प्रेरणाप्रद भरे पावन प्रसंग

जगद्गुरू शंकराचार्य

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        वैदिक- धर्म के पुनरूद्धारक- जगद्गुरू शंकराचार्य
       माँ वात्सल्यवश छोड़ नहीं सकती, उसे इस बात का मोह है कि- बच्चा बड़ा होकर घर-गृहस्थी चलायेगा, धन कमायेगा, नाती-पोतों का सुख मिलेगा और मेरे अंतःकरण में धर्म, जाति और संस्कृति की रक्षा का सवाल घूमता है। उसके लिए स्वाधीन  होने की आवश्यकता है। समाज-सेवा के लिए यदि अब भी कोई ज्वलंत ज्ञान- ज्योति लेकर सामने नहीं आता, तो हमारी वैदिक संस्कृति की रक्षा कैसे होगी? हे प्रभो ! हे परमात्मा! मुझे बल दो, शक्ति दो, बुद्धि दो, ज्ञान दो और दिशा दो ताकि पीड़ित मानवता और उत्पीड़ित सत्य एवं धर्म को विनाश से बचा सकूँ। प्रकाश दे सकूँ।
      यह प्रश्न एक बालक के मन में आज कई दिन से प्रखर वेग के साथ घूम रहे हैं। बच्चे ने कई बार माँ से आज्ञा माँगी-माँ मुझे समाज-सेवा के लिए उन्मुक्त कर दो। माँ ने उत्तर दिया- बेटा, अभी तो तू छोटा है, अज्ञानी है। अभी तेरी उम्र ही क्या हुई है? ब्याह-शादी हो, फिर बच्चें हो, मेरी तरह बुड्ढा हो, तब समाज-सेवा भी कर लेना।
       नहीं माँ! बुड्ढे हो जाने पर शरीर थक जाता है, उत्साह मंद पड़ जाता है, तब सेवा कार्य नहीं, आत्म कल्याण की साधना हो सकती है। पर आज तो अपने धर्म, जातीय गौरव और पितामह ऋषियों के ज्ञान की सुरक्षा का प्रश्न है, माँ, वह कार्य अभी पूरा हो सकता है। तू मुझे उन्मुक्त कर। सैकड़ों, लाखों माताओं की रक्षा , बालकों को अज्ञान और आडम्बर के महापाप से बचाने के लिए यदि तुम्हें अपने बेटे का बलिदान करना पड़े, तो क्या तुझे प्रसन्नता नहीं होगी?
     बालक माँ के पास पहुँचा -माँ आज सोमवती अमावस्या है। हमारी इच्छा हैकि आज पवित्र अलवाई में स्नान कर आएँ?’’ हाँ-हाँ बेटा चल मैं सहर्ष चल रही हूँ , ऐसा पूण्य सुयोग जाने कब बन पड़े।’’ माँ-बेटे नदी की ओर चल पड़े। माँ इसलिए खुश थी कि बच्चे का हठ दूर हुआ, बच्चा इसलिए खुश था कि अब अपने उद्देश्य की पूर्ति, समाज सेवा के व्रत के लिए उन्मुक्त वातावरण मिल जायेगा। माँ उस रहस्यपूर्ण मुस्कान में भी अपनी विजय को निहार रही थी।
     दोनो स्नान करने लगे। माँकिनारे पर थी, पर बच्चा बीच बहाव की ओर तैर गया। दो क्षण ही गुजरे थे कि बालक चिल्लाया- माँ मुझे मगर ने पकड़ लिया ।’’कभी वह डूबकी लगा जाते, कभी उछलकर ऊपर आते और फिर चिल्लाते - माँ, मुझे मगर घसीटकर लिए जा रहा है। जल्दी से कोई प्रयत्न करो। अन्यथा अब जीवन असम्भव है।
     माँ रोने, चिल्लाने के अतिरिक्त क्या कर सकती थी? बचाने वाला कोई भी तो न था। बच्चे ने फिर पुकारा- माँ अब तो मेरी रक्षा भगवान शंकर ही कर सकते हैं, वह आशुतोष हैं तू जल्दी ही मुझे उनको समर्पित कर दे, तभी जीवन की सुरक्षा हो सकती है अन्यथा मैं तो चला और यह कह कर जैसे ही वह पुनः डुबकी लगाने को हुए- माँ ने आँसू बहाते हुए कहा- ‘‘मैं इस बालक को शंकर भगवान् को अर्पण करती हूँ। अब यह मेरा नहीं, शंकर भगवान् का होकर रहेगा। भगवान् ही इसके जीवन की रक्षा करें।’’
     हाँफते हुए बालक किनारे की ओर चल पड़ा। ‘‘माँ! भगवान् ने मुझे बचा लिया। यह सब तेरी ही कृपा है। माँ, तूने मुझे नहीं मेरी आत्मा को बचा लिया, अब मैं तेरा ही नहीं शंकर भगवान् का भी हो गया हूँ, सो तेरी ही नहीं ,, उनकी भी, उनके संसार की भी सेवा करूँगा’’
बच्चे ने कपड़े पहने और माँ से विदा माँगी- माँ रो पड़ी, बेटे! क्या आज ही चला जायेगा? हाँ, माँ! अब तो मैं भगवान् का हो गया। अब मुझे गृहस्थ में नहीं जाना चाहिए। मोह त्यागकर, प्रसन्नता अनुभव कर, तेरा बच्चा महान् कार्य के लिए जा रहा है। धर्म और जाति के उद्धार का व्रत लिया है मैंने, माँ, क्या उससे तुझे शांति और संतोष न होगा?’’ 
     ‘‘अवश्य होगा बेटा।’’ माँ ने वात्सल्य भाव से बच्चे की पीठ थपथपाई और आशीर्वाद का हाथ फेरा, पर एक बात याद रखना- ‘‘तात, मेरी मृत्यु हो तो दाह- संस्कार तू अपने ही हाथ से करना।’’ बेटे ने वचन दिया- ‘‘माँ! कहीं भी होउँगा तेरी अंतिम इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा। सारे संसार की सेवा में तेरी सेवा भी तो है।’’ स्नान करने साथ- साथ आए थे, पर माँ अकेली घर लौटी और बालक साधना, ज्ञान- संचय और धर्मोद्धार के लिए दूसरी ओर चल पड़ा।  
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