राजनीति में हमारी भूमिका

अब करना है भूल सुधार

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        प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह शासन- संचालन करने वाली मशीन कैसे उत्कृष्ट बने? तो फिर बात लौटकर वहीं आ गई। सरकारी कर्मचारी आकाश से नहीं उतरते। वे जनता के ही बालक होते हैं। उनने अपने घर- परिवार से सम्बद्ध समाज में जो कुछ देखा, सुना, समझा, अनुभव किया है, उसी के आधार पर उनका मानसिक स्तर एवं चरित्र ढला है। नौकरी पाते ही वे उन सारे संस्कारों को भुलाकर देवता बन जायें, यह आशा करना व्यर्थ है। उसी प्रकार पैसा लेकर वोट बेचने वाली, जाति- पाँति का पक्षपात करने वाली, व्यक्तिगत या क्षेत्रीय लाभ के प्रलोभनों से आकर्षित होने वाली अदूरदर्शी जनता से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह उन्हें चुनेंगी जो सुयोग्य एवं आदर्शवादी तो हैं, पर पैसा लुटाने या बहकने वाले हथकण्डे अपनाने में समर्थ नहीं। यह एक सच्चाई है कि प्रजातन्त्र में जनता के स्तर की ही सरकार बनती है और उसी स्तर की सरकारी मशीन चलती है।

        पार्टियों की सत्ता बदले, इससे कुछ बनता- बिगड़ता नहीं। पिछले कुछ दशकों में किसी पार्टी विशेष का एकाधिकार नहीं रहा। कई पार्टियों की अलग या सम्मिलित सरकारें बनीं। उन्होंने भी कोई अलग आदर्श प्रस्तुत नहीं किया, जिस कीचड़ में बड़ी पार्टियों का छकड़ा घिसट रहा था, उसी में खड़खड़ियाँ भी धँस गईं। सच्चाई यह है कि इन परिस्थितियों में कुछ हो ही नहीं सकता। प्रबुद्ध लोकमत जाग्रत हुए बिना— आया राम गया राम—की हथफेरी रुक ही नहीं सकती। अल्पमत को बहुमत में और बहुमत को अल्पमत में बदलने के लिये प्रलोभन और आतंक का वर्तमान दौर अनन्त काल तक चलता रहेगा, यदि विधायकों- सांसदों को अपनी जनता के रोष एवं अवरोध का भय उत्पन्न न हुआ तो। इसी प्रकार जो भी सरकारें सत्ता में आएँगी, उनके मन्त्री यदि अपने समर्थकों के, अपने क्षेत्र के लिए सरकारी मशीन से काम लेंगे, तो उन पुर्जों से अपने स्वार्थ साधने की भी छूट देनी होगी। फिर प्रशासन शुद्ध कैसे होगा?

        मूल समस्या यही है। किस पार्टी की सरकार बने, वह किन योजनाओं को कार्यान्वित करे, ये प्रश्न कम महत्त्व के हैं। अधिक महत्त्व के प्रश्न ये हैं कि चुनाव बिना खर्च कैसे कराएँ, उपयुक्त व्यक्तियों को चुनने का जन स्तर कैसे बने? और सरकारी मशीन में पुर्जे बनने वाले कर्मचारी घर से ही आदर्शवादी एवं भावना सम्पन्न बन कर वहाँ तक कैसे पहुँचें? यह समस्या पर्दे के पीछे दीखती है, पर है यही सबसे महत्त्वपूर्ण। इसे हल किये बिना तथाकथित प्रगति में खोखलापन ही बना रहेगा।

        प्रजातन्त्र की जड़ जनता है। जहाँ जनता का स्तर ऊँचा होगा वहीं प्रजातन्त्र सफल हो सकेगा। हमें यदि प्रजातन्त्र पसन्द है, तो उसकी सफलता की अनिवार्य शर्त जनता का भावनात्मक एवं चारित्रिक स्तर भी ऊँचा उठाना ही पड़ेगा, अन्यथा शिकायतें करते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा। स्वराज्य प्राप्ति के समय गाँधी जी इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए चिन्तित थे और जोर दे रहे थे कि काँग्रेस शासन में न जाए वरन् लोकमानस का निर्माण करने के अधूरे, किन्तु अति महत्त्वपूर्ण कार्य को सँभालने में ही दत्त चित्त होकर जुटी रहे।

        तथ्य-तथ्य ही रहेगा। आवश्यकता—आवश्यकता ही रहेगी। एक उसे पूरा नहीं करता, तो दूसरे को अपना कन्धा लगाना चाहिए। यही रचनात्मक तरीका है। स्वतन्त्रता संग्राम में १२ वर्ष तक निरन्तर मोर्चे पर लड़ते रहने वाले सैनिक के रूप में अड़े रहने के उपरान्त उस संग्राम की पूरक परिधियों के महत्त्व को हम समझते रहेंगे। हमारा विश्वास है कि बौद्धिक क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति एवं सामाजिक क्रान्ति की त्रिवेणी बहाए बिना तीर्थराज न बनेगा और उसमें स्नान किये बिना हमारे पाप- ताप न कटेंगे। राजनैतिक स्वतन्त्रता का लाभ तभी प्राप्त किया जा सकेगा, जब उसके साथ ही बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों को भी पवित्र और पुष्ट बनाया जाये। उसे परावलम्बी बनाने वाली कुटिलता के पाश से मुक्त कराया जाये।

        स्वतन्त्रता का एक चरण अभी प्राप्त हुआ। तीन मोर्चों पर लड़ा जाना अभी भी शेष है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम उसी प्रयत्न में निरन्तर प्रयत्नशील रहे हैं। दूसरे सैनिकों ने अपनी वर्दियाँ उतार दीं और राजमुकुट पहन लिये पर अपने लिये आजीवन उस चिन्तन लक्ष्य की ओर चलते रहना ही धर्म बन गया है। जिसके ऊपर राष्ट्र की सर्वतोमुखी समर्थता निर्भर है। राष्ट्र की बात ही क्यों सोचें, विश्वकल्याण का मार्ग भी यही है। जनजागरण और लोकमानस में उत्कृष्टता, आदर्शवादिता का बीजांकुर बोया जाना वस्तुतः इस धरती पर स्वर्ग के अवतरण का अभिनव प्रयोग है। हम इसी दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया को हाथ में लेकर धर्म, साहस, निश्चय और प्रबल पुरुषार्थ के साथ आगे बढ़ रहे है और जहाँ तक हमारा प्रभाव क्षेत्र है, उसे उसी दिशा में घसीटते लिये चल रहे हैं।

        हम जानते हैं कि जनमानस के अन्तरंग का स्पर्श करने और कोमल भावनाओं को संवेदनशील बनाने की क्षमता राजतन्त्र में नहीं है। उसकी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति दूसरी है। कूटनीति, राजनीति का पर्यायवाची बन गयी है। उस स्तर में जो कुछ होगा लोग उसमें अकारण ही किसी कूटनीति या दुरभिसन्धि की गन्ध सूँघेंगे। इसलिए राजतन्त्र के द्वारा इस प्रकार के प्रयत्न या प्रयोग जब कभी हुए हैं, उन्हें असफलता ही हाथ लगी है। यह क्षेत्र वस्तुतः धर्म एवं दर्शन का है। बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति के लिए विचारणा का स्तर बहुत गहराई से बदलना होगा। उथला बदलाव कोई स्थिर परिणाम उत्पन्न न करेगा। इस प्रयोजन की पूर्ति में केवल धर्मतन्त्र ही समर्थ हो सकता है।

        राजनैतिक स्तर पर बाल- विवाह, छुआ- छूत निवारण, दहेज उन्मूलन, व्यभिचार विरोधी कानून बने हुए हैं, पर उनको कितना मान मिला और कितना परिणाम निकला यह सबके सामने है।

        भौतिक सुधार कराना राजतन्त्र का क्षेत्र है। भावनात्मक सुधार के लिए प्रजातन्त्र के वातावरण में केवल धर्मतन्त्र ही समर्थ हो सकता है। प्रजातन्त्र हटाकर अधिनायकवाद आना है तो आतंक के आधार पर विचार परिवर्तन भी सम्भव है, पर वह प्रयोग महँगा है। व्यक्ति की विचार स्वतन्त्रता अपहृत हो जाने पर वह एक मशीन मात्र रह जाता है और सांस्कृतिक प्रगति की जिस महान् प्रक्रिया ने मानव जाति को यहाँ तक पहुँचाया उसका द्वार ही बन्द हो जाता है। हम प्रजातन्त्र पसन्द करते हैं। उसमें बहुत खूबियाँ और सम्भावनाएँ सन्निहित हैं। फिर प्रजातन्त्र की परिधि में जनमानस का निर्माण करना धर्म एवं अध्यात्म का ही क्षेत्र रहता है।

        हम यही कर रहे हैं। धर्म और अध्यात्म को हमने मानव जाति की समग्र प्रगति के लिए नियोजित किया है। पिछले दिनों उसमें जो अवांछनीयताएँ घुस पड़ी थीं, उन्हें सुधारा है। धर्ममंच अब तक प्रतिगामियों का दुर्ग समझा जाता है, हमने उसे नई दिशा दी है और उसकी मूल प्रवृत्ति, प्रगतिशीलता को उभारा है। धार्मिक प्रथा परम्पराओं, रीति- रिवाजों, कर्मकाण्डों और मान्यताओं के बाह्य स्वरूप को यथावत रखते हुए उनकी दिशा और प्रवृत्ति में क्रान्तिकारी परिवर्तन प्रस्तुत किये हैं। यही कारण है कि जिस क्षेत्र की ओर से नाक- भौं सिकोड़ी जाती थी और जिसे निराशाजनक माना जाता था, अब उसे मानवीय प्रगति की निर्णायक भूमिका सम्पादन करने में समर्थ माना जाने लगा है।

        पिछले दिनों (धार्मिक अन्धविश्वासों से) क्षुब्ध कुछ लोग (आस्थाओं की) तोड़- फोड़ में लग गए थे। वे दीर्घकालीन परम्पराओं को उखाड़कर आमूल- चूल परिवर्तन लाना चाहते थे। वे भूल जाते थे कि ८० प्रतिशत देहातों में बसे हुए और ७७ फीसदी अशिक्षित देश के लिये धर्म परम्पराओं में क्रान्तिकारी तोड़- फोड़ सरल नहीं है। वे प्रयत्न भी लगभग असफल हो गए। अपनी सुधारात्मक प्रक्रिया आँधी- तूफान की तरह इसलिए सफल होती चली जा रही है कि हमने धर्म-प्रथाओं एवं कलेवरों के बाह्य स्वरूप में हेर- फेर किये बिना उनके मूल प्रयोजन में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया है।

        इस प्रकार परोक्ष रीति से हम राजनीति में भाग ले रहे हैं और राजनैतिक शुद्धता एवं प्रखरता की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं। प्रत्यक्ष राजनीति में बहुत लोग घुसे पड़े हैं। वहाँ इतनी भीड़ है जिसे बढ़ाया नहीं घटाया जाना चाहिए। प्रजातन्त्र की मूल शक्ति जनता में निहित रहती है। जनता अपना बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक स्तर ऊँचा उठाये बिना ऊँचे स्तर का शासन एवं राजनेतृत्व प्राप्त कर नहीं सकेगी।

        हम राजनीति से अलग नहीं हैं, न उसका मूल्य कम कर रहे हैं। बात इतनी भर है कि हम जड़ में खाद, पानी लगाने वाले माली बने रहना चाहते हैं। फूल और फल का व्यापार दूसरे लोग करें, इसमें न हमें कोई आपत्ति है और न ईर्ष्या। हम अनुभव करते हैं उथले राजनीतिज्ञों की अपेक्षा हम अधिक ठोस और अधिक महत्त्वपूर्ण नीति अपना रहे हैं और हमारे प्रयत्नों का फल किसी भी राजनैतिक पार्टी या उसकी सरकार की अपेक्षा अधिक सत्परिणाम उत्पन्न करेगा। गाँधी जी का जनमानस निर्माण का काम अधूरा रह गया, हमें उनके शेष काम को पूरा करने वाले कुली, मजदूर की तरह जुटे रहना मंजूर है। दूसरे लोग अपने तप का प्रतिफल चखें- चखते रहें। अपने मुँह से उसके लिये लार टपकने वाली नहीं है। हम स्वस्थ राजनीति के विकसित हो सकने के सम्भावना वाला भवन बनाने में नींव के पत्थर मात्र बनकर रहेंगे और जो भी हमारे प्रभाव सम्पर्क में आयेगा, उसे इसी दिशा में प्रेरित, आकर्षित करते रहेंगे।

        इस सन्दर्भ में युगऋषि ने समाज के प्रबुद्ध जनों को लक्ष्य करके उनसे भी इस दिशा में प्रयास करने की अपील की है। उनके कथन का सारांश कुछ इस प्रकार है-

        धर्म क्षेत्र में कार्य कर रहे अन्य संगठन भी इस दिशा में सार्थक प्रयास कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें धर्मतंत्र के मर्म को समझते हुए सम्प्रदाय तंत्र से ऊपर उठकर सोचना होगा।

        धर्म उस अनुशासन का नाम है, जो मनुष्य को पशुता की ओर जाने से रोककर देवत्व की दिशा में प्रेरित करता है। जैसे शारीरिक व्यायाम वही श्रेष्ठ है, जो शारीरिक आरोग्य और स्वास्थ्य प्रदान करें, उसी प्रकार बड़ी धार्मिक आचार व्यवहार श्रेष्ठ है, जो मनुष्यों का चारित्रिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य उत्तम बना सकें।

        इस दिशा में कार्य करने वाले सामाजिक संगठनों को ‘प्रजातंत्र’ के पक्ष में ‘पार्टी तंत्र’ से ऊपर उठाना होगा।
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