तक पहुँच कर उनके एक शिष्य से बोले कि स्वामी जी को कहें कि पंडित श्रीराम शर्मा जी के शिष्य आये हैं। आपको प्रणाम करना चाहते हैं।

संदेश मिलने पर स्वामी जी ने दर्शन दिये और बोले- ‘‘अरे! पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के बच्चों को हमारा प्रणाम...प्रणाम...प्रणाम...। हमने मन ही मन सोचा स्वामी जी हमें प्रणाम क्यों कह रहे हैं?’’

  तब तक स्वामी जी स्वयं ही बोले, ‘‘आचार्य जी के शिष्य हो तुम। महाकाल के शिष्य हो तुम। युग देवता के शिष्य हो तुम। सामान्य नहीं हो। हम प्रणाम कर रहे हैं, तो सोच कर ही कर रहे हैं। तुम्हारे गुरु श्रीराम नहीं स्वयं राम हैं।’’

हम लोगों को वहाँ तक जाते- जाते भूख लग आई थी। सो मन में ठान कर गये थे कि संतों के पास खूब फल आदि रहते हैं। कुछ तो खाने को मिलेगा ही। बाबा जी की बात सुनने के पश्चात् हमारा ध्यान भूख की ओर गया। तब तक बाबा जी बोले- ‘‘इनको भूख लगी होगी। इनको खाने को दो।’’ आदेश पाकर उनका शिष्य संतरे ले आया और दो- दो संतरे हम लोगों को दिये। इस पर बाबा ने कहा, ‘‘दो- दो क्या देते हो? हाथ भर- भर कर दो।’’ हम लोग झोली भर- भर कर प्रसाद लेकर आये और पेट भर कर संतरे खाये।

कुछ दिन बाद हम पुनः उनसे मिलने गये, तब हमने उनसे कहा, ‘‘कुछ पूज्य गुरुदेव के बारे में बताइये।’’ तो वे बोले- ‘‘तुम उनके पास से आये हो! तुम बताओ। मैं क्या बताऊँ?’’ हमने कहा- ‘‘हमारी दृष्टि बहुत स्थूल है। आपकी दृष्टि सूक्ष्म है। आप उनके बारे में हमें समझाएँ।’’ तो वे बोले, ‘‘जिनका मैं अपने हृदय में निरंतर ध्यान करता हूँ, वे हैं तुम्हारे गुरु, आचार्य श्रीराम।’’

  बाबा के उक्त कथन में कितनी गहराई है। यह कौन समझ पाता? संत सहज ही दूसरों को सम्मान देते रहने के अभ्यस्त होते हैं। इसी संत सुलभ- शिष्टाचार के अन्तर्गत लोग उनकी उक्त अभिव्यक्तियों को लेते रहे।

एक और तथ्य है, पूज्य गुरुदेव के शरीर छोड़ने के कुछ दिन बाद ही बाबा ने भी शरीर छोड़ दिया। इसे भी एक संयोग कहा जा सकता है, लेकिन निम्र संस्मरण से उनके कथन और परस्पर संबंधों की गहराई प्रकट हो जाती है।

   श्रीराम चले गए अब मैं शरीर रखकर क्या करूँगा- बाबा के शरीर छोड़ने के बाद उनके एक अनन्य शिष्य आई. ए. एस. अधिकारी जब पहली बार शान्तिकुञ्ज पहुँचे तो चर्चा के दौरान उन्होंने पूज्य गुरुदेव द्वारा शरीर त्याग की तिथि पूछी। हमने बताया, पूज्य गुरुदेव ने 2 जून 90 को शरीर छोड़ा। सुनते ही उनके मुख से सहज ही निकल पड़ा, ‘‘देखो यही बात थी।’’ पूछने पर उन्होंने अपना संस्मरण सुनाया-

बाबा के देह त्यागने से कुछ दिन पहले वे बाबा से मिले थे, तो बातचीत के दौरान बाबा बोले, ‘‘अब शरीर रखने का मन नहीं है।’’ हमने पूछा, ‘‘क्यों महाराज?’’ तो अपने हाथ की खाल पकड़कर खींचते हुए कहा- ‘‘अब ये चाम रखकर क्या करेंगे? आत्मा तो चली गई।’’ मैंने कहा, ‘‘महाराज, बात समझ में नहीं आई? आत्मा कैसे और कहाँ चली गई?’’ तो बाबा बोले- ‘‘अरे! वे श्रीराम चले गए न... अब ये शरीर रखकर क्या करूँगा?’’ और कुछ ही दिनों बाद 19 जूप 1990 को बाबा ने शरीर छोड़ दिया।

वन्दनीय है यह दिव्य प्रेम और वन्दनीय हैं उसे धारण करने वाले महापुरुष।

महात्मा आनन्द स्वामी सरस्वती

  महात्मा आनन्द स्वामी आर्य समाज के सर्वमान्य संत रहे हैं। पूज्य गुरुदेव के साथ उनके बड़े गहरे आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं। जब कभी दोनों की प्रत्यक्ष भेंट होती तो श्री रामचरित मानस की चौपाई ‘मुनि रघुवीर परस्पर नवहीं’ चरितार्थ होती दिखती थी।

स्वामी जी पूज्य गुरुदेव से उम्र में 25 वर्ष बड़े थे। पूज्य गुरुदेव उन्हें पितृ तुल्य कहकर प्रणाम करते थे। गुरुदेव के प्रति उनके भाव बड़े गहरे थे। इसलिए वे स्वयं उम्र में बड़े एवं सन्यासी वेष में होते हुए भी उम्र में छोटे और गृहस्थ वेष वाले आचार्य श्री को प्रणाम करते थे। पूज्य गुरुदेव उन्हें मना करें तो बड़े अधिकारपूर्वक कहते थे, ‘प्यारे आचार्य जी! मुझे रोकिए मत, यह मेरी श्रद्धा का प्रश्र है।’

  उनका पूज्य गुरुदेव को नमन करना केवल सामने का शिष्टाचार ही नहीं था, उनका स्थाई भाव था। जिसे वे उनकी पीठ पीछे भी स्पष्ट शब्दों में व्यक्त कर दिया करते थे। जैसे-

कई दशक पूर्व कानपुर के फूलबाग में आर्य समाज का कोई बड़ा समारोह हो रहा था। वहाँ किन्हीं विद्वान ने देश के सांस्कृतिक ह्रास का जिक्र करते हुए कह दिया कि ‘आज व्यक्तित्व का धनी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता, जिसे श्रद्धा से नमन करने का भाव बने।’ इस पर महात्मा आनन्द स्वामी जी ने बिना किसी लाग- लपेट के पू. गुरुदेव का संदर्भ देते हुए कहा, ‘‘ऐसा न कहें। आज भी ऐसा व्यक्ति है, जो मुझसे उम्र में काफी छोटा है और गृहस्थाश्रम में है, फिर भी मैं उसे श्रद्धा सहित नमन करता हूँ।’’

  आर्य समाज के शताब्दी समारोह के दौरान दिल्ली का ही प्रसंग है। आर्य समाज के कुछ वरिष्ठ प्रतिनिधियों से स्वामी जी की चर्चा चल रही थी। विद्वानों ने कहा कि- आर्य समाज को अब धर्मतंत्र के माध्यम से जन चेतना को जागृत् करने का अभियान प्रारंभ करना चाहिए। महात्मा जी मुस्कुराए और बोले- ‘धर्म तंत्र से लोक शिक्षण की बात कर रहे हो? यह विद्या सीखनी है, तो आचार्य श्रीराम के चरणों में जाकर बैठो।’

  प्रस्तावकर्त्ता आर्य समाजी विद्वान, पूज्य आचार्य श्री द्वारा गायत्री माता के चित्र और मूर्तियाँ स्थापित कराए जाने से सहमत नहीं थे। महात्मा आनन्द स्वामी की बात को काटते कैसे? बात को घुमाकर बोले, ‘‘जी हाँ! आचार्य जी ने इस दिशा में बड़ा सराहनीय काम किया है, लेकिन वे गायत्री की मूर्ति का समर्थन करते हैं।’’ स्वामी जी ने तत्काल उत्तर दिया, ‘‘अरे! बच्चों की आस्था जगाने के लिए प्रतीक रख देते हैं तो क्या बुरा करते हैं?’’ यह प्रसंग महात्मा आनन्द स्वामी जी ने हरिद्वार- सप्तऋषि क्षेत्र स्थित व्यास आश्रम में बड़ी प्रसन्नमुद्रा में पूज्य गुरुदेव के सामने स्वयं सुनाया था।

   गुरुदेव भी आध्यात्मिक दृष्टि से महात्मा आनन्द स्वामी जी के बारे में यह कहते रहे, ‘‘उनके साथ महात्मा शब्द जुड़ना सार्थक है।’’ इसीलिए वे स्वामी जी को सम्मान देने में अपनी ओर से पहल किया करते; किन्तु स्वामी जी पूज्य गुरुदेव के दिव्य स्वरूप को समझकर लौकिक दृष्टि से स्वयं से आयु में छोटे और गृहस्थ होते हुए भी उनको श्रद्धापूर्वक नमन करते थे। पूज्य गुरुदेव के प्रति उनका दृष्टिकोण कैसा था, यह तथ्य निम्रांकित दो प्रसंगों को एक साथ समझने से स्पष्ट हो सकता है। शान्तिकुञ्ज के बड़े भाई बताते हैं कि-

एक बार स्वामी जी हरिद्वार प्रवास के दौरान शान्तिकुञ्ज पधारे। शिविरार्थियों के बीच पू. गुरुदेव उन्हें स्वयं लेकर पहुँचे। दोनों साथ- साथ मंच पर विराजे थे। स्वामी जी ने उद्बोधन के क्रम में अपनी उत्तराखण्ड यात्रा का प्रसंग सुनाया। ‘‘हम हिमालय यात्रा पर गये थे। प्रातः स्नान, ध्यान के बाद पर्वतों का हिमाच्छादित मनोहारी दृश्य देख रहे थे। गंगोत्री से ऊपर जाते समय देखा कि एक जगह हिमाच्छादित क्षेत्र के बीच एक चट्टान ऐसी है, जिस पर बर्फ नहीं जमी थी। मैंने गाइड से पूछा कि इसका क्या कारण है? गाइड ने पदार्थ विज्ञान के अनुसार कुछ तर्क देने का प्रयास किया, जो मेरे गले नहीं उतरा। मैंने कहा यह बचकानी बातें छोड़ो, कोई ठोस बात पता हो तो बताओ।

  तब गाइड ने बताया कि ठोस बात क्या है, यह तो नहीं जानता; लेकिन इस क्षेत्र की मान्यता यह है कि इस स्थान पर कभी शिव जी ने तप किया था, इसलिए यहाँ कभी बर्फ नहीं जमती, चाहे जितना हिमपात होता रहे। सुनकर मैंने उस स्थान को ध्यान से देखकर कहा, ‘‘वहाँ चल सकते हो?’’ गाइड दुर्गम क्षेत्र कहकर कतराया। कुछ हमारे प्रभाव के कारण एवं कुछ धन के लालच से आग्रह करने पर वह तैयार हो गया। दो घंटे के कठिन परिश्रम के बाद किसी तरह हम वहाँ पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर मैं ॐ का ध्यान करने बैठा तो मुझे आचार्य श्री व माताजी दिखाई दिये। मुझे आश्चर्य हुआ, मैंने फिर ध्यान करने का प्रयास किया, तो मुझे फिर वहाँ आचार्य जी और माताजी की उपस्थिति का आभास हुआ। मेरे बच्चो! मेरी कुड़ियो! तुम लोग समझ सकते हो कि आचार्य जी कौन हैं?’’

   श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी अपनी आँखों देखे संस्मरण बताते हुए कहते हैं कि एक बार महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती जी हरिद्वार आये हुए थे और व्यास आश्रम में ठहरे थे। गुरुजी ने मुझसे कहा, ‘‘जा शिवप्रसाद, देखकर आ तो महात्मा जी आश्रम में हैं कि नहीं।’’ मैं व्यास आश्रम गया। स्वामी जी मुझे देखते ही बोले, ‘‘आचार्य जी को बोल देना, आनंद स्वामी नहीं है.., यहाँ नहीं है। तू नहीं बोलेगा तो वो यहाँ आ जायेंगे.., मेरे पास। (वे उनके समय को बहुत महत्त्व देते थे और अक्सर स्वयं ही गुरुदेव से मिलने शान्तिकुञ्ज आ जाया करते थे।) फिर मुझे प्रायश्चित स्वरूप अनुष्ठान करना पड़ेगा।’’ इतने में हाथ में फलों का टोकरा लिये हुये गुरुजी स्वयं ही पहुँच गये। महात्मा आनंद स्वामी उनके चरण छूने के लिये आगे बढ़े। गुरुजी ने तुरंत अपने पाँव पीछे समेट लिये और उनके चरण स्पर्श करने के लिये आगे बढ़े। इस पर महात्मा जी सिद्धासन लगा कर बैठ गये और बोले, ‘‘देखो आचार्य जी, आप पाँव नहीं पड़ने दोगे तो लो, हम सिद्धासन लगा कर बैठ गये।’’

गुरुदेव बोले, ‘‘बाबा, आप ऐसी जि़द क्यों करते हो? आपने तो हठ योग की साधना यहीं पर शुरु कर दी।’’ महात्मा जी बोले, ‘‘मैं तो हूँ ही हठ योगी।’’ हार कर गुरुजी ने पाँव सामने किये। उन्होंने तुरंत प्रणाम किया। गुरुदेव ने भी तुरंत बिना एक पल गँवाये महात्मा जी को प्रणाम किया। इस पर महात्मा जी बोले, ‘‘अब क्या? अब क्या? अब तो हम जीत ही गये।’’

   इस प्रकार दोनों संतों में परस्पर प्रणाम के लिये अक्सर होड़ रहती थी। महात्मा जी शान्तिकुञ्ज आते, तब भी कौन पहले चरण स्पर्श कर ले। दोनों संत इसी प्रयास में रहते। कभी- कभी गुरुजी उनसे परिहास भी करते, ‘‘स्वामी जी, आप तो सन्यासी हैं। हम आपके शिष्यों को बता देंगे कि आप एक गृहस्थ को चरण स्पर्श करते हैं।’’ तब स्वामी जी मुस्कुराते हुए कहते, ‘‘आचार्य जी, आप कितना भी छिपायें पर हमने आपको पहचान लिया है।’’

माँ आनंदमयी

  एक बार गुरुजी- माताजी रिक्शा में बैठ कर कहीं जा रहे थे। मेरे मन में आया कि मैं (श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी) भी देखूँ गुरुजी कहाँ जा रहे हैं? मैं साईकिल पर उनके पीछे- पीछे हो लिया। थोड़ा डर भी लग रहा था कि कहीं देख लिया तो। पर मैं चलता गया। देखा तो वे माँ आनंदमयी के आश्रम में पहुँचे हैं। मैं थोड़ा दूर में रहकर देखता रहा। मैंने देखा माँ आनंदमयी उन्हें देखते ही प्रसन्नता से भर गईं और बोलीं, ‘‘आईये, आईये। माताजी- पिताजी, आईये।’’ गुरुजी बोले, ‘‘माँ तो आप हैं।’’ इस पर वे बंगाली भाषा में बोलीं, ‘‘आमी जानी, के बाबा के माँ।’’ मैंने केवल इतना ही देखा कि उन्होंने गुरुजी- माताजी के चरण पखारे और फिर गुरुजी- माताजी को भीतर ले गईं। अब भीतर तक तो मैं जा नहीं सकता था, इसलिये बाहर से ही लौट आया।

राज्यपाल महामहिम चेन्ना रेड्डी

   हिमालय से विशेष तप शक्ति लेकर गुरुजी ने शान्तिकुञ्ज लौटकर देव संस्कृति के अभियान, 21 वीं सदी उज्जवल भविष्य को कार्यरूप देने हेतु प्राण- प्रत्यावर्तन सत्र आरम्भ किये थे। इन्हीं में से एक सत्र में भाग लेने का अवसर मुझे भी मिला। इसी बीच एक दिन उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम चेन्ना रेड्डी शान्तिकुञ्ज पधारे। उनके आगमन पर शान्तिकुञ्ज में एक सभा का आयोजन हुआ। गुरुदेव ने देव संस्कृति की मीमांसा करते हुए उसके वर्तमान विकृत स्वरूप की जो व्याख्या की, उसकी दयनीय दशा पर बोलते हुए स्वयं गुरुदेव कई बार सजल- नयन हो गये थे। हमने देखा, उनका विद्वतापूर्ण विवेचन और भावी योजना सुनकर, स्वयं राज्यपाल महोदय भी सजल- नयन हो गये थे। अपने धन्यवाद भाषण में राज्यपाल महोदय ने उनके भाष्य को सराहा व कहा कि आज मैं अपने जीवन में प्रथम बार एक महान्, संत, तपस्वी और भारतीय संस्कृति के सच्चे उपासक के दर्शन कर पाया हूँ। इसके बाद वे सदा के लिए गुरुजी के अनुयायी बन गये।

श्री निरंजन नाथ आचार्य

  श्री निरंजन नाथ आचार्य का व्यक्तित्व अनोखा था। पूज्य गुरुदेव जब हिमालय से लौटकर शान्तिकुंज रहने लगे तो वे अक्सर उनसे मिलने हरिद्वार पहुँच जाया करते थे। उस समय वे विधानसभा अध्यक्ष थे। श्री हरदेव जोशी मुख्यमंत्री थे और श्री भैरोसिंह शेखावत विरोधी दल के नेता थे। एक बार वे अपनी कार में अपने साथ श्री जोशी जी एवं शेखावत जी दोनों को एक साथ बिठाकर पूज्य गुरुदेव से मिलाने ले आए। उन दिनों वानप्रस्थ सत्र चल रहे थे। पूज्य गुरुदेव के साथ तीनों नेता एक साथ मंच पर बैठे। उस समय भी श्री आचार्य जी ने मंच से यही कहा था कि मैं पूज्य गुरुदेव के पास पहली बार कोई अच्छी नीयत से नहीं पहुँचा था, लेकिन उनके अद्भुत व्यक्तित्व ने मुझे अपना अनन्य अनुयायी बना लिया।

   सन् 1969- 70 की बात है, जब वे पूज्य गुरुदेव से पहली बार मिले थे। पूज्य गुरुदेव की मथुरा से विदाई का समय निकट आ रहा था। देश में जगह- जगह बड़े- बड़े यज्ञायोजन किए जा रहे थे जिनमें पूज्य गुरुदेव भी पहुँच रहे थे। ऐसे ही एक आयोजन की तैयारी राजस्थान की राजधानी जयपुर में चल रही थी। वहाँ की प्रमुख कार्यकत्री श्रीमती चन्द्रमुखी देवी रस्तोगी प्रबुद्ध जनों को भी यज्ञायोजन में भागीदारी के लिए आमंत्रित कर रही थीं।

    श्री निरंजन नाथ आचार्य उन दिनों राजस्थान विधान सभा के अध्यक्ष (स्पीकर) थे। वे बड़े विद्वान्, विचारक एवं लेखक और स्वभाव के ठसकीले व्यक्ति थे। श्रीमती रस्तोगी बहनजी उनके पास गईं और पूज्य गुरुदेव का परिचय देते हुए यज्ञायोजन में पधारने का आमंत्रण दिया। श्री निरंजन आचार्य जी अपने उसी ठसकीले अंदाज में बोले, ‘‘बहिन जी, आप गलत जगह पहुँच गई हैं, मैं तो नास्तिक किस्म का व्यक्ति हूँ।’’ परन्तु श्रीमती रस्तोगी भी कम नहीं थीं, उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘भाई साहब हम बहुत ठीक जगह पहुँचे हैं। हमें पता है आप आस्थाहीन नहीं हैं। लेकिन जिन कारणों से आप स्वयं को नास्तिक कहते हैं, उन कारणों का निवारण भी तो जरूरी है। उसका सुयोग बन रहा है, पूज्य आचार्य जी मथुरा से (विदाई के पूर्व तक पूज्य गुरुदेव के लिए पूज्य आचार्य जी संबोधन ही प्रचलित था) पधार रहे हैं। आप आयोजन में अवश्य पधारें।’’

   ऐसे उत्तर की श्री निरंजन आचार्य जी को उम्मीद नहीं थी, उन्होंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आयोजन के दौरान पूज्य गुरुदेव से मिले, प्रवचन सुने, व्यक्तिगत स्तर पर चर्चाएँ भी कीं और फिर तो वे उनके मुरीद बन गए। फिर गायत्री तपोभूमि पहुँचकर भी आचार्य जी के विदाई सम्मेलन में चारों दिन (16 से 20 जून 1971) मथुरा में रहे। पूज्य गुरुदेव के सम्बन्ध में अपने भाव व्यक्त करते हुए उन्होंने एक पुस्तिका लिखी ‘पूज्य आचार्य जी के सान्निध्य में’। उसके प्रथम पृष्ठ पर समर्पण पद में उन्होंने लिखा है-

‘‘मैं पूज्य आचार्य जी के पास आया था अपने ज्ञान का अहंकार लेकर और बैठ गया उनके चरणों में अपनी सारी श्रद्धा समर्पित करके।’’

काञ्चि काम कोटि पीठ के शंकराचार्य- श्री जयेन्द्र स्वामी

    जब शान्तिकुञ्ज पधारे तो उन्होंने ऋषियुग्म के दर्शन किये। संतों की मंडली में उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति दी व समय समय पर कहते भी रहे कि आचार्य जी का एकाकी पुरुषार्थ सारे संत समाज की सम्मिलित शक्ति के स्तर का है। उन्होंने गायत्री व यज्ञ को प्रतिबंध रहित करने के निमित्त जो कुछ भी किया वह शास्त्रों के अनुसार ही था। यह प्रशंसा कुम्भ में पधारे पंडितगणों तक पहुँची तो वे चौंके। उन्होंने प्रश्न किया, ‘‘आचार्य जी ने क्या शास्त्रों की अवहेलना कर जिस- तिस को गायत्री दीक्षा नहीं दी? क्या आप इसे उचित मानते हैं?’’ इस पर संत श्री का कहना था कि शास्त्र विधि शास्त्र के अनुशीलन से निर्धारित होती है। शास्त्र को शस्त्र बना लेने से नहीं। आचार्य जी ऐसे युगपुरुष हैं, जिनका हर कार्य शास्त्र सम्मत, विधि सम्मत माना जाना चाहिये। ऐसा कहकर उन्होंने उत्तर दिशा में नमन किया और कहा, ‘‘मेरा उन्हें बारम्बार नमन है।’’ सभी पंडितगण निरुत्तर थे।

  स्वामी विशुद्धानंद जी महाराज -- हिमालय निवासी त्रिकालदर्शी परम सिद्ध महाराज जी ने पूज्यवर के विषय में दिसम्बर 1957 की अखण्ड- ज्योति में अपने विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने कहा, ‘‘आचार्य की नस- नाड़ियाँ फौलाद की हैं। विगत तीस वर्षों में घनघोर तप करके उन्होंने अपने आपको अष्टधातु का बना लिया है। हिमालय जैसी उदार हृदय एवं मानसरोवर जैसी निर्मल ये दोनों (गुरुदेव व माताजी) आत्माएँ हैं। असंख्यों को पार कराने वाले वे अनुभवी मल्लाह हैं। वे महान ही पैदा हुए हैं, महानता के साथ जी रहे हैं और उनका अंत भी महान ही होगा।’’

   करपात्री जी महाराज- जिनने सनातन धर्म की गरिमा स्थापित करने का महत पुरुषार्थ सम्पन्न किया। अनेकों ग्रंथ इस विषय पर लिखे। जिन्हें हिन्दू धर्म का एक अधिकारी विद्वान माना जाता रहा है। उन्होंने अपने भाव भरे उद्गार इस रूप में व्यक्त किये थे, ‘‘आचार्य जी, इस युग में गायत्री के जनक हैं। उन्होंने गायत्री को सबकी बना दिया। यदि इसे मात्र ब्राह्मणों की मानकर उन्हीं के भरोसे छोड़ दिया गया होता तो अब तक गायत्री महाविद्या संभवतः लुप्त हो जाती।’’

  स्वामी अखण्डानंद जी सरस्वती- के रूप में विख्यात करपात्री जी के गुरुभाई एक महान संत, सिद्ध पुरुष हैं। बिड़ला परिवार उन्हें गुरु रूप में मानता रहा है। सभी ग्रंथों पर उनको समान महारत प्राप्त थी। अनेकों बार पूज्य गुरुदेव से उनकी मुलाकात हुई। पूज्यवर के बारे में ऐसी संत स्तर की सत्ता की अभिव्यक्ति थी -- ‘‘जो गायत्री का गंगाजल की तरह सेवन करना चाहते हों, वे आचार्य जी का मार्ग अपनाएँ। यह आसान है और निरापद भी। आचार्य जी ने तो यज्ञ को भी देवदर्शन की तरह सुलभ बना दिया है।’’

   श्री जुगल किशोर बिड़ला- बिड़ला परिवार जो आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की ख्याति, व्यापार क्षेत्र में बढ़ा रहा है, इन्हीं से आरंभ हुआ था। बिड़ला जी की धर्म के प्रति रुचि, संतों का सत्संग करने की सतत इच्छा, अनेकों बार उन्हें पूज्यवर के पास खींच लाती थी। वे अक्सर गायत्री तपोभूमि मथुरा आते व पूज्यवर से सत्संग करते थे। उन्होंने कई बार प्रस्ताव रखा कि पूज्यवर अनेकों व्यक्तियों से अंशदान एकत्र करने के स्थान पर उनसे एकमुश्त दान पच्चीस लाख रुपये जितना प्रतिवर्ष ले लिया करें ताकि उनका कार्य चलता रहे। पूज्यवर ने कई बार के प्रस्ताव के बाद एक ही जवाब दिया कि यह ब्राह्मण की पूँजी है, जिससे यह मिशन खड़ा किया है। इसमें जन- जन की भागीदारी है। जिस दिन एक पूँजीपति के धन से यह संस्था चलने लगेगी, उस दिन मठ बनकर रह जाएगी। यह धन जो आप देना चाहते हैं, जिस भगवान से आपको मिलता है, उसी से हम ले लेंगे पर करोड़ों व्यक्तियों के भाव भरे अंशदान के रूप में, ताकि यह संस्था जन- जन की बनी रहे। भाव भरे शब्दों में बिड़ला जी कहा करते थे, ‘‘मैंने गुरुदेव में -- पंडित जी में साक्षात् ब्राह्मण के दर्शन किए हैं। उनका कोई कार्य कभी रुक नहीं सकता, क्योंकि स्वयं भगवान् उनमें समाये हुए हैं।’’

  स्नेह से वे गुरुदेव को कभी- कभी पण्डित जी कहकर पुकारते थे। उन्होंने एक बार अपने मन की बात पूज्यवर से कही कि पण्डित जी, जब मैं शरीर छोड़ूँ तो आपकी वहाँ उपस्थिति चाहता हूँ। आपकी गोद में मेरे प्राण छूटें, यही मेरी इच्छा है। गुरुदेव ने मौन सहमति दे दी। जब अंतिम समय आया, तब उनका टेलीग्राम आया था, और गुरुदेव उनसे मिलने दिल्ली गये। संत- भामाशाह सी उस दिव्यात्मा ने अपने प्राण पूज्यवर की गोद में ही छोड़े।

श्री रंगनाथ मिश्र

  पूज्य गुरुदेव के सम्मान में भारत सरकार ने डाक टिकिट जारी किया। उस समय इस समारोह में सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस श्री रंगनाथ मिश्र भी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा के साथ शामिल हुए थे। उन्होंने पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व पर एक आस्थावान अध्येता की तरह सुन्दर ढंग से प्रकाश डाला। पूज्य गुरुदेव के सम्बन्ध में उनके इतने सुलझे विचार सुनकर परिजनों को प्रसन्नता हुई और उनकी आस्था का आभास मिला।

  कटक में शान्तिकुंज के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से भेंट के दौरान

अश्वमेध यज्ञों की शृंखला के अंतर्गत भुवनेश्वर और ब्रह्मपुर अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर शान्तिकुञ्ज के प्रतिनिधियों से वार्तालाप के क्रम में उन्होंने बतलाया कि वे जब वकील थे, तब पहली बार पूज्य गुरुदेव से कैसे मिले, फिर कब- कब उनकी गुरुदेव से भेंट हुई। उसी प्रवाह में उन्होंने कहा ‘‘शरीर छोड़ने के बाद भी पूज्य आचार्य जी एक बार मुझे मार्गदर्शन दे गए।’’ पूछने पर उन्होंने बताया कि वे किसी विषय में काफी उलझे थे और हल न निकल पाने से चिंतित थे। बैठे- बैठे आँखें बंद हुईं और लगा कि पूज्यवर सामने प्रकट हो गए हैं। उन्होंने मेरी चिन्ता के विषय का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘तुम्हें शक क्यों हो रहा है?’’ और दो वाक्यों में उसका समाधान कर दिया।

  उनकी बात सुनकर शान्तिकुञ्ज के समर्पित कार्यकर्ता डॉ० दत्ता ने प्रश्र किया, मान्यवर यह स्वप्र या भ्रम भी तो हो सकता है? इस पर मानो श्री मिश्र के अन्दर का चीफ जस्टिस जाग उठा और उन्होंने मेज ठोककर कहा, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है। मैं कहता हूँ, यह सच है।’’

डॉ० दत्ता ने कहा, ‘‘हम भी इसे सच ही मानते हैं, पर वैज्ञानिक तो यह प्रश्र करेगा ही?’’

तब वे बोले, ‘‘उन्होंने जो समाधान दिया, मैं उस निष्कर्ष पर पहुँच नहीं सकता था। साथ ही मैंने उस समाधान के साथ एक शक्ति संचार का भी अनुभव किया। ऐसा भ्रम या स्वप्र में नहीं हो सकता। यह सच है।’’

श्री विश्वनाथ दास

   सन् 1961- 62 की घटना है। उस समय उ.प्र. के महामहिम राज्यपाल श्री विश्वनाथ दास, दर्शनार्थ मथुरा- वृन्दावन पहुँचे। जिज्ञासावश गायत्री तपोभूमि भी आये। पूज्य गुरुदेव ने उनका स्वागत किया, संस्था का परिचय देते हुए अपना लिखा साहित्य भेंट किया। श्री दास हिन्दी ठीक से नहीं बोल पाते थे। उन्होंने अँग्रेजी में अपनी बात की, जिसका हिन्दी रुपान्तर पू. गुरुदेव के मित्र श्री दर्शनलाल अग्रवाल (एडवाकेट) ने किया। श्रीदास ने अपने वक्तव्य में कहा-I have seen Lord Krishna in person today. (आज मैंने, व्यक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन किए हैं।)
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