पूज्य गुरुदेव का गायत्री तपोभूमि स्थापना का उद्देश्य अखिल विश्व में आस्तिकता, अध्यात्म-दर्शन, गायत्री का प्रसार-प्रचार व्यक्ति को मानव जीवन की गरिमा का बोध कराने एवं समाज को विकृतिमुक्त बनाने का था। वे चाहते थे कि इस वसुधा का वातावरण स्वर्ग जैसा हो और यहां रहने वाले मानवों में देववृत्तियां हों, जिन्हें देव-मानव कहा जा सके। अपना संकल्प पूरा करने के लिए एक केंद्र स्थापित करने की आकांक्षा उभरी। महर्षि दुर्वासा की तपस्थली में गायत्री तपोभूमि, मथुरा की स्थापना हुई।
गायत्री परिवार का विधिवत गठन, परमपूज्य गुरुदेव द्वारा सन् 1953 से प्रारंभ किया गया। चौबीस-चौबीस लाख के 24 महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति, अखंड अग्नि की स्थापना एवं तपोभूमि की स्थापना गायत्री जयंती 1953 को संपन्न हुई। जन-जन तक अध्यात्म तत्त्वदर्शन का विस्तार करने हेतु गायत्री तपोभूमि की स्थापना के लिए धन की आवश्यकता हुई तो गुरुदेव ने जमींदारी के बॉड्स बेच दिए और परम वंदनीया माता जी ने अपने सारे जेवर देकर हर कदम पर अपने आराध्य का साथ निभाया। भगवती गायत्री की मूर्ति की प्राणि-प्रतिष्ठा के समय पूज्य गुरुदेव ने 24 दिन का जल उपवास किया तथा देश से मंगाई हुई 2400 तीर्थों का जल एवं रज की भी स्थापना की। इसी अवसर पर सन् 1953 में गायत्री जयंती पर पूज्य गुरुदेव ने सर्वप्रथम गुरुदीक्षा माताजी को एवं उसके बाद उपस्थित नैष्ठिक परिजनों को दी। मथुरा में ही सन् 1955 में महामृत्युंजय यज्ञ, विष्णु यज्ञ, शतचंडी यज्ञ एवं नवग्रह यज्ञ भी संपन्न हुए।
इसके पश्चात सन् 1956 की अप्रैल 20-24 में 108 कुण्डीय नरमेध यज्ञ संपन्न हुआ, जिसमें पूज्य गुरुदेव-माताजी ने गायत्री परिवार का बीजारोपण कर दिया।