इनका बाल्यकाल, कैशौर्यकाल ग्रामीण परिसर में ही बीता। बाल्यकाल में महामना पं0 मदनमोहन मालवीय जी द्वारा बनारस में गायत्री मंत्र की दीक्षा व यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न हुआ। दस वर्ष की आयु से उनके मन में यह ऊहापोह चलता रहा कि ‘साधना से सिद्धि’ का सिद्धांत सही है या गलत। इसका परीक्षण उन्होंने स्वयं पर ही किया। गुरुदीक्षा के समय दीक्षा गुरु के शब्द ‘गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है।’ वह अभीष्ट फल प्रदान करे, इसके लिए श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा का अवलंबन लेना जरूरी है।
हिमालय जाने की ललक बालकपन से ही थी। बाल्यावस्था में ही घर से बिना बताए एक बार हिमालय जाने को घर से निकल पड़े। परिवारीजन ढूंढ़ते-ढूंढ़ते स्टेशन पहुंचे। गाड़ी लेट होने से परिवारीजन स्टेशन से लौटाकर लाए। साधना के प्रति झुकाव बचपन से ही दिखाई देने लगा था। साथियों को प्रायः अध्यात्म के तत्वज्ञान के गूढ़ उपदेश व्यावहारिक रूप में ग्रामीण भाषा में समझाते थे। संभवतः अध्यात्म क्षेत्र का लोकशिक्षक बनने की तैयारी वे तभी से कर रहे थे। बाद में इसी महाप्राण को ढूंढ़ती स्वयं ऋषिसत्ता उनके समक्ष कुछ वर्ष बाद आई और हिमालय अपने पास बार-बार बुलाया।
पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी के दिन सन् 1926 को गुरुसत्ता (दादागुरु स्वामी सर्वेश्वरानंदजी) से साक्षात्कार हुआ। आचार्य जी के समस्त क्रिया-कलापों के प्रेरणास्रोत दुर्गम हिमालय में स्थित यही मार्गदर्शक गुरुसत्ता रही है। उनके निर्देश पर तपस्वी जीवन की शुरुआत हुई, जिसके अंतर्गत अखण्ड दीपक प्रज्वलित कर चौबीस वर्ष तक चलने वाले 24-24 लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों की शृंखला आरंभ हुई। परम पूज्य गुरुदेव ने साधनाकाल में साधना के साथ-साथ आहार शुद्धि की ओर भी ध्यान रखा। इस अवधि में गाय को जौ खिलाकर उसके गोबर से निकाले गए जौ की रोटी या सत्तू छाछ के साथ लेते रहे। पूज्य गुरुदेव को उनके मार्गदर्शक ने कहा—‘‘तुम्हें अखण्ड दीप हमारे संबंधों के रूप में स्थापित करना है, ताकि कोई किसी को भूलने न पाए। हम जिस प्रकाश-पुंज के रूप में आए थे, उसकी स्मृति सतत बनी रहे।’’