श्रीरामनवमी सन् 1984 से परम पूज्य गुरुदेव ने अपने मार्ग दर्शक के निर्देशन पर सूक्ष्मीकरण की साधना (आध्यात्मिक पुरुषार्थ की चरम पराकाष्ठा)—(1) वायुमंडल के परिशोधन, (2) वातावरण के परिष्कार, (3) नवयुग के निर्माण, (4) महाविनाश के निरस्तीकरण, (5) देवमानवों के उत्पादन- अभिवर्द्धन हेतु प्रारंभ की, जिसे सफलतापूर्वक वसंत पंचमी 1986 को पूर्ण किया। इन्हीं दिनों उन्होंने राष्ट्र एवं विश्व कुण्डलिनी जागरण की साधना भी संपन्न की। उसी के पश्चात महाकुंभ के समय सन् 1986 में ही अध्यात्म के ध्रुवकेंद्र (हिमालय) में निवास करने वाली ऋषि-आत्माओं का आवाहन करके, उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करके अनुपम कार्य संपन्न किया। इस प्रकार शांतिकुंज ब्रह्मवर्चस, गायत्री तीर्थ एक प्रकार से भगीरथ, परशुराम, चरक, व्यास, याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, वसिष्ठ, पतंजलि सहित सभी ऋषिसत्ताओं का प्रतिनिधित्व करता है।
परम पूज्य गुरुदेव की आयु के 75 वर्ष पूरे होने पर सन् 1986-87 को हीरक जयंती वर्ष मनाया गया। देशभर में 108 कुण्डीय गायत्री महायज्ञों व राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों की शृंखला चलाई गई। परम पूज्य गुरुदेव ने सन् 1988 से यज्ञविधा के व्यापक प्रचार हेतु दीपयज्ञों की शृंखला चलाई। कम साधन तथा कम समय में संपन्न होने वाली यह यज्ञविधा सरलता से विश्वव्यापी बनती चल गई।
सन् 1988 आश्विन नवरात्रि से पूज्यवर ने सूक्ष्म जगत के परिशोधन एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु, मनुष्य में देवत्व के उदय, धरती पर स्वर्ग के अवतरण को संभव बनाने के उद्देश्य से बारह वर्षीय सामूहिक महासाधना, ‘गायत्री तीर्थ शांतिकुंज’ से प्रारंभ की। धर्म-अध्यात्म, गायत्री महाविद्या, जीवन जीने की कला, समग्र आरोग्य, व्यक्ति, परिवार व समाज निर्माण तथा वैज्ञानिक अध्यात्मवाद आदि अनेक विषयों पर उन्होंने कई हजार से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। पुराणों की शृंखला में परम पूज्य गुरुदेव ने प्रज्ञा पुराण कई खण्डों में तथा प्रज्ञोपनिषद की रचना इन्हीं दिनों की। साहित्य लेखन क्रम में ही 1988 से 1990 के बीच उन्होंने अति महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी साहित्य लिखा, जिसे ‘क्रांतिधर्मी साहित्य’ कहा जाता है।
एक काया के रहते हुए उन्होंने ऐसा लेखन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया और अपने वजन की तौल से दोगुना लिखकर चले गए हैं। नियमित पढ़ना व पत्रिका तथा पुस्तकों के लिए लिखना, जिसमें कभी व्यतिक्रम नहीं हुआ। स्वाध्याय द्वारा जो पढ़ा, दैवी सत्ता ने जो ज्ञान उन्हें दिया, उसे वे बहुमूल्य विचारों के रूप में तथा सशक्त संजीवनी के रूप में लिपिबद्ध करते गए। लिखते समय कभी संदर्भ ग्रंथ सामने नहीं रखते थे। मानव जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं बचा, जिस पर उन्होंने साहित्य न लिखा हो। अपने समय में वे इतना कुछ लिखकर रख गए हैं कि आने वाले कई वर्षों तक पत्रिकाएं सतत प्रकाशित होती रहेंगी। गुरुदेव की लेखनी दो तरह से चली—एक प्यार व ममत्व भरा व्यक्तिगत परामर्श व्यक्ति को पत्र द्वारा स्वयं की लेखनी से देते थे। दूसरे लेखों के रूप में जिनमें व्यक्तिगत, परिवार व समाज से जुड़ी समस्याओं का अध्यात्म परिप्रेक्ष्य से समाधान समाहित रहता था।