परम पूज्य गुरुदेव ने 60 वर्ष की आयु में 20 जून सन् 1971 को मथुरा छोड़कर एक वर्ष हिमालय में उग्र तपश्चर्या हेतु प्रस्थान किया। वंदनीया माताजी के मार्गदर्शन में शांतिकुंज, हरिद्वार में नए शक्तिकेंद्र का संचालन प्रारंभ हुआ। सन् 1971 में जब परम वंदनीया माता जी ने पत्रिका संपादन, तप द्वारा शक्ति उपार्जन, अनुदान वितरण की महती जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली, तब यह वंदनीया माताजी के लिए सन् 1959 की तुलना में और भी अधिक कठिन परीक्षा का समय था। नया स्थान, साथ में कुमारी कन्याएं जिन्हें साधना पथ पर प्रशस्त करना था, मात्र तीन कार्यकर्त्ता ही साथ में थे। शांत-साधना के लिए तो सर्वाधिक उपयुक्त स्थान था, किंतु मथुरा में आते-जाते रहने वाले आगंतुक परिजनों के आने-जाने का क्रम नहीं के बराबर था। पूज्यवर भी साथ नहीं थे। अतः यह वंदनीया माताजी के लिए और भी कड़ी परीक्षा की घड़ी थी।
वंदनीया माता जी ने देवकन्याओं को साथ लेकर अखण्ड दीप के सान्निध्य में 24 घंटे अखण्ड जप का क्रम चलाया। लगभग छह घंटे नित्य जप करने से एक वर्ष में 24 लाख जप पूरा होता है। इस प्रकार 6×4=24 घंटे जप चलने से 6 वर्ष की अवधि में ही चौबीस-चौबीस लक्ष के 24 महापुरश्चरण पूरे हो गए।
बाद में देव कन्याओं के माध्यम से ही एक वर्षीय कन्या प्रशिक्षण सत्र तथा तीन माह वाले महिला प्रशिक्षण सत्र परम वंदनीया माता जी के सान्निध्य में चलाए गए।
सन् 1972 की गायत्री जयंती के बाद से शांतिकुंज, हरिद्वार में दुर्गम हिमालय में कार्यरत ऋषियों की परंपरा का बीजारोपण कर, उसे एक सिद्धपीठ के रूप में विकसित किया गया। सन् 1972-73 में गुरुदेव ने भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु, विदेश यात्रा की तथा वहां से लौटकर ‘समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान’ नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की। परमपूज्य गुरुदेव ने जाग्रत आत्माओं के लिए शांतिकुंज में प्राण-प्रत्यावर्तन, चांद्रायण कल्प, संजीवनी साधना, जीवन-साधना, वानप्रस्थ सत्र, युगशिल्पी सत्र आदि अनेक तरह के सत्रों का आयोजन किया। विशाल शांतिकुंज परिवार के अंतर्गत हजारों पूर्ण समयदानी कार्यकर्त्ताओं का उनके आह्वान पर आगमन हुआ एवं उन्होंने गुरुदेव के पदचिह्नों पर चलने का संकल्प लिया।