परम पूज्य गुरुदेव का बाल्यावस्था से ही साधना के साथ-साथ रचनात्मक चिंतन रहा। ग्राम विकास, बुनाईघर के माध्यम से स्वावलंबन की वृत्ति जगाना, जनजागरण के लिए हाट-बाजारों में पत्रक वितरण करना आदि कार्य उन्होंने किशोरावस्था से ही प्रारंभ कर दिए थे। उनमें अछूतों, पददलितों के प्रति असीम करुणा एवं सहानुभूति थी। समाज के प्रबल विरोध के बाद भी गांव की एक रुग्ण हरिजन वृद्धा की सेवा करते रहे तथा पटवारी हुब्बलाल जो परिवार से उपेक्षित थे, उनकी सेवा-सुश्रुषा की। गांव के हरिजनों के घर सत्यनारायण की कथा, ग्रामवासियों के विरोध के बाद भी विधि विधान से संपन्न कीं। गांव में जब हाट-बाजार लगता, तो उनके स्वयंसेवकों की टोली सबको पानी पिलाती, प्राथमिक सहायता से लेकर पशुचिकित्सा तक के पत्रक हाथों से बांटते। सबका ढेरों आशीर्वाद मिलता। उनके द्वारा बनाई सेवा-समितियां पूरे जनपद का दौरा करतीं, जो अपाहिजों, अनाश्रितों को कंबल-रजाई बांटती थीं।
एक बार बालक श्रीराम ने देखा कि गांव के कुछ मुसलमान कसाई दो गायों को जो दूध दे सकतीं थीं, लंगड़ी होने के कारण काटने ले जा रहे थे, पूछा कितने में खरीदी और उतना पैसा देकर गायों को वापस लिया एक बैलगाड़ी किराए पर ली, घास के दो गट्ठर खरीदे गायों को बैलगाड़ी में रखकर बैलों के स्थान पर स्वयं लगे और सुबह के चले रात को हाथरस गौशाला में पहुंचाया। यह था अवतार सत्ता का ममत्व से अभिपूरित समष्टि से जुड़ी महाप्राण की सत्ता का स्वरूप।