पूज्य गुरुदेव बार- बार कहते थे, ‘‘बेटा,
इस बार हम बहुत बड़ी नाव लेकर आये हैं। तुम सब लोगों को उसमें
बिठाकर पार लगा देंगे। बस तुम लोग उसमें से उतरना नहीं। तुमको
कुछ नहीं करना है, केवल हमारा काम करना है। हमारा मार्गदर्शन व
संरक्षण तुम्हें सतत्
मिलता रहेगा। तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे। लाखों
परिजनों ने पूज्य गुरुदेव के इस संरक्षण का अहसास किया है। ’’
गाड़ी रोको, बच्चे छूट गये हैं
श्रीमती सावित्री गुप्ता
एक बार मैं, श्री रामस्वरूप अग्रवाल गंगानगर, राजस्थान वाले के साथ अपनी बेटी के घर इन्दौर जा रही थी। श्री अग्रवाल जी तब सावित्री ब्लाक शांतिकुंज में निवास करते थे।
गाजियाबाद स्टेशन आया तो मैंने उसे दिल्ली समझा व पानी लेने ट्रेन से उतर गई, दो बॉटल पानी भरा इतने में गाड़ी चल दी। मैं दौड़ी, बाटल
कन्धे पर थी। मैंने ट्रेन का डंडा पकड़ लिया, किन्तु भीड़ के
मारे पैर पायदान तक न पहुँच सका सो मैं लटकी हुई कुछ दूर तक
गई। बाद में मेरे हाथ से डंडा भी छूट गया सो चलती ट्रेन से
गिर पड़ी। इस समय गाड़ी धीमे ही चल रही थी। फिर भी मैं जैसे ही
गिरी जाने कहाँ से दो लड़के आये। कहा- ‘‘माताजी चोट तो नहीं लगी।’’ और जोर से गार्ड को चिल्लाये, गाड़ी रोको बच्चे छूट गये है। गार्ड ने हड़बड़ा कर देखा, पूछा ‘‘कहाँ है बच्चे?’’ और गाड़ी रोक दी।
इस बीच उन लड़कों ने मुझे उठाया और हाथ पकड़कर अपने साथ ले
गये तथा सबसे पीछे गार्ड के डिब्बे में लगभग उठाते हुए चढ़ा
दिया। चूंकि चलती ट्रेन से गिरी थी सो चोट तो थी ही। जैसे ही बैठी, गार्ड ने प्रश्रों की झड़ी लगा दी। मैंने इशारे से कहा- ‘‘कृपया मुझे साँस लेने दें, मैं सब बताती हूँ।’’
चढ़कर तुरन्त बच्चों को धन्यवाद देने हेतु पलटकर देखा तो वहाँ
कोई नहीं था। थोड़ी देर बाद शान्त होकर मैंने गार्ड से सब हाल
बताया। दूसरे स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो गार्ड ने मुझे अपने
साथियों के पास पहुँचा दिया। वे भी बहुत परेशान हो रहे थे। जब
इन्दौर से वापस आई तब गुरुदेव ने कहा, ‘‘तू खूब परेशान किया कर। देख के नहीं उतरा जाता क्या? समय देखकर ही उतरा- चढ़ा करो बेटा।’’
मुझे लगा मैंने पत्र तो डाला नहीं पर पूज्यवर को कैसे मालूम?
मुझे लगा निश्चित ही वे दो लड़के पूज्यवर के अंश होंगे।
जिन्होंने मुझे हाथ पकड़ कर गार्ड के डिब्बे पर चढ़ाया था। तभी
तुरन्त पलट कर देखने पर भी वे दृष्टि से ओझल हो गये थे।
गुरुदेव का ऐसा संरक्षण पाकर मैं कृतकृत्य थी।
बिना बताये घर से क्यों चला आया
श्रीकृष्ण अग्रवाल
एक बार मैं शक्कर का कोटा लेने महासमुन्द आया हुआ था। जब भी मैं महासमुन्द
आता तो ज्वालाप्रसाद जी से जरूर मिलता था। उस दिन उनसे मिला
तो उन्होंने कहा, मैं कल शान्तिकुञ्ज जा रहा हूँ चलना हो तो तुम
भी चलो। मैंने कहा, ‘‘ज्वाला जी, न तो मैंने घर में बताया है, न कपड़े लाया हूँ। दुकान के लिये शक्कर उठाने आया हूँ। अभी मैं कैसे जा सकता हूँ?’’
ज्वाला जी ने कहा, ‘‘जाना
है तो बहाना मत मारो। कपड़े मेरे पहन लेना, घर में खबर, मैं
किसी के द्वारा करवा दूँगा। शक्कर हेतु लाया पैसा तुम्हारे पास
है ही।’’ बात मुझे भी जँच गई। गुरुजी जिसे बुलाना चाहें उसका इन्तजाम भी करते हैं। इतने में, बागबाहरा
वाले श्री नरेन्द्र सिंह आ गये। बात बन गई। घर के लिये चिट्ठी
दे दी। बाकी व्यवस्था थी ही, दो दिन बाद हरिद्वार पहुँचे।
श्री नरेन्द्र जी घर पर चिट्ठी देना भूल गये। पत्नी का रो- रो
कर बुरा हाल था। कहाँ चले गये? क्या बात हुई? कोई संदेश नहीं?
उनके देवर चिढ़ाने लगे, ‘‘भाभी! भैय्या तो बाबा जी बन गये। चिमटा पकड़ लिया। घर- घर घूमेंगे, बस आप तो रोती रहो।’’ माँ ने बच्चों को डाँटा, ‘‘क्यों भाभी को रुलाते हो?’’ बहू को सांत्वना देती रहीं पर स्वयं भी परेशान थीं। घर में स्थिति बड़ी दयनीय थी।
इधर जब हम शान्तिकुञ्ज पहुँचकर ऊपर गुरुजी के पास पहुँचे तो पहुँचते ही उन्होंने डाँट लगाई, ‘‘बेटा! बिना बताये घर से क्यों चला आया? इस प्रकार तुझे नहीं आना चाहिए। तू नहीं जानता, मुझे कितनी तकलीफ हुई।’’ मैं आश्चर्य में पड़ गया। मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, मैंने तो खबर भिजवा दी है। नरेन्द्र सिंह को चिट्ठी दी है।’’ ‘‘बेटा! उसने चिट्ठी नहीं दी। घर में खबर नहीं पहुँची है। तू आइन्दा, ऐसा काम कभी मत करना।’’
मैं चुप हो गया। गुरुजी कैसे जान गये कि घर में खबर नहीं
पहुँची? नरेन्द्र सिंह ने चिट्ठी नहीं दी? उन्हें तकलीफ हुई!
आदि बातें मेरे मन को मथने लगीं। इधर घर आने पर पता चला कि
नरेन्द्र सिंह जी को चौथे दिन चिट्ठी की बात याद आई और घर
जाकर कहा- ‘‘भाभी! मुझसे गलती हो गई। भैया चार दिन पहले चिट्ठी दिये थे। मैं भूल गया। वे हरिद्वार गये हैं।’’
यह वही समय था जब चौथे दिन हमारी गुरुजी से बात हो रही थी।
मुझे महसूस हुआ कि गुरुदेव सर्वज्ञ हैं। उनकी नजर हर तरफ रहती
है।
दिव्यसत्ता का स्मरण
रामबाबू शर्मा, इंदौर
सन् १९७५ के दीक्षा समारोह की विदाई के सुअवसर पर कहे गये शब्द- ‘‘बेटा, तू मेरा काम करना, तेरे सब काम मैं करूँगा’’ मेरे मानस पटल पर चिरस्थाई होकर प्रतिक्षण गुजरते रहे।
एक घटना सन् १९८६ की है। इंदौर के तिलकनगर
में परिवार सहित रहते थे। एक रात अचानक स्वप्न आया, घर में कोई
घुस आया है। उठकर देखा बाहर का दरवाजा खुला हुआ है, घबरा गये।
पत्नी अपने कमरे में गई। देखा, गुरुदेव खड़े हैं। पत्नी चरण स्पर्श
करके बाहर आई। घटना सुनाई। पर विश्वास तब हुआ, जब कुछ महीने बाद
हमारा हरिद्वार जाना हुआ। माताजी ने कहा ‘‘बिटिया, पिताजी से डरना नहीं चाहिए’’।
मेरा आध्यात्मिक उपचार
अनामिका पारिक, कुरुक्षेत्र
गुरुदेव से जुड़ने के पूर्व, लगभग तीस वर्ष की आयु में ही,
मेरा शरीर बीमारियों का घर बना हुआ था। कभी दिल की धड़कन बढ़
जाती तो कभी पैरों में सूजन आ जाती थी। थकान व कमजोरी के कारण
बुरा हाल रहता था। मेरे पति स्वयं एक बहुत अच्छे चिकित्सक हैं
परन्तु बीमारी पर कोई इलाज कामयाब नहीं हो पाता था। अनेकों बड़े-
बड़े, चिकित्सकों ने ‘थायराइड ग्लैण्ड’ में ‘हार्मोन्स’
का असन्तुलन घोषित कर दिया था। अपने पति के द्वारा बारम्बार
कहने पर मैंने गायत्री जप शुरू किया एवं भावना पूर्वक गायत्री
जप व गुरुदेव की तस्वीर रखकर ध्यान करना आरम्भ कर दिया। एक दिन
मुझे अनुभूति हुई जैसे गुरुदेव कह रहे हों- ‘‘तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा आध्यात्मिक उपचार करेंगे।’’
उस दिन के बाद मैंने महिला सत्संग व झोला पुस्तकालय चलाना
आरंभ किया और कुछ ही दिनों में मेरी बीमारी गायब हो गई।
बेटा! तुमने दीक्षा ली है न!
मोहाली के कार्यकर्त्ता श्री श्रीराम लखनपाल जी बताते हैं कि उन दिनों मैं नया- नया ही गायत्री परिवार से जुड़ा था। मेरा बेटा पोलियोग्रस्त
है। 1983 में जब मैं परिवार सहित शान्तिकुञ्ज आया तो बेटा दस
साल का होने पर भी हाथों और घुटनों के बल पर ही चलता था। जैसे
कि 7- 8 माह का बच्चा चलता है। हमने उसका बहुत इलाज करवाया। 6-
7 आप्रेशन भी हो चुके थे। रोज गुरुजी को प्रणाम करते समय
गुरुजी उस बालक को गौर से देखते। श्रीमती यशोदा बहिन जी (मोहाली) जो हमें लेकर आई थीं, प्रणाम के पश्चात् रोज हमें पूछतीं, ‘‘आपने बालक के लिये गुरुजी से बात की?’’ हम कहते- ‘‘नहीं।’’ तो वह नाराज़ होतीं और कहतीं,‘‘ गुरुजी से कहना था।’’
वापस जाने का समय भी आ गया। विदाई में बस एक दिन शेष था। उस दिन यशोदा बहिन जी बोलीं, ‘‘आज तो आप गुरुजी से बात करके ही लौटना। नहीं तो मैं कहूँगी।’’
मैंने घर में बड़ों से सुना था कि गुरु से माँगा नहीं जाता।
वह तो जानी- जान (जो जन्म- जन्मांतरों के रहस्य जानता है।)होते हैं। सो मैंने उनसे कहा, ‘‘गुरु तो स्वयं सब जानते हैं, उनसे माँगा थोड़ी जाता है। मैं नहीं माँगता। उन्हें जो देना होगा, वे स्वयं दे देंगे।’’ उस दिन जब हम गुरुजी के दर्शन करने गए, तो गुरुजी ने स्वयं ही मुझसे पूछा, ‘‘आपका बच्चा है?’’ मैंने हाँ में सिर हिलाया। फिर गुरुजी बोले, ‘‘बेटा,
इस बालक की चिन्ता मत करना। मैं इसे पूरा ठीक तो नहीं कर
सकता, पर इसे इसके पैरों पर खड़ा कर दूँगा। एक दिन ये खूब दौड़ेगा। अपना सब काम खुद ही करता चला जायेगा। तुम बस, मेरा काम करते रहना।’’
इसके कुछ महीनों बाद 1984 में, मैं बालक को एक बाबाजी के पास ले गया। उसने चण्डीगढ़ हाईकोर्ट के पास ही एक गांव ‘कैंवाला’
में अपना डेरा लगाया था। मेरी इच्छा तो नहीं थी पर मेरे
सहकर्मियों ने मुझपर बहुत दबाव डाला। उन्होंने उन बाबाजी की बहुत
ख्याति सुनी थी। कुछ संतान का मोह भी होता है। मैं भी उसे वहाँ
ले गया। दूर- दूर से लोग अपने अंधे, अपंग बच्चों व परिजनों को
लेकर आये हुये थे। वहाँ हम दो दिन रुके।
दूसरे दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागाँधी
की हत्या हो गई और चारों ओर कर्फ्यू लग गया। वह बाबा भी कोई
ढोंगी था। शायद आतंकवादियों का ही कोई गिरोह रहा होगा। गाँव
वालों को बाबाजी की पोल- पट्टी पता चल चुकी थी। दूसरी रात लगभग
12:00 बजे, उन सबने बाबाजी के डेरे को घेरकर आग लगा दी और
बाबाजी के चेलों के साथ मार- पीट, लाठीचार्ज, पथराव आदि करने लगे।
इधर आग तेजी से फैलने लगी और चारों ओर चीख पुकार मच गई। मैंने
झट से अपने बच्चे को गेहूँ के कटे खेतों
में फेंका, एक कम्बल ओढ़ा और आग में फँसे लोगों को पीठ पर
लाद- लाद कर बाहर सुरक्षित स्थान पर ले जाता रहा। मेरे पैर लहू-
लुहान हो रहे थे। पता नहीं कहाँ से मुझमें शक्ति आ गई थी। अनेक
लोगों को आग से बचाया। बीच- बीच में गाँव वालों की लाठियाँ भी
पीठ आदि पर पड़ती रहीं, पर गुरुजी रक्षा करते रहे। दर्द का कोई
खास अहसास ही नहीं हुआ।
पर इस सबके बीच मैं अपने बेटे से बिछुड़ गया था। अब मैं
पागलों के जैसे उसका नाम ले- लेकर, चिल्ला- चिल्ला कर उसे ढूँढ़
रहा था। मेरा गला बैठ गया था। लगभग दो घण्टे तक ढूँढ़ने के बाद
सुबह होने पर जब वह मिला तो मेरी जान में जान आई।
जब हम घर पहुँचे तो पत्नी कुछ घबराई हुई और परेशान सी लगी।
पूछने पर पता चला कि उसी दिन ब्रह्म मुहूर्त में जब वह जप कर
रही थी, तो गुरुजी ने ध्यान में आकर कहा, ‘‘बेटा! संकट तो बहुत बड़ा है, पर घबराना नहीं। तुमने दीक्षा ली है न, मैं हर समय तुम्हारे साथ हूँ।’’ फिर वह बोली, ‘‘पता नहीं कौन सा संकट आने वाला है, गुरुजी ने किस संकट का संकेत दिया है?’’
रात की घटना अभी भी मुझे कँपा रही थी। मैंने कहा, ‘‘संकट तो आकर चला गया’’
और रात की सब घटना पत्नी को बताई। उस रात गुरुजी ने ही हमारी
रक्षा की थी, पत्नी को इसका आभास कराकर शायद वह विश्वास दिलाना
चाहते थे कि गुरु चरणों में समर्पित होने के बाद अन्यत्र
भटकने की आवश्यकता नहीं है। फिर मैं कभी किसी के पास भटकने नहीं
गया।
पूज्यवर के आशीर्वाद के अनुरूप धीरे- धीरे बेटे की हालत में
सुधार होता गया। वह सहारे से खड़ा होने लगा फिर अपने पैरों पर
चलने भी लगा। आज वह पढ़- लिख कर अपने पैरों पर खड़ा है। उसकी शादी
भी हो गयी है और दो संतानें भी हैं।
पाँचवाँ डाक्टर
श्री कृष्ण अग्रवाल- सन् 1980 के आसपास की घटना है। मुझे एक माह से बुखार आ रहा था। शान्तिकुञ्ज के तीन- चार डाक्टर्स
के इलाज के बावजूद ठीक नहीं हो रहा था। अन्त में परेशान होकर
अपनी पत्नी के हाथ एक पत्र लिखकर गुरुजी के पास लिख भिजवाया।
लिखा-
‘‘गुरुजी,
सादर प्रणाम।
आपके यहाँ लोग हजार कि.मी. दूर से भी आकर अपने घर के लिये अनेक मनोकामनाएँ ले जाते हैं। मैंने तो कभी आपका सौ रु.
भी इधर- उधर नहीं किया। फिर भी मैं कितना पापी हूँ, जो यहाँ रह
कर भी एक माह से परेशान हूँ, बुखार उतर ही नहीं रहा। आपका पुत्र’’
प्रणाम के पश्चात् गुरुजी उठने ही वाले थे, कि मेरी पत्नी ने पत्र दिया। गुरुजी ने पत्र पढ़ा। आश्चर्य से कहा- ‘‘बेटी! एक माह से बुखार नहीं उतरा। चल, मैं अभी आता हूँ।’’ वह कमरे तक पहुँचती कि गुरुजी भी पहुँच कर सीढ़ी चढ़ने लगे। शान्तिकुञ्ज के अन्य कार्यकर्त्ता भी दौड़े। क्या बात हो गई?
गुरुजी सीधे मेरे बिस्तर के पास पहुँच कर बगल में बैठे और बोले- ‘‘हाँ! बता, क्या- क्या दवाई की बेटा’’? बुखार में तप्त, परेशान मैं बोल पड़ा- ‘‘ गुरुजी! मुझे आपके चार- चार डॉक्टरों ने किलो भर गोलियाँ खिला डालीं, फिर भी कुछ आराम नहीं मिला।’’
इस पर गुरुजी ने कहा- ‘‘तू क्यों चिन्ता करता है? मैं पाँचवाँ डॉक्टर आ गया हूँ न। तुझे अब कभी बुखार नहीं आयेगा।’’ मैंने कहा- ‘‘मेरा पेट भी भारी रहता है गुरुजी ’’।
सो गुरुजी का हाथ अनायास ही पेट की तरफ बढ़ा। गुरुजी ने पेट
पर हाथ फिराया। उस दिन के बाद मुझे कभी बुखार नहीं आया।
विपत्ति से रक्षा
एक कार्यकर्ता बहिन जी अपने परिजनों के साथ शान्तिकुंज
घूमने आयी थीं। वे सब मंशा देवी मन्दिर घूमने जाने लगे तो ये
भी साथ चली तो गयीं, पर वहाँ सीधी सीढ़ियों की चढ़ाई में जल्दी
ही थक गयीं। उन्होंने सबसे कहा, ‘‘मैं नहीं चढ़ पाऊँगी, तुम लोग दर्शन करके आ जाओ।’’
वे एकांत में अकेली बैठी थीं, तो कुछ मनचले लड़कों का समूह
उनके निकट आया। उन्हें उनकी नीयत अच्छी नहीं लगी। जब वे लड़के
उन्हें छेड़ने के लिए और निकट आने लगे, तो वे घबराईं। पर अचानक
कहीं से एक कुत्ता निकल आया, जो उन लड़कों को काटने के लिए
दौड़ा। वे लोग बार- बार, थोड़ी- थोड़ी देर में उनके पास आने का
प्रयास करते, पर वह कुत्ता तो जैसे वहाँ उनकी सुरक्षा के लिए ही
तैनात था। उसने उन लड़कों को उनके पास नहीं फटकने दिया। जब तक
उनके परिवार वाले आ नहीं गये, तब तक वह कुत्ता वहीं बैठा रहा,
और परिवार वालों के आ जाने पर इधर- उधर निकल गया।
अगले दिन जब वह बहिन पूज्य गुरुदेव से मिलीं, तो गुरुजी ने कहा- ‘‘बेटा! अपनी सुरक्षा अपने हाथ। तू अकेले वहाँ क्यों बैठ गयी थी?’’ तब उन्हें समझ में आया कि गुरुजी ने ही उन्हें विपत्ति से बचाया था।
24000 मंत्र के एक लघु अनुष्ठान का पुण्य दिया है
श्री मोतीलाल जी,
5 कुण्डीय गायत्री यज्ञ के कार्यक्रम हेतु खास चौंक, उज्जैन में गुरुदेव श्री इन्दुमल लिखाणी
के घर ठहरे थे। रात के वक्त जब मैं गुरुजी के चरणों के पास
ही सोया हुआ था कि अचानक मेरी पसली में भयंकर दर्द उठा। मैं
कराहने लगा। गुरुजी उठे और पूछा, ‘‘मोतीलाल, कराह क्यों रहे हो?’’ मैंने बताया, ‘‘गुरुदेव, पसली में भयंकर दर्द हो रहा है।’’
गुरुदेव बोले, ‘‘मेरे पास आ।’’
मैं उठ कर गुरुजी के पास गया। उन्होंने जहाँ दर्द हो रहा था
वहाँ हाथ फिराया और पल भर में मेरा दर्द गायब हो गया। मुझे ऐसा
लगा, जैसे गुरुदेव ने मुझे प्राण दान दिया हो। फिर गुरुदेव ने
कहा, मैंने तुझे 24000 गायत्री मंत्र के एक लघु अनुष्ठान का
पुण्य दे दिया है। घर जाकर अनुष्ठान कर लेना और मुझे सूचना कर
देना, उसकी शक्ति मैंने तुझे दी है।
करेण्ट लगने पर जीवन रक्षा
गुना के श्री सुरेश रघुवंशी, उन दिनों शान्तिकुंज में समयदानी कार्यकर्त्ता
थे। वे एक कार्यक्रम में मेरठ शहर गये। वहाँ जिस मकान में वे
रुके थे, वहाँ छत के ऊपर से ग्यारह हजार वोल्टेज की हाई पॉवर
लाइन किसी फैक्टरी में जाती थी। सुबह कपड़े सुखाने के लिए वे
छत पर गये। जैसे ही उन्होंने तौलिया उछाला। जब तक वहाँ खड़ी उस
परिवार की बहू कहती- ‘‘भैया, यहाँ कपड़े मत डालना।’’
तब तक तो करेण्ट लाइन ने तौलिया गीला होने के कारण उन्हें
खींच लिया था। वे उस लाइन से चिपक गये। उनके सिर से अग्नि की
ज्वालाएँ निकलने लगीं। बहू चिल्लाते हुए नीचे उतरी कि शान्तिकुंज
वाले भैया को करेण्ट लग गया। घर वालों ने तुरन्त लाइन ऑफ करने
के लिए फैक्टरी में फोन किया। इतने में पड़ोस की एक महिला ने
उन्हें लाइन से चिपके देखा तो दौड़कर ऊपर चढ़ गयी। जैसे ही लाइन
ऑफ हुई, वे गिरे। वह महिला उन्हें तुरन्त नीचे ले आयीं। जमीन पर
औंधे लिटाकर लगातार मुट्ठियाँ मारने लगी। आनन- फानन में गाड़ी की
व्यवस्था की गयी। उन्हें अस्पताल ले जाया गया व तुरंत उपचार शुरू
हुआ।
उनके सिर में गहरा घाव हो गया था। मेरठ के सारे कार्यकर्त्ता एकत्र हो गये। सभी गायत्री मंत्र जाप करते हुए उनके लिए प्रार्थना करने लगे। वहाँ उस फैक्टरी
लाइन से पहले भी उस पूरी गली में 18 मौतें हो चुकी थीं। ये
भाई उन्नीसवें नम्बर के थे। जिन्हें पूज्य गुरुदेव ने बचा लिया। कार्यकर्त्ता
खुश भी थे, और गुरुसत्ता की सामर्थ्य पर हैरान भी। उन्हें ये
विश्वास हो गया था कि हमारे गुरुदेव असंभव को भी संभव कर देने
में पूरी तरह समर्थ हैं।
दुबई में करेन्ट से बचाया
चेन्नई
की शोभना बहिन बड़ी श्रद्धा भावना के साथ पूज्य गुरुदेव से,
गायत्री परिवार से जुड़ी थी। उनके पति गायत्री परिवार से नहीं
जुड़े थे। वे दुबई में किसी कम्पनी में काम करते थे। वहाँ उन्हें
एक दिन तैंतीस हजार वोल्टेज का करेण्ट लगा। बिजली तुरंत पाँव को
चीरती हुई जमीन में धँस गयी। पाँव में बड़ा छेद हो गया था।
तुरंत अस्पताल ले जाकर उपचार प्रारम्भ हुआ। प्रत्यक्षदर्शी हतप्रभ
थे। ये करेण्ट तो कुछ सेकण्डों में जान ले लेता है। पर उनके
जीवन पर आया संकट टल गया था। उनके सभी मित्र उन्हें देखने आते
और कहते, ‘‘आपके पीछे कोई बहुत बड़ी शक्ति है, जिसने आपको बचा लिया है।’’ वे बोले, ‘‘मैं
तो कुछ करता नहीं हूँ, पर मेरी पत्नी गायत्री परिवार से जुड़ी
है, वह कुछ न कुछ करती रहती है। निश्चय ही उनके गुरुजी ने मुझे
बचा लिया है।’’
ज्ञातव्य है कि तत्पश्चात् शोभना बहिन ने पूज्यवर की दो पुस्तकें ‘‘माई विल एण्ड हैरीटेज’’(वर्तमान में My life and its legacy) एवं ‘‘सुपर साइन्स ऑफ गायत्री’’
का तमिल भाषा में अनुवाद कर अपने पैसों से छपवाया। उन पुस्तकों
को जिनने भी गहराई से पढ़ा, वे खोजते हुए उनके घर आने लगे, और
पूज्य गुरुदेव एवं गायत्री परिवार के बारे में उनसे जानकारी
लेकर युग निर्माण योजना के सदस्य बनते चले गये।
जसलानी जी की मेडिकल रिपोर्ट
कानपुर के श्री रामप्रकाश जसलानी
जी परिवार के सम्पर्क में आये ही थे कि एक बार गम्भीर रूप
से बीमार पड़ गये। सोलह दिनों तक खून की उल्टियाँ हो रही थीं। एम्स के डॉक्टर कारण समझ नहीं पा रहे थे। सब प्रकार की टैस्टिंग से गुजारा गया। उन्हें शान्तिकुंज की याद आयी। सोचा गुरु आश्रम में किसी को भेजकर आशीर्वाद ले लेना चाहिये। किसी परिजन को शान्तिकुंज भेजा। इधर परिजन का आना हुआ, और उधर वे ठीक हो गए। फिर सब टैस्ट हुए तो सबकी रिपोर्ट नार्मल आ रही थी। यहाँ तक कि सोलह दिन खून की उल्टियाँ हो जाने पर भी एच.बी. नार्मल आया। वहाँ के बड़े डॉक्टर चैलेंज
से कहने लगे। आज तक हमारी कोई रिपोर्ट गलत नहीं हुई। अचानक
एकदम विपरीत रिपोर्ट कैसे आ रही है। हम खुद अपने हाथ से टैस्ट करेंगे। तो भी वही नार्मल स्थिति। उन्हें कुछ समझ नहीं आया। वे असमंजस में थे कि ऐसा कैसे हो रहा है? पर जसलानी जी अन्तर्हृदय से समझ रहे थे कि जब गुरु कृपा हो गयी, तो असंभव भी संभव हो जाता है।
उसक बाद जसलानी जी सक्रिय कार्यकर्ता बन गये। जो कोई नये आफिसर
कानपुर आते थे, तो उन्हें दो गायत्री मंत्र की कैसेट देते थे।
एक घर में सुनने के लिए, दूसरी वाहन में। कुछ वर्षों में समर्पण
का भाव परिपक्व हुआ, और अपनी ‘‘पशुपति बिस्किट’’ की पूरी फैक्टरी बंद करके शान्तिकुंज सेवा के लिए आ गये। सभी मित्रों, सम्बन्धियों ने उन्हें कहा, ‘तुम पागल हो गये हो। दिमाग सरक गया है? जो तुम अपनी जमी जमायी फैक्टरी बन्द कर रहे हो।’’ लेकिन कोई उनकी अन्तर्स्थिति को कहाँ समझ सकता था। शान्तिकुंज
आने के थोड़े दिन बाद ही एक बड़ा एक्सीडेंट भी हुआ। इस जबर्दस्त
एक्सीडेंट में भी उन्हें एहसास हुआ कि पूज्यवर ने नया जीवन
दान दे दिया है। हालाँकि एक्सीडेंट के बाद उन्हें काफी कष्ट
झेलना पड़ा। पर वे कहते हैं कि मुझे यही लगता रहा कि पूज्यवर
कई- कई जन्मों के चढ़े प्रारब्धों को अपनी शक्ति से काट रहे हैं।
आत्मा को धोकर रख देना चाहते हैं।
ऑपरेशन सफल बनाया
नवाबगंज, बरेली के कपड़ा व्यवसायी श्री कपूर जी, गायत्री परिवार
के पुराने सदस्य थे। एक बार उन्हें फेफड़ों में काफी तकलीफ हुई।
उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया। डॉक्टरों ने एक्सरे आदि लिया,
तो देखा कि स्थिति बहुत खराब है। तत्काल ऑपरेशन करना होगा। जब
डॉक्टरों ने ऑपरेशन करना शुरू किया तो अन्दर की हालत देखकर
उन्होंने हाथ ऊपर उठा दिये। कहा कि फेफड़े बहुत गल गये हैं,
ऑपरेशन भी नहीं हो पायेगा। उनकी पत्नी का पूज्यवर के ऊपर विश्वास
बहुत प्रबल था। उन्होंने हिम्मत बनाये रखी। बिल्कुल भी घबरायीं
नहीं और पूज्यवर से प्रार्थना करती रहीं।
उधर, ओ. टी.
में, क्योंकि शरीर खुल चुका था। अतः बाहर भेजना भी संभव नहीं
था। एक डॉक्टर ने थोड़ी हिम्मत की व कहा कि हम लोग प्रयास करते
हैं, संभव है, सफलता मिल ही जाये। उन्होंने पूरी सावधानी के साथ
कई घण्टे लगाकर ऑपरेशन किया। सबने महसूस किया कि एक अदृश्य शक्ति
सहायता करती रही। उन्हें ऑपरेशन में पूरी सफलता मिली। रोगी की
जान का खतरा खतम हुआ। सभी घर वाले ऐसा ही मानते हैं कि पूज्यवर
ने ही उन्हें बचाया। उस ऑपरेशन के बाद कई वर्षों तक वे जीवित
रहे व पूज्यवर का कार्य करते रहे।