इन विपन्न परिस्थितियों से देश को उबारने के लिए यों छुट- पुट प्रयत्न बहुत पहले से चल रहे थे पर उन्हें सुसंगठित और सुसंचालित होने का श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व को मिला। वे असली कारण जानते थे और प्रयत्नशील थे कि रचनात्मक कार्यों और बौद्धिक जागरण, स्वतन्त्र चिन्तन के माध्यम से प्रजा के मनोबल, चरित्र स्तर, स्वाभिमान एवं शौर्य को जगाया बढ़ाया जाए। स्वतन्त्रता संग्राम वे धीरे- धीरे चला रहे थे। क्रान्तिकारियों से उनके मतभेद का मूल कारण यह था कि वे चाहते थे स्वराज्य धीरे- धीरे उस क्रम से आये जिस क्रम से देश उसे सँभालने योग्य प्रतिभा अपने में पैदा कर ले।
स्वतन्त्रता संग्राम के साथ चर्खा, खादी, हरिजन सेवा, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय शिक्षा, सफाई जैसी प्रवृत्तियों को जोड़ देना यों बहुत अटपटा लगता है। असहयोग आन्दोलन और सत्याग्रह की दार्शनिकता कितनी ही ऊँची क्यों न हो? पर उसका व्यावहारिक पक्ष यह था कि इन सरलतम उपायों द्वारा जनता अपनी मूल चेतना विकसित करे और स्वराज्य धारण कर सकने में समर्थ हो जाये। वे जानते थे कि विभूति प्राप्त करने से अधिक कठिन उसे पचाना होता है। शक्ति की असली परीक्षा कोई सफलता प्राप्त कर लेना भर नहीं है; वरन् उसके सदुपयोग से ही प्राप्तकर्ता का गौरव आँका जाता है। भगीरथ गंगा अवतरण की पृष्ठभूमि बनाने में सफल हो गए थे, पर उस धारा को सुव्यवस्थित रूप में प्रवाहित करने के लिए शंकर जी को अपनी जटाएँ फैलानी पड़ीं। यही सर्वत्र होता है। गाँधी जी के मन में स्वराज्य प्राप्ति करने की जल्दी नहीं थी, वे जनता को उस आन्दोलन महायज्ञ से प्रबुद्ध, सतर्क और सक्षम बना रहे थे।
क्रान्तिकारी कहते थे कि बिना शस्त्र धारण किये और मजबूरी प्रस्तुत किये बिना अँग्रेज जाने वाले नहीं हैं। बात उन्हीं की सच निकली। सन् १९४२ में क्रान्तिकारी तोड़- फोड़ ने सिद्ध कर दिया कि असहयोग सत्याग्रह नहीं शस्त्र धारण ही वर्तमान स्थिति में राज क्रान्तियों की अनिवार्य आवश्यकता है। इस तथ्य को गाँधी जी भी जानते थे। वे स्वराज्य की उतावली में न थे, जनता की उन दुर्बलताओं को हटाने में लगे थे, जो पिछले हजार वर्ष के अज्ञानान्धकार युग में पीढ़ी दर पीढ़ी के हिसाब से चलते रहने पर उसके स्वभाव में सम्मिलित हो गई थीं। अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने जब भारत को स्वराज्य दिला ही दिया था, तो वे इन असामयिक उपलब्धियों से जितने प्रसन्न थे, उतने ही चिन्तित भी। जन जागरण का प्रयोजन पूरा नहीं हो सका था। इसलिए उन्हें चिन्ता थी कि इस गंगावतरण का सुसंचालन कैसे होगा?
उन दिनों उन्होंने एक अति महत्त्वपूर्ण सुझाव रखा था कि काँग्रेस लोकसेवी संस्था का रूप धारण करे और जन जागरण के नितान्त आवश्यक कार्य में ही जुटी रहे। राजतन्त्र चलाने के लिये एक उस स्तर के लोगों की पिछली पंक्ति बना दी जाये। प्रजा पर प्रभाव रखकर काँग्रेस, राजनेताओं की नियुक्ति एवं उनकी रीति- नीति पर नियन्त्रण करे, पर स्वयं उससे पृथक् रहकर वह जन- मानस के परिष्कार का मूल प्रयोजन पूरा करे, जो किसी राष्ट्र की सर्वतोमुखी प्रगति का- यहाँ तक कि सुशासन का भी मूल आधार है।