परम पूज्य गुरुदेव ने किशोरावस्था से ही सन् 1923-24 में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में बापू के आह्वान पर सक्रिय भाग लिया, कांग्रेस स्वयंसेवक शिविर में भरती हुए तथा तीन बार जेल यात्रा की। आगरा जिले के जरार स्थान पर हुए सत्याग्रह आंदोलन के कार्यक्रम में फिरंगियों द्वारा पिटाई से बेहोश हो गए थे, परंतु उनके दांत में तिरंगे झंडे का एक टुकड़ा दबा हुआ था, वह उन्होंने नहीं छोड़ा। देश प्रेम के इतने अधिक मतवाले होने के कारण उनका नाम श्रीराम से श्रीराम ‘मत्त’ पड़ गया। लगानबंदी आंदोलन के क्रम में आगरा जिले के आंकड़े इकट्ठे करने की जिम्मेदारी मत्त जी ने स्वीकार की थी। उनके आंकड़े इतने प्रामाणिक तथा प्रभावी थे कि उनकी गूंज देश की सीमाएं लांघकर ब्रिटिश असेंबली तक में हुई। इस कार्य के लिए पंडित श्री गोविंद बल्लभ पंत ने उनकी बहुत प्रशंसा की तथा विशेष रूप से सराहा। इसी आधार पर लगान माफी के आदेश पारित किए गए।
परम पूज्य गुरुदेव का सन् 1927 से सन् 1933 तक का समय सक्रिय स्वयंसेवक, स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता। मालवीय जी, श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू (जवाहरलाल नेहरू जी की माता), रफी अहमद किदवई, देवदास गांधी आदि के साथ आसनसोल जेल में भी गए। सविनय अवज्ञा आंदोलन में सरकार के उत्पीड़न के बावजूद, घर की कुर्की होने पर भी आजादी की लगन भरपूर थी। जब ब्रिटिश दमन चक्र के कारण लगभग सारे नेताओं को जेल में डाल दिया गया, तो आंदोलन ढीला पड़ने का खतरा पैदा हो गया था। तब बचे हुए नेताओं ने गुप्त रहकर आंदोलन को गति देने की योजना बनाई थी। संपत्तिवानों ने इसके लिए धन की भी व्यवस्था की थी। जो राष्ट्रनिष्ठ लोग केवल इस भय से आंदोलन से डरते थे कि उनके जेल जाने पर परिवारीजन भूखे मरेंगे, उन्हें निर्वाह राशि भी उपलब्ध कराई जाती थी। इस कार्य के लिए आगरा जिले में डॉ. केसकर को नियुक्त किया गया था। मत्त जी उनके विशेष सहयोगी के रूप में एक भुतहा समझे जाने वाले खंडहर जैसे मकान में उनके साथ रहकर खाना बनाना, बर्तन साफ करना, कपड़े धोने आदि सभी कार्य पूरे करते रहे।