प्रेरणाप्रद भरे पावन प्रसंग

चित्तरंजन दास

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     सन् १९०८ की बात है भारतवर्ष का राजनैतिक वातावरण पूरी तरह गर्म हो रहा था। देश भर में "स्वदेशी आंदोलन" की धूम मची हुई थी। "अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करो" की ध्वनि से आकाश गूजँ रहा था। भारतवासियों की इस विद्रोही भावना को देखकर ब्रिटिश अधिकारी भी कुपित होकर दमन पर तुल गये। देश के सैकड़ों सुप्रसिद्ध नेता और कार्यकर्ता गिरफ्तार किए और ले जाकर जेलों में बन्द कर दिये गये। स्वदेशी-प्रचार की सभाओं को पुलिस लाठी चलाकर भंग कर रही थी। अनेक स्थानों में तो "वन्देमातरम्" कहने पर गिरफ्तार कर लिए जाते थे। इस प्रकार जनता और सरकारी अधिकारियों में भयंकर संघर्ष हो रहा था। भारतीय नर-नारी अपने जन्मसिद्ध अधिकारों की माँग कर रहे थे और सरकारी कर्मचारी आंदोलन को कुचल डालना चाहते थे।
      सरकार के दमन चक्र का प्रतिकार करने के लिए देश के कुछ नवयुवकों ने शांतिपूर्ण आंदोलन का मार्ग त्यागकर शस्त्र-बल का आश्रय लेने का निश्चय किया। खुले तौर पर तो अंग्रेजों की आधुनिक, अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सेना का मुकाबला कर सकना मुट्ठी भर व्यक्तियों के लिए संभव न था, इसलिए इन क्रांतिवादियों ने गुप्त-संगठन बनाये और छिपे तौर पर बम बनाने तथा पिस्तौल आदि एकत्रित करने का कार्य आरंभ किया। बंगाल के क्रांतिकारी दल ने अपना सबसे पहला लक्ष्य कलकत्ता के एक मजिस्ट्रेट मि० किंग्सफोर्ड को बनाया। वे स्वदेशी आंदोलन में पकडे़ जाने वाले व्यक्तियों को कड़ी-कड़ी सजायें दे रहे थे। एक पंद्रह वर्ष के लड़के को उन्होंने बेंत लगाने की भी सजा दी। इस पर क्रुद्ध होकर क्रांतिकारी दल ने मि० किंग्सफोर्ड को मारने का आदेश दे दिया।
              क्रांतिकारियों की धमकी से डरकर मि० किंग्सफोर्ड ने अपना तबादला मुजफ्फरपुर करा लिया था। इस कारण गुप्त-दल के दो सदस्य खुदीराम और प्रफुल्लचंद्र चाकी उनको मारने वहीं पहुँचे। उन्होंने उनकी गाडी़ पर बम तो फेंका, पर उस समय उसमें मि० किंग्सफोर्ड के बजाय दो अंग्रेज महिलायें बैठी थीं, जिनका देहांत उसी समय हो गया। इस घटना से सरकारी क्षेत्र में रोष और बदहवासी का तूफान आ गया और भारतीय आंदोलनकारियों के विरुद्ध विषोद्गार प्रकट किये जाने लगे। ऐंग्लो इंडियनों के मुखपत्र 'पायोनियर' ने तो यहाँ तक लिख डाला कि "अगर कहीं एक अंग्रेज मारा जाता है' तो उसके बदले दस भारतवासियों को फाँसी दे देनी चाहिए"
    सरकारी खुफिया पुलिस ने जाँच करके खुदीराम को शीघ्र ही पकड़ लिया और प्रफुल्ल चाकी ने गिरफ्तार होते समय पिस्तौल से गोली मारकर अपना अंत कर लिया। पर मामला यहीं खत्म नहीं हो गया। सरकार को विश्वास हो गया कि इन हत्याओं के पीछे कोई बडा़ षड्यंत्र है, इसलिये मुख्य कार्य उसके नेताओं का पता लगाना और दंड देना है। कुछ दिन बाद पुलिस जासूसों ने कलकत्ता में एक बम फैक्टरी का पता लगा लिया और २६ व्यक्तियों को गिरफ्तार किया, 'युगान्तर पार्टी' नामक संस्था के सदस्य थे। इसके कुछ ही समय बाद श्री अरविन्द घोष को भी हिरासत में ले लिया गया, जो उस समय 'नेशनल कॉलेज' के प्रिंसिपल और 'वन्देमातरम् 'अंग्रेजी दैनिक पत्र के संचालक थे।

"वकालत" का अपूर्व आदर्श-

         मुकदमा बडी़ धूमधाम से चला। यद्यपि 'बम कांड' से अरविन्द का कोई प्रत्यक्ष संबंध न था और वे देश के एक प्रसिद्ध सार्वजनिक नेता और चोटी के विद्वान् थे, पर सरकार का सबसे बडा़ रोष उन्हीं पर था। वह जानती थी कि अपने लेखों और भाषणों से उन्होंने नवयुवकों में वह भावना भरी है, जिससे वे इस प्रकार देश के लिए प्राण देने को तैयार हो गये हैं। इसलिए सरकारी वकील मि० नार्टन ने तरह-तरह के प्रमाणों की भरमार करके चार महीने तक सरकारी पक्ष उपस्थित किया, जिसमें अदालत द्वारा दो सौ गवाह, चार हजार कागज-पत्र और पाँच सौ दूसरे सबूत जैसे-बम, विस्फोटक पदार्थ आदि की जाँच की गई। अंग्रेज सरकार द्वारा लाखों रुपया खर्च करके हर तरह से यह चेष्टा की गई कि श्री अरविन्द को मृत्युदण्ड या कड़ी से कड़ी सजा दी जाय। पर उनकी तमाम कोशिश निरर्थक सिद्ध हुई और अंग्रेज जज को बाध्य होकर श्री अरविन्द को छोड़ देना पडा़। इस आश्चर्यजनक फैसले का समस्त श्रेय था श्री अरविन्द की वकालत करने वाले-श्री चितरंजन दास को।
          यद्यपि भारतवर्ष में प्रतिभाशाली वकीलों की कमी नहीं है। बीते समय में कानून के एक से एक दिग्गज पचासों विद्वान् ऐसे हो चुके हैं, जिनका नाम अदालती-इतिहास में स्थायी हो गया और जो अपार संपत्ति के साथ सार्वजनिक यश और कीर्ति के भी भागीदार बन सके, पर उन सब में श्री चितरंजन का-सा उदाहरण मिल सकना असंभव है। निस्संदेह इन प्रसिद्ध वकीलों ने महत्वपूर्ण अभियोगों में अपनी कानूनी योग्यता का अपूर्व परिचय दिया था, पर उसके लिए अपने मुवक्किल से फीस के रूप में बडी़-बडी़ रकमें भी प्राप्त की थीं। लेकिन श्री चितरंजनदास एक ऐसे वकील निकले जिन्होंने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में हद दर्जे की योग्यता प्रकट करके अपने मुवक्किल (श्री अरविन्द) को यमराज की दाढों में से सुरक्षित निकाल लिया और साथ ही इसके लिए जान बूझकर कई लाख रुपयों की हानि भी उठाई। इस प्रसंग पर टिप्पणी करते हुए उनके जीवन-चरित्र लेखक श्री हेमेंद्रनाथदास गुप्त डी० लिट० ने लिखा है-
            "चितरंजन ने अपने मुवक्किल को बचाने के लिए बडी़ मेहनत की। उन्होंने इस मुकदमे में अपनी सारी बुद्धि और शक्ति लगा दी तथा अपना पक्ष सशक्त करने के लिए तत्संबंधी उपलब्ध सभी फैसलों और कानूनों का अध्ययन किया। दस महीने तक चितरंजन ने अरविन्द के मुकदमे में रात-दिन एक कर दिया। उन्होंने इस मुकदमे को न केवल बिना किसी प्रकार की फीस के स्वीकार किया, बल्कि इसके कारण उनको अपनी घोडा़गाडी़ बेच देनी पडी़ और व्यक्तिगत रूप से कर्ज भी लेना पडा़। उनकी आमदनी बिलकुल बंद हो गई थी, जबकि खर्चे ज्यों के त्यों बने थे। जिस समय मुकदमा खत्म हुआ उन पर लगभग पचास हजार का ऋण था।"
     श्री अरविन्द ने भी अभियोग से रिहाई हो जाने के पश्चात उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा था-"अप्रत्याशित रूप से वह आगे आया मेरा वह मित्र"
     आप सब ने उसका नाम सुना है, जिसने अपनी सब चिंताओं को एक तरफ रख दिया, अपने सारे मुकदमे छोड़ दिये, महीनों आधी-आधी रात तक बैठा परिश्रम करता रहा और मुझे बचाने के लिए जिसने अपना स्वास्थ्य नष्ट कर लिया उसका नाम है- श्री चितरंजनदास। जब मैंने उसे देखा तो मैं संतुष्ट हो गया।"
          श्री चितरंजनदास के जीवन की एक यही घटना इतनी महत्त्वपूर्ण है, जिसके आधार पर उनको उच्चकोटि का 'महापुरुष' माना जा सकता है। वकील का पेशा हमारे देश में बहुत अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि उनमें से अधिकांश मुकदमों के ठीक या गलत होने का ख्याल छोड़कर अधिक से अधिक रूपया कमाने की कोशिश में ही लगे रहते हैं। यद्यपि देश के अधिकांश नेता आरंभ में वकील ही थे-महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक और मालवीय जी जैसे महान् नेता भी इसी क्षेत्र में से आये थे तो भी सामान्य जनता की दृष्टि में यह पेशा कभी प्रशंसनीय और श्रद्धास्पद नहीं समझा गया, पर दास बाबू ने श्री अरविन्द के अभियोग में स्वार्थ त्याग की हद करके यह दिखला दिया कि यदि मनुष्य के हृदय में सच्ची परोपकार-भावना हो तो यह प्रत्येक अवस्था में तदानुसार आचरण कर सकता है। जो परिस्थितियों का नाम लेकर समाज-सेवा के कार्यों से विमुख होकर रहते हैं, उनके लिए दास बाबू का उदाहरण शिक्षाप्रद हो सकता है।

त्याग और परोपकार का जन्मजात गुण-

     उदारता और न्याय का यह गुण श्री चित्तरंजनदास (सन् १८७० से १९२५) में आरंभिक जीवन से ही पाया जाता था। हम यह भी कह सकते हैं कि यह उनको पैतृक रूप से प्राप्त हुआ था। उनके पिता श्री भुवन मोहन भी कलकत्ता हाईकोर्ट के एक नामी वकील थे। पर वे स्वभाव के इतने उदार तथा स्वयं भी पर्याप्त खर्च करने वाले थे कि अपनी समस्त आय खर्च कर डालने पर भी कमी पड़ती रहती थी। एक बार उन्होंने अपने क्लर्क के कहने पर किसी व्यक्ति की जमानत दे दी। वह व्यक्ति धोखेबाज निकला और इस कारण भुवन मोहन पर ३० हजार रूपये की देनदारी आ गई। इसके अतिरिक्त पहले से भी उनके ऊपर कुछ ऋण था। जब उसको चुका सकना संभव ना हो सका और कर्ज देने वाले अदालत में पहुँच गये तो उन्हें कानून के अनुसार 'दिवालिया' घोषित कर दिया गया।
     दास बाबू की माता श्रीमती निस्तारिणी देवी भी बडी़ विशाल हृदय वाली, दूसरों के दुःख दर्द में सहायक होने वाली और न्याय परायण थीं। अपने पति के अत्यधिक खर्चों के कारण उनको प्रायः गृहस्थी की व्यवस्था में कठिनाईयाँ पड़ती रहती थीं, पर वे उनसे कभी नहीं घबराई और बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ हर तरह की परिस्थिति का सामना करती रहीं। दास बाबू के परिचितों का मत है कि उन पर पिता से भी अधिक अपनी माता का प्रभाव पड़ा था और इसी से वे सदैव न्याय के लिए बड़ा त्याग करने को तैयार रहे।
           
 आरंभिक जीवन में देशभक्ति की भावना-

     उदार और त्यागी होने के साथ उनमें देशभक्ति का गुण भी छोटी अवस्था में ही उत्पन्न हो गया था। नौ वर्ष की आयु में ही, जब स्कूल में दाखिल हुए, वे देशभक्तिपूर्ण कविताओं के प्रेमी बन गये थे और उन्हें उत्साहपूर्वक गाया करते थे। उन्हीं दिनों वे श्री विपिन चंद्र पाल से परिचित हो गये, जो सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्र के एक अग्रगामी कार्यकर्ता थे। इन बातों का प्रभाव यह हुआ कि विद्यार्थी अवस्था में ही वे सार्वजनिक कार्यों से अनुराग रखने लगे और जब आई० सी० एस० की परीक्षा पास करने इंगलैंड गये तो वहाँ भी दादाभाई नौरोजी को पार्लियामेंट का सदस्य चुनवाने में उन्होंने जोर-शोर से कार्य किया। उन दिनों अंग्रेज प्रायः यह कह देते थे कि हमने भारत को तलवार के जोर से जीता है और तलवार के सहारे ही वश में रखेंगे। नवयुवक चितरंजन से यह बात सहन नहीं हुई और प्रचार सभा में इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा-"अंग्रेजों ने तलवार, बंदूक के सहारे इतने लंबे-चौडे़ और शानदार भारतवर्ष को कभी नहीं जीता। यह उनके सैनिक बल की नहीं वरन् कूटनीतिक चालों की जीत थी। इसे तलवार की विजय कहना और तलवार की नीति बरतने की धमकी देना सरासर ओछापन और शर्म की बात है।"
     इन शब्दों से उनकी देशभक्ति और राष्ट्रीय गौरव की भावना स्पष्ट प्रकट होती है। पर अंग्रेजों के देश में उनके मुहँ पर ऐसा कहना सामान्य बात न थी। उसी दिन से वे अंग्रेज अधिकारियों की नजरों में खटकने लग गये और अंत में अधिकांश परीक्षार्थियों से प्रतिभाशाली होने पर भी आई सी० एस० की परीक्षा में उन्हें असफल घोषित कर दिया गया। सरकार की पक्षपात पूर्ण नीति को देखकर उन्होंने भी अपना लक्ष्य बदल दिया और सन् १८९३ में बैरिस्टरी की परीक्षा पास करके स्वदेश वापस आ गये।
   परिस्थितियों के साथ संघर्ष-
      यद्यपि दास बाबू की योग्यता में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं थी और वे परिश्रम भी काफी करते थे तो भी उनकी उन्नति बहुत धीरे-धीरे हुई। इसका एक कारण यह भी था कि परीक्षा पास करने के बाद सांसारिक जीवन में प्रवेश करते ही उन पर बहुत अधिक भार पड़ गया। उनके पिता ने वकालत का कार्य एक प्रकार से छोड़ ही दिया था, साथ ही उन्होंने कर्ज की एक बडी़ रकम भी परिवार के ऊपर लाद दी थी। परिवार भी काफी बडा़ था। इन सब कारणों से चितरंजन को आरंभिक चार-पांच वर्ष तक जीवन-निर्वाह के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा। उस समय विवश होकर उनको अपनी हैसियत के अन्य बैरिस्टरों के मुकाबले कम फीस पर मुकदमे लेने पड़ते थे। फिर भी वे धैर्य से क्रमशः आगे बढ़ते गये। कम फीस लेने पर भी वे अपने मुवक्किल को जिताने की पूरी कोशिश करते थे और इसके लिए अधिक से अधिक जोरदार सबूत इकट्ठे करने में बडा़ परिश्रम करते थे।
     इसका परिणाम यह हुआ कि सर्वसाधारण में उनकी ख्याति बढ़ने लगी और बिना अधिक कोशिश के ही उनके पास अच्छे मुकदमे आने लगे। सन् १९०७ तक उनकी आर्थिक दशा काफी संतोषजनक हो गई।

 राजनैतिक मुकदमों में-

          इसी समय बंगाल में राजनीतिक आंदोलन भड़क उठा। एक तरफ देशभक्तों ने विदेशी शासन के पंजे से देश को आजाद करने के लिए संघर्ष आरंभ किया और दूसरी ओर सरकारी अधिकारी अपनी सत्ता कायम करने के लिए दमन करने लगे। उस अवसर पर दास बाबू की जन्मजात देशभक्ति की भावना विशेष रूप से प्रबल हो उठी और उन्होंने अपनी आर्थिक कठिनाइयों की परवाह न करके सरकारी कोप का शिकार होने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं के मुकदमों में सहायता देना आरंभ किया। 'संध्या' के संपादक श्री ब्रह्मा बांधव उपाध्याय और 'न्यू इंडिया' के संपादक श्री विपिन चन्द्र पाल, दोनों को राजद्रोह के अभियोग में जोरदार पैरवी करके जेल जाने से बचाया और भी अनेक राष्ट्र-सेवकों के अभियोगों को उन्होंने बिना फीस लिए लड़ा और अपनी कानूनी चतुरता से उनको बचा लिया। 
           जिस 'बम केस' की चर्चा ऊपर की जा चुकी है, उसमें दो अभियुक्तों वारींद्र कुमार घोष और उल्लासकर दत्त को फाँसी की सजा दी गई थी। वारींन्द्र बम फैक्टरी के मुख्य संचालक और उल्लासकर बम तैयार करने के विशेषज्ञ थे। पुलिस ने बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर और ढा़का के मजिस्ट्रेट की हत्या की चेष्टा का आरोप भी इसी 'गुप्त दल' पर लगाया था। खुदीराम और प्रफुल्ल को बम देकर मि० किंग्सफोर्ड को मारने के लिए भेजने का अभियोग तो उन पर सिद्ध हो ही चुका था। इसलिए जज ने ३५ अभियुक्तों में से उनको प्रमुख मानकर प्राणदंड देना उचित समझा।
      जब इस मामले की अपील हाईकोर्ट में हुई तो उसका भार भी श्री दास को सहन करना पडा़। अभियुक्तों पर बम बनाने और हत्या का प्रयत्न करने का अपराध तो सिद्ध हो ही चुका था, इसलिए उन्होंने इस अवसर पर बारीकियों का आधार लेकर एक नई ही दलील जजों के सामने पेश की। यह मुकदमा भारतीय दंड संहिता (पीनल कोड) की १२१, १२१ ए, १२२ और १२३ धाराओं के अंतर्गत चलाया गया। इन धाराओं के अनुसार मुकदमा चलाने के लिए यह अनिवार्य है कि पुलिस अधिकारी पहले सरकार से अनुमति ले लें। इस मुकदमे में आरंभ में पुलिस ने दफा १२१ ए, १२२ और १२३ के अंतर्गत मुकदमा चलाने की स्वीकृति तो ले ली थी, पर दफा १२१, जो बाद मे लगाई गई और उसकी मंजूरी नहीं ली गई। श्री दास ने इसी कानूनी त्रुटि का सहारा लेकर सिद्ध किया कि वारींद्र और उल्लासकर को धारा १२१ के अंतगर्त ही मृत्युदंड दिया गया है और वह सरकारी मंजूरी न लिए जाने के कारण अवैध है, इसलिए अभियुक्तों को मृत्युदण्ड से मुक्त किया जाय। हाईकोर्ट के जजों ने इस तर्क की सार्थकता को स्वीकार किया और दोनों अभियुक्तों को फाँसी के बजाय आजन्म काला पानी का दंड दिया। अपने फैसले में चीफ जस्टिस ने श्री दास के तर्कों की चर्चा करते हुए लिखा-
       "मैं विशेष रूप से इसका उल्लेख करना चाहता हूँ कि मुकदमे में अभियुक्तों के प्रमुख वकील श्री चितरंजनदास ने मुकदमे को जिस ढंग से न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किया, वह अत्यन्त प्रशंसनीय था।"

प्रभावशाली भाषण शक्ति-
    श्री अरविन्द घोष को मुक्त कराने में भी श्री दास ने यद्यपि कानून की धाराओं को उपस्थित करने और उनकी व्याख्या करने में अत्यंत परिश्रम किया था तो भी यह संदेहजनक था कि जज उनको बिलकुल छोड़ देंगे। पर मुकदमे के अंत में सरकारी वकील की बहस का जवाब देते हुए उन्होंने नौ दिन तक जो भाषण किया और उसके अंत में जज को न्याय करने के लिए जैसे भावपूर्ण ढ़ग से प्रेरित किया उसी से अधिकांश में श्री अरविन्द की रक्षा हो सकी। उन्होंने श्री अरविन्द के उच्च आदर्शों और मनःस्थिति का विश्लेषण करते हुए अंत में कहा-
      "आपसे मेरा अनुरोध है कि जिस व्यक्ति पर ये आरोप लगाये गये हैं, वह केवल आज इस न्यायालय के सम्मुख नहीं, वरन् इतिहास के उच्च न्यायालय के सम्मुख खडा़ है। आपसे मेरा विनम्र निवेदन है कि जब यह मतभेद समाप्त हो जायेंगे, यह हलचल और विद्रोह शांत हो जायेगा, जब यह व्यक्ति परलोक चला जायेगा, उसके बहुत समय बाद तक संसार उसे देशभक्ति के गायक, राष्ट्रीयता के देवदूत और मानवता के प्रेमी के रूप में देखता रहेगा। इस संसार से विदा ले लेने के बहुत समय बाद तक इसके शब्द भारत में ही नहीं बल्कि दूर-दूर तक गूँजते रहेंगे। इसलिए मैं कहता हूँ कि यह व्यक्ति आज केवल इस न्यायालय के समक्ष ही नहीं बल्कि इतिहास के उच्च न्यायालय के समक्ष खडा़ है।"
      "महोदय (न्यायाधीश से) अब समय आ गया है, जब आपको अपने निर्णय पर और सज्जनों (न्यायाधीश को परामर्श देने वाले 'असेसरों' से) आपको अपनी राय पर विचार करना चाहिए। महोदय, मैं आपसे उस अंग्रेजी न्याय परंपरा के नाम पर अनुरोध करता हूँ, जो अंग्रेजी इतिहास का सबसे शानदार अध्याय है-कानून के उन हजारों श्रेष्ठ सिद्धांतों के नाम पर अनुरोध करता हूँ, जो अंग्रेजी न्यायालयों ने बनाये हैं और उन लब्ध प्रतिष्ठित न्यायाधीशों के नाम पर जिन्होंने कानून को इस तरह निभाया है कि फैसलों से लोगों में कानून के प्रति सम्मान की भावना जाग्रत हुई। मैं आपसे अंग्रेजी इतिहास के उसी शानदार अध्याय के नाम पर अनुरोध करता हूँ कि कहीं ऐसा न हो कि संसार को यह कहने का अवसर मिल जाये कि एक अंग्रेज न्यायाधीश न्याय की रक्षा करने में गफलत कर गया।"
    श्री दास के इन उच्च भावनाओं को प्रेरणा देने वाले शब्दों का इतना अधिक प्रभाव पडा़ कि सेशन जज मि० बीचक्राफ्ट ने यह जानते हुए कि सरकार श्री अरविन्द घोष को दंडित करने पर जोर दे रही है, उनको पूरी तरह से बरी कर दिया। इस तथ्य को अपने फैसले में प्रकट करते हुए उन्होंने कहा-
       "अरविंद ही वह अभियुक्त थे जिन्हें दंड देने के लिए सरकार सबसे अधिक इच्छुक थी। अगर वह अभियुक्तों के कटघरे में न होते तो यह मुकदमा कभी का खत्म हो गया होता।"
 अंग्रेजों के शासन काल में, जबकि भारतीय विद्रोह के कारण इंगलैंड तक का वातावरण गर्म हो रहा था। अपने कानूनी ज्ञान तथा भाषण-कौशल से एक अंग्रेज जज को झुका देना-दास बाबू का ही काम था। फिर भी कोई यह नहीं कह सकता कि वे किसी की खुशामद करके या दबकर अपना उद्देश्य पूरा करते थे। इस 'युगांतर-दल' के मामले में ही एक दिन जज ने उनकी किसी बात को 'बकवास' कह दिया। इस पर तुरंत उनकी त्यौरी चढ़ गई और उन्होंने कहा-"अफसोस यह है कि आप इस समय जज हैं और मैं वकील। अगर आपने यह बात कहीं अन्यत्र कही होती तो मैं इसका ठीक-ठीक जवाब देता।" देशबंधु की निर्भीक वाणी सुनकर जज ने अपनी भूल अनुभव की और तुरंत क्षमा माँग ली।

      श्रेष्ठपुरुष सदैव सत्य और न्याय के अनुयायी होते हैं। वे अपने हानि-लाभ का ख्याल न करके विरोधी के भी उचित कथन को स्वीकार कर लेते हैं और अनुचित बात चाहे किसी घनिष्ठ परिचित की भी क्यों न हो तो भी उसे मानने को तैयार नहीं होते। देशबंधु के इस गुण के कारण न्यायालयों के समस्त छोटे-बडे़ न्यायाधीश उनका सम्मान करते थे। उनको अपना विरोधी जानते हुए भी कोई अंग्रेज उनके प्रति असम्मान का भाव प्रकट नहीं कर सकता था। सत्य और न्याय की ऐसी ही महिमा है।

'अमृत बाजार पत्रिका' पर मानहानि का अभियोग-

        ऐसी ही कानूनी निपुणता का परिचय उन्होंने "अमृत बाजार पत्रिका" के मानहानि वाले मुकदमे में दिया। हाईकोर्ट ने इंप्रूवमेंट ट्रस्ट द्वारा किसी की जमीन पर अधिकार करने के प्रश्न पर विचार करने को एक विशेष 'बैंच' बिठाई थी-जिसमें तीन अंग्रेज जज और चौथे भारतीय जज श्री चिट्टी थे। 'अमृत बाजार पत्रिका' ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिख दिया कि "अगर जस्टिस चिट्टी की जगह किसी अन्य ऐसे जज को नियुक्त किया जाता है' जिसके पास कुछ जमीन होती तो अच्छा होता।" इस पर 'पत्रिका' के संचालकों को नोटिस दिया गया कि उन्होंने एक न्यायालय के विचाराधीन मामले पर टिप्पणी की है, इसके लिए उन पर मानहानि का मुकदमा क्यों ना चलाया जाये? 'पत्रिका' ने इसकी पैरवी करने के लिए कलकत्ता के चार सर्वोत्तम वकीलों को नियुक्त किया, जिनमें 'बम केस' वाले सुप्रसिद्ध मि० नार्टन भी थे। जब एक-एक कर तीनों वकीलों ने जजों का रुख प्रतिकूल देखा, तो श्री दास पैरवी करने को खड़े हुए और उन्होंने कहा कि- 'पत्रिका' का इरादा हाईकोर्ट की मानहानि करने का हरगिज नहीं था। उसके लेख में विवाद के विभिन्न पहलुओं को सामने रखकर अपने मतानुसार समाधान का ढंग सुझाया गया है। लेख की कुछ बातें असंगत अवश्य हैं, पर उनका वास्तविक उद्देश्य इतना ही था कि इस मामले का निर्णय फुल बैंच द्वारा ही किया जाय। इसलिए यह लेख अनुचित भले ही हो, पर इससे किसी प्रकार न्यायालय की मानहानि नहीं होती।" इसके बाद उन्होंने दीवानी और फौजदारी के विभिन्न दृष्टिकोण से इस मामले को ऐसी चतुरता से पेश किया कि फुल बैंच के जजों ने 'पत्रिका' के पक्ष में निर्णय दे दिया।

             श्री दास की कानूनी निपुणता, संतुलित भाषण और निर्भीकता की सर्वत्र सराहना की जाती थी। उनकी मृत्यु के पश्चात् सभी प्रमुख जजों और वकीलों ने इन गुणों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि-"श्री दास मुकदमे के समस्त पहलुओं पर पूरी तरह ध्यान देते थे। गवाहों के बयानों, लिखित प्रमाणों और परिस्थितिजन्य प्रमाणों का वह बडी़ सावधानी और होशियारी से विवेचन करते थे। उनमें अदम्य इच्छाशक्ति थी, जिसके फलस्वरूप वे जजों अथवा अपने विरोधियों से कभी नहीं दबते थे। वे एक सच्चे व्यक्ति के समान खडे़ होते थे और ऐसी ईमानदारी तथा विश्वास के साथ बहस करते थे कि विरोधी भाव रखने वाले जज भी अंत में उनसे प्रभावित हो जाते थे।"

राजनीति में प्रवेश-


         यद्यपि श्री दास में देशभक्ति की भावना आरंभ से ही थी और वे अपने ढंग से देश सेवा के कार्यों में भाग लेते रहते थे। उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक उच्च विचारों के प्रचारार्थ स्वयं 'नारायण' नाम का एक मासिक पत्र निकाला था। इसके सिवाय वे 'न्यू इंडिया' पत्र के भी एक बडे सहायक थे, जिसका संपादन श्री विपिनचंद्र पाल करते थे। इसकी चर्चा करते हुए पाल बाबू ने एक बार लिखा था-

      "जब प्रारंभिक मालिकों के लिए 'न्यू इंडिया' का भार संभालना कठिन हो गया तो चितरंजन उनकी सहायतार्थ आगे बढे़। कानूनी बंधन के कारण वे स्वयं तो उसके डायरेक्टर नहीं बन सकते थे, पर अपने मित्रों को उत्साहित करके एक "ज्वाइंट स्टॉक कंपनी" की स्थापना कराई, जिससे वह कार्य फिर चलने लग गया। लगभग बीस वर्ष तक चितरंजन और मैं सच्चे सहयोगी के रूप में देश की सेवा करते रहे। मैं काम करता था और वे मेरे जीवन निर्वाह की व्यवस्था करते थे, जिससे मुझे उनकी सहायता स्वीकार करने में भी कोई संकोच नहीं होता था।"

       देशबंधु चितरंजन दास ने अपने इस कार्य द्वारा कर्तव्य पालन की एक नई दिशा का बोध कराया। बहुत से व्यक्ति अपने कारोबार, नौकरी अथवा अन्य सांसारिक बंधनों का कारण बतलाकर सेवा-कार्यों से पृथक रहते हैं। पर वे क्या किसी अन्य रूप में ऐसे कार्यों में सहयोग नहीं कर सकते? दास बाबू को अपने वकालत के धंधे में इतना अधिक काम करना पड़ता था और उस जमाने में उनके ऊपर अपने अभियुक्तों की हित-रक्षा की इतनी अधिक जिम्मेदारी रहती थी कि वे देश के कार्यों में न तो अधिक समय दे सकते थे और न अधिक खतरा उठा सकते थे, पर इसका आशय यह नहीं कि वे देश-सेवा और राजनैतिक आंदोलन के महत्व को न समझते हों। इसलिए आरंभ में वे परिस्थिति और सुविधानुसार आर्थिक सहायता और प्रेरणा देकर ही अन्य कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाते रहे।
 
        सन् १९०८ में राजनैतिक वातावरण में बहुत अधिक तीव्रता आ जाने पर वे अपने अपूर्व कानूनी ज्ञान द्वारा राजनीतिक अभियोगों में सहायता देने लगे। फिर जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतवासियों ने योजना और निश्चयपूर्वक स्वाधीनता-संग्राम छेडा़ तो उसके महत्व और आवश्यकता को समझकर वे सब कुछ त्यागकर उसमें कूद पडे़। लोगों का कहना है कि जिस समय नागपुर काँग्रेस में उन्होंने गाँधीजी के आह्वान पर अपनी वकालत को छोड़ा, उस समय उनकी आमदनी ५० हजार रुपया मासिक तक पहुँच गई थी। वे भारत के सर्वश्रेष्ठ वकीलों में से एक समझे जाते थे और बडे़ महत्वपूर्ण मुकदमों में उनको नियुक्त किया जाता था।

     स्वाधीनता-संग्राम में भाग लेने के पश्चात् उन्होंने बैरिस्टरी की मूल्यवान्  पोशाक की जगह खद्दर के वस्त्र पहनना आरंभ कर दिया। एक सर्वस्व त्यागी-संन्यासी की तरह लोक-कल्याण का कार्य ऐसी संलग्नता के साथ किया कि एक वर्ष में ही वे भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ नेता और बंगाल के तो एकछत्र सम्राट बन गये। उनके महान् त्याग और सेवाभाव को देखकर अन्य सैकडों साधन-संपन्न व्यक्ति भी देशहित और बलिदान के मार्ग पर आगे बढे़। वास्तव में देशबंधु चितरंजनदास ने हमारे देश में त्याग की महान् परंपरा को अग्रसर करने में जो योगदान दिया वह सदैव स्मरणीय रहेगा। कुछ ही समय पश्चात् उन्होंने अपना निवास स्थान तक राष्ट्रीय कार्य के लिए अर्पण कर दिया। आज भी उसमें 'चितरंजन सेवासदन' स्थापित है, जो स्त्रियों और बच्चों का सबसे अच्छा अस्पताल माना जाता है।

    सक्रिय राजनीति में भाग लेने पर भी श्री दास देशहित के बडे़-बडे़ कामों में पूरा सहयोग देते रहे, जिनसे भारतीय राजनीतिक आंदोलन पर बहुत अधिक प्रभाव पडा़। सन् १९०५ में राजनैतिक आंदोलन के उग्र रूप धारण कर लेने पर सरकार ने एक परिपत्र (सर्कुलर, जिसके अनुसार छात्रों पर राजनीतिक आंदोलन में किसी प्रकार का भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया गया। इसके अनुसार अनेक छात्रों पर जुर्माना किया गया और कहीं बेंत लगाने की सजा भी दी गई। इसका प्रतिकार करने के लिए राष्ट्रीय नेता एक स्वतंत्र कॉलेज खोलने का विचार करने लगे, पर इतने बडे़ कार्य के लिए साधन मिल सकना सहज न था। तब श्री दास अग्रसर हुए और अपने परिचित एक धनी सज्जन से एक रूपया चंदा लेकर राष्ट्रीय शिक्षा परिषद (नेशनल कॉउंसिल आफ एजुकेशन) की स्थापना करा दी। जब राष्ट्रीय कॉलेज के अध्यक्ष (प्रिंसिपल) पद के लिए किसी उच्चकोटि के और राष्ट्रीय भावना वाले व्यक्ति की आवश्यकता हुई तो उन्होंने श्री अरविन्द घोष से, जो उस समय बड़ौदा के गायकवाड़ कॉलेज में ७५० रू० मासिक पर 'वाइस प्रिंसिपल' के पद पर कार्य कर रहे थे, कहा कि-"वे उस पद से त्यागपत्र दे दें और कलकत्ता आकर देशसेवा में भाग लें।" श्री अरविंद ने इसे स्वीकार किया और वे ही 'नेशनल कॉलेज' के सर्वप्रथम मुख्याध्यापक बने। इस पद के लिए उनको केवल डेढ़ सौ रूपया मासिक दिया गया ।
 स्वराज्य आंदोलन में सहयोग-

           सन् १९१६ में 'होमरूल आंदोलन' आरंभ होने पर दास बाबू राजनीतिक आंदोलन में भाग लेने की आवश्यकता विशेष रूप से अनुभव करने लगे। अप्रैल १९१७ में उनको कलकत्ता में होने वाले 'बंगाल प्रादेशिक सम्मेलन' का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। उनके नाम का प्रस्ताव रखते हुए बंगाल के पुराने नेता श्री सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने 'भविष्यवाणी' कर दी कि "श्री दास शीघ्र ही भारत के अत्यंत विश्वासपात्र और लोकप्रिय नेता बनने वाले हैं।"

       इस सम्मेलन के अध्यक्ष पद से उन्होंने जो भाषण दिया उसमें सबसे मुख्य बात यह थी कि राष्ट्र की वास्तविक मनोवृत्ति को पहचानकर उन्होंने राजनैतिक आंदोलनकारियों को चेतावनी दी कि वे भारत की अंतरंग आत्मा को न समझकर योरोप की नकल कर रहे हैं। उन्होंने कहा-"अपने देश में विदेशी राज्य पनपने के साथ-साथ हमने योरोप की कुछ बुराइयों को अपना लिया और हम अपने सरल और उत्साहमय जीवन को त्यागकर सुख और विलासिता के जीवन में डूब गये। हमारे सभी राजनीतिक आंदोलन यथार्थता से दूर हैं, क्योंकि इनमें उन लोगों का कोई हाथ नहीं, जो इस देश की असली रीढ़ हैं" उनका आशय था भारत के किसान, मजदूर और सामान्य जनता से। वे जानते थे कि उनके जाग्रत हुए बिना न तो कोई आंदोलन शक्तिशाली बन सकता है और न देश का सच्चा कल्याण हो सकता है। उनकी यह भावना इतनी गहरी और सच्ची थी कि उन्होंने जब महात्मा गांधी को जनसमुदाय को साथ लेकर आंदोलन करते देखा तो तुरंत अपना सर्वस्व अर्पण करके उसमें सम्मिलित हो गये। श्री दास का उपयुक्त अभिभाषण इतना महत्त्वपूर्ण था कि बंगाल के तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर लार्ड रोनाल्डशे ने अपनी पुस्तक 'दि हार्ट ऑफ आर्यावर्त' में उसकी चर्चा करते हुए लिखा था-

    "श्री दास ने जो कुछ कहा, वह वास्तव में एक मिशनरी के उत्साह से कहा। योरोपीय आदर्शों रूपी स्वर्ण पशु की उन्होंने धज्जियाँ उडा़कर रख दीं और एक ऋषि के समान देश को उन्नति का रास्ता दिखाया"

उग्र- राजनीतिक में प्रवेश-

      अब श्री दास राजनीतिक तथा सार्वजनिक आंदोलन के क्षेत्र में दिन पर दिन आगे बढ़ने लगे। उन्होंने होमरूल आंदोलन में पूरा भाग लिया और श्रीमती बेसेंट को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष बनवाने का प्रयत्न किया। उस समय तक कांग्रेस संगठन अधिकांश में नर्म दल वालों के हाथ में था और बंगाल के पुराने नेता श्री सुरेंद्रनाथ बनर्जी, श्रीमती बेसेंट के बजाय राजा साहब महमूदाबाद को उस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। श्री दास ने इसका जोरों से विरोद्ध किया। काँग्रेस अधिवेशन के लिए जो स्वागत समिति बनाई गई थी, उसके अध्यक्ष एक पुराने काँग्रेसी श्री बैकुंठनाथ सेन श्री दास के पिता के मित्रों में से थे और इसलिए वे उनके प्रति बहुत आदर और श्रद्धा का भाव रखते थे, पर देशहित का प्रश्न सामने आने पर वे उनका विरोध करने को तैयार हो गये। उन्होंने प्रस्ताव किया कि स्वागत समिति का अध्यक्ष श्री रविंद्रनाथ ठाकुर को चुना जाये। अब काँग्रेस संगठन के भीतर पारस्परिक संघर्ष अनिवार्य हो गया। यह देखकर हाईकोर्ट के एक भूतपूर्व जज सर चंद्रमाधव घोष, जो दोनों के शुभचिंतक थे, बीच में पडे़ और समझौता करा दिया कि श्रीमति बसेंट को काँग्रेस का सभापति बनाया जाय और बैकुंठनाथ सेन भी अपने पद पर बने रहे।

        वास्तव में श्रीमती बेसेंट ने उन दिनों भारतवर्ष के राजनीतिक आंदोलन को आगे बढा़ने में प्रशंसनीय साहस दिखलाया था और घोर परिश्रम किया था। एक विदेशी होते हुए भी उन्होंने भारत को होमरूल (आत्म-शासन) का अधिकार देने के लिए समस्त देश में इतना जोरदार प्रचार किया कि भारत सरकार उससे भयभीत हो उठी और उनको गिरफ्तार करके नजरबंद कर दिया गया। उस अवसर पर देशबंधु चितरंजनदास ने एक सार्वजनिक सभा करके इस कार्य की आलोचना करते हुए कहा था-

       "मैं नहीं समझता कि मानवता के देवता का गला केवल ए
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