देवरहा बाबा : ‘‘गायत्री के सिद्ध साधक आचार्यश्री का मैं नित्यप्रति अभिनंदन करता हूं।’’
महात्मा आनंद स्वामी : ‘‘आचार्यश्री ने गायत्री को जन-जन की बनाकर महर्षि दयानंद के कार्य को आगे बढ़ाया है। गायत्री और वे एक रूप हैं।’’
करपात्री जी : ‘‘आचार्यजी इस युग में गायत्री के जनक हैं।’’
स्वामी अखंडानंदजी सरस्वती : ‘‘जो गायत्री का गंगाजल की तरह सेवन करना चाहते हों, वे आचार्यजी का मार्ग अपनाएं।’’
जुगल किशोर बिड़ला : ‘‘मैंने गुरुदेव में साक्षात ब्राह्मण के दर्शन किए हैं।’’
राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा : ‘‘आचार्यजी ने सिद्धांत और साधना को आधुनिक युग के अनुकूल तर्क व शब्द देकर सामाजिक परिवर्तन का जो मार्ग दिखाया है, उसके लिए अपने वाली पीढ़ियां युगों-युगों तक कृतज्ञ रहेंगी।’’
आचार्य निरंजननाथ : ‘‘मैंने पाया कि उनमें (पूज्य गुरुदेव के) मानव सेवा की तड़पन, साधना का प्रकाश, प्रेम का सौरभ और विरक्ति की सौम्यता बहुत ही अधिक है, उनका पांडित्य आध्यात्मिक क्षेत्र का प्रकाश स्तंभ है, गांधीजी के प्रवचनों की शालीनता, रामकृष्ण परमहंस की सहजता और नेहरूजी की निश्चिंतता का संगम उनकी अभिव्यक्ति में मिलता है।’’
हिमालयवासी महान सिद्धपुरुष स्वामी विशुद्धानंदजी परमपूज्य गुरुदेव के संबंध में कहते हैं—‘‘आचार्यजी आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान के पारदर्शी मनीषी हैं, उन्होंने अपने को घनघोर तपस्या में तपा-तपाकर अष्टधातु का बना लिया है। आचार्य जी असंख्यों को पार करने वाले अनुभवी मल्लाह हैं, वे महान पैदा हुए हैं, महानता के साथ जी रहे हैं और उनका अंत भी महान ही होगा।’’
स्वामी कल्याणदेव जी : ‘‘मेरा और आचार्यजी का संबंध कृष्ण और सुदामा जैसा था। लोग मथुरा-वृंदावन मंदिरों के दर्शन करने जाया करते हैं। मैं आचार्यजी के यज्ञ के दर्शनों के लिए मथुरा जाया करता था।’’
समग्र आर्ष साहित्य जब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन को भेंट किया गया, तो उन्होंने कहा—‘‘यदि यह ज्ञान नवनीत मुझे कुछ वर्ष पूर्व मिल गया होता तो संभवतः में राजनीति में प्रवेश न कर आचार्यश्री के चरणों में बैठा अध्यात्म दर्शन का शिक्षण ले रहा होता।’’
ग्वालियर में मुरार कार्यक्रम के अवसर पर विनोबा जी निवास स्थान पर जाकर एक कार्यकर्त्ता ने परम पूज्य गुरुदेव के वेदभाष्य भेंट किए। यह वेदभाष्य का प्रथम प्रकाशन था। विनोबा जी ठहरे ठेठ सत्यवादी वेदों को बिना उलटे-पलटे हुए बोले—‘‘अभी मैं आपकी भेंट के बारे में कुछ नहीं कह सकता, कल सुबह आना।’’
प्रातः पहुंचने पर वे वेद वापस करने लगे, लेते हुए कार्यकर्त्ता थोड़ा मलिन मन था और आश्चर्यचकित भी। उसके आश्चर्य को तोड़ते हुए बोले—‘‘मेरे शाम के कार्यक्रम में आना वहीं यह भेंट मैं स्वीकार करूंगा।’’ ऐसी अमूल्य भेंट व्यक्तिगत नहीं, सार्वजनिक स्तर पर स्वीकारी जानी चाहिए। शाम को कार्यक्रम में कार्यकर्त्ता को मंच पर बुलाया, वेदों को उसके हाथ से लेते हुए, मस्तक झुकाकर वेद भगवान को प्रणाम करते हुए, उन्होंने घोषणा की कि कल रात मैंने इस वेदभाष्य को भली प्रकार देखा है। ऐसा सुंदर भाष्य कोई सुंदर ऋषि ही कर सकता है। अन्य में भला ऐसी सामर्थ्य कहां? विनोबा जी भलीपूरी सभा में काफी देर तक वेदभाष्य की प्रशंसा में बोलते रहे।