विशेष समय पर विशेष प्रयोग उन्होंने दैवी सत्ता के निर्देशन पर किए। (सूर्य का प्राण) सविता शक्ति को आत्मसात कर, महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए 1957 गायत्री जयंती से अपने मार्गदर्शन में लगभग एक लाख व्रतधारी धर्मसेवकों को राष्ट्र निर्माण में जुटाया, जिन्होंने गायत्री उपासना में रत रहकर 52 दिन का उपवास, ब्रह्मचर्य, भूमि शयन आदि कठोर साधनाएं भी कीं, इस सामूहिक साधना की पूर्णाहुति, एक हजार कुण्डों की यज्ञशालाओं में कार्तिक सुदी 12 से पूर्णिमा तक चार दिन में संपन्न हुई (23 से 26 नवंबर 1958), जिसमें लाखों याज्ञिकों के द्वारा आहुतियां दी गईं।
इस महापुरश्चरण की पूर्णाहुति में निर्धारित जप का करना था। देशभर के गायत्री उपासकों को बुलाया गया, जिन्होंने समस्त विधि विधानों को पूरा कर गायत्री उपासना संपन्न की। ज्ञानवृद्ध, आयुवृद्ध, लोकसेवी पुण्यात्मा संत पुरुषों के पते भी मांगे गए, पता लगाकर ऐसे सभी मथुरा में सन् 1958 में सहस्रकुण्डीय यज्ञ में आमंत्रित किए गए। प्रसन्नता की बात थी कि उनमें से एक भी अनुपस्थित नहीं रहा। पांच दिन तक निवास, भोजन, यज्ञ आदि का निःशुल्क प्रबंध रहा। विशाल यज्ञशाला, प्रवचन, मंत्र, रोशनी, पानी, सफाई आदि का सुनियोजित प्रबंध था। मथुरा-वृंदावन मार्ग पर सात मील के घेरे में सात नगर बसाए गए। सारा कार्य निर्विघ्न पूरा हुआ। लाखों का खरच हुआ, पर उसकी पूर्ति बिना किसी के आगे पल्ला पसारे ही होती रही।
उसकी कुछ रहस्यमयी विशेषताएं ऐसी थीं, जिनके संबंध में सही बात कदाचित ही किसी को मालूम हो। एक लाख नैष्ठिक गायत्री उपासक देश के कोने-कोने में से आमंत्रित किए गए। वे सभी ऐसे थे जिन्होंने धर्मतंत्र से लोक शिक्षण का काम हाथों-हाथ संभाल लिया और इतना बड़ा हो गया जितने कि भारत के समस्त धार्मिक संगठन मिलकर भी पूरे नहीं होते। इन व्यक्तियों से पूज्य गुरुदेव का भौतिक परिचय बिलकुल न था, पर उन सबके पास निमंत्रण पत्र पहुंचे और वे अपना मार्ग व्यय खरच करके भागते चले आए। यह एक पहेली है जिसका समाधान ढूंढ़ पाना कठिन है।
दर्शकों की संख्या मिलाकर दस लाख तक प्रतिदिन पहुंचती रही। इन्हें सात मील के घेरे में ठहराया गया था। किसी को भूखा नहीं जाने दिया। किसी से भोजन का मूल्य नहीं मांगा गया। खाद्य सामग्री मुट्ठी भर थी। इतनी जो एक बार में बीस हजार के लिए भी पर्याप्त न होती, पर भंडार अक्षय हो गया। पांच दिन के आयोजन में प्रायः 5 लाख से अधिक खा गए। पीछे खाद्य सामग्री बच गई, जो उपयुक्त व्यक्तियों को बिना मूल्य बांटी गई, व्यवस्था ऐसी अद्भुत रही, जैसी हजारों कर्मचारी, नौकर रखने पर भी नहीं कर सकते थे।
इतना विशाल यज्ञ महाभारत के उपरांत दूसरा नहीं हुआ। उस महान ऐतिहासिक यज्ञ के बाद लगभग 6000 गायत्री परिवार शाखाओं का गठन हुआ। इसे पूज्य गुरुदेव के अध्यात्म जगत के सूक्ष्म पुरुषार्थ का स्थूल प्रतिफल कहा जा सकता है। संगठन का अधिकाधिक भार वंदनीया माता जी पर ही था। सन् 1959 में पत्रिका के संपादन का कार्य सौंपकर सन् 1961 तक के लिए परम पूज्य गुरुदेव हिमालय चले गए, जहां गुरुसत्ता से मार्गदर्शन लेना था। हिमालय से लौटते ही उन्होंने महत्त्वपूर्ण निधि के रूप में चारों वेद, 18 पुराण, 108 उपनिषद्, योगवासिष्ठ, 20 स्मृतियां, छह दर्शन एवं 24 गीताओं सहित अनेक आर्षग्रंथों के जन सुलभ अनुवाद संपन्न किए। आर्ष वाङ्मय का पुनरुद्धार वस्तुतः परमपूज्य गुरुदेव की पूरे समाज को एक महत्त्वपूर्ण देन है, जिसका सही मूल्यांकन अभी भी किया जाना है। सन् 1963 में युग निर्माण योजना व युग निर्माण सत्संकल्प के रूप में मिशन का घोषणा पत्र प्रकाशित हुआ।
वे पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार एक वर्ष (1960-61) हिमालय अज्ञातवास में रहे। वंदनीया माताजी ने अखण्ड ज्योति संस्थान एवं गायत्री तपोभूमि की व्यवस्था देखी। हिमालय के उसी प्रवास काल की अनुभूतियां ‘सुनसान के सहचर’ नामक पुस्तक में संकलित हैं। इस यात्रा से लौटने पर ही पूज्य गुरुदेव ने हिमालय तथा अपनी गुरुसत्ता से अपने संबंधों के बारे में बतलाना प्रारंभ किया। युग निर्माण योजना की घोषणा तथा युग निर्माण सत्संकल्प का प्रकटीकरण भी इसी क्रम में किया गया। उसी समय उन्होंने वह घोषणा भी कर दी थी कि वे मात्र 10 वर्ष के लिए आए हैं, इसके बाद (सन् 1971 में) अनिश्चितकाल के लिए हिमालय चले जाएंगे, मथुरा छोड़ देंगे।