उच्चशिक्षा, चतुरता या शरीर सौष्ठव भर से कोई व्यक्ति न तो आत्म-संतोष पा सकता है और न लोक सम्मान। इन सबसे महत्वपूर्ण है परिष्कृत व्यक्तित्व। प्रतिभाशील और उन्नतिशील बनने का अवसर इसी आधार पर मिलता है।
समग्र व्यक्तित्व के विकास को विज्ञान की भाषा में ‘‘बौडी इमेज’’ कहा जाता है। जिनने इस दिशा में अपने को विकसित कर लिया, उनने दूसरों को प्रभावित करने की विशिष्टता को उपलब्ध कर लिया। ऐसे ही व्यक्तित्व प्रामाणिक और क्रिया कुशल माने जाते हैं। उनकी मांग सर्वत्र रहती है। वे न तो हीन समझे जाते हैं और न अपने कामों में असफल रहते हैं। ‘‘बौडी इमेज’’ से तात्पर्य सौन्दर्य, सज्जा या चतुरता से नहीं, वरन् व्यक्तित्व की उस विशिष्टता से है जिसके आधार पर किसी की वरिष्ठता एवं विशिष्टता को स्वीकार किया जाता है। यह किसी के विश्वस्त, क्रियाकुशल एवं प्रामाणिक होने की स्थिति है। जिसके पास यह संचय है, समझना चाहिए उसके पास बहुत कुछ है। जो इस क्षेत्र में पिछड़ गया, समझना चाहिए उसे तिरस्कार का भाजन बनना पड़ेगा।
यह विशिष्टता सज्जनता, विनम्रता एवं आत्म संयम के आधार पर विकसित होती है। ऐसे व्यक्ति उन दुर्गुणों से बचे रहते हैं जिनके कारण किया कुशल एवं स्वस्थ-सौन्दर्यवान होते हुए भी ऐसे कुकृत्य करने लगता है जिसे चरित्रहीनता एवं अप्रामाणिकता की संज्ञा दी जा सके। कितने ही चतुर व्यक्ति अपने को हेय स्थिति में फंसा लेते हैं।
ऐसे व्यक्ति शारीरिक ही नहीं मानसिक एवं चारित्रिक रोगों से ग्रसित पाये जाते हैं। जिनने अपने व्यक्तित्व की साधना नहीं की, आदर्श एवं संयम को महत्व नहीं दिया, वे कुकर्मों से धन या दर्प का लाभ भले ही उठा लें, अन्य क्षेत्रों में उन्हें घाटा, त्रास एवं तिरस्कार ही सहना पड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक पृष्ठ भूमि के आधार पर अपने शरीर के बारे में एक निश्चित धारणा या कल्पना होती है। मानव शरीर के सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अध्ययन करने वाले समाज विज्ञानियों तथा मनोवैज्ञानिकों ने प्रत्येक व्यक्ति की अपने स्वयं के बारे में बनी इस निश्चित धारणा या प्रतिबिम्ब को—‘बौडी इमेज’ या ‘बौडी कॉन्सेप्ट’ अथवा ‘बौडी स्कीम’ जैसे नाम दिये हैं। ‘बौडी इमेज’ न केवल व्यक्ति की अपनी पूर्णतया जागृत अवस्था में अपने बारे में बनी धारणा है बल्कि अचेतन या अर्द्धचेतन अवस्था में भी व्यक्ति का अपने स्वयं के बारे में दृष्टिकोण, अपनी अनुभूतियां, अनुभव तथा उसकी मनोकल्पनाऐं आदि भी इसमें सम्मिलित हैं। व्यक्ति की स्वयं के प्रति बनी इन धारणाओं, अनुभवों का स्पष्ट अथवा सांकेतिक दर्शन इस आधार पर किया जा सकता है कि वह अपने प्रत्येक कार्य व्यवहार की व्यवस्था व समायोजन किस प्रकार करता है? क्योंकि व्यक्ति के प्रत्येक क्रिया-कलाप, हाव-भाव, कार्य-व्यवहार में व्यक्ति की स्वयं की ‘बौडी इमेज’ का बहुत गहरा प्रभाव होता है।
आप किसी वर्ग के रोगी नर-नारियों को इकट्ठा कीजिए। जिन लोगों ने औसत जीवन जिया है, उनके रोग संबंधी जीवन का अध्ययन करें। बहुतों को विभिन्न रोगों के दौर से गुजरना पड़ा है। इस प्रकार की बीमारियां प्रायः उन दिनों हुई हैं जब उन्हें विभिन्न उतार-चढ़ाव वाली मनःस्थितियों से गुजरना पड़ा, तभी पेचिश, अल्सर, हाई ब्लडप्रेशर और हार्ट अटैक के दौरे पड़े। अनुसंधान में पाया गया है कि लगभग सभी बीमारियां, जब मानसिक दबाव की अधिकता बढ़ती है तभी उग्रतम होती जाती है। ‘साइकोलॉजी टुडे’ पत्रिका में (सितम्बर 1984) डॉ. स्टाप हैनरी का कहना है कि हजार पीछे 75 प्रतिशत रोगी उक्त कथन की सत्यता प्रतिपादित करते हैं। कुछ लोगों को अन्यों की अपेक्षा मानसिक तनाव आदि अत्यधिक उग्र होते हैं।
हमारे शरीर की विभिन्न क्रियायें जैसे गुर्दे का रक्त में से अशुद्धि का छान लेना, आंतों द्वारा पोषक आहार का सोख लेना आदि अनेकानेक अजूबी क्रियायें मस्तिष्क एवं स्नायु तंत्र और पिट्यूटरी जैसी हारमोन ग्रन्थियों के उचित स्वरूप में क्रियाशील होने पर निर्भर हैं। अपराधी प्रवृत्ति इन सभी गतिविधियों को अस्त-व्यस्त कर देती हैं।
अनैतिक गतिविधियां अपनाते समय अथवा उसके पश्चात् अपना मुंह सूखने लगता है जो इस बात का प्रतीक है कि पाचन क्रिया सम्पूर्णतया बन्द कर दी गयी है। शक्ति परिवर्तित तथा प्रगति के कारण सांसें तीव्र होती जाती हैं। साथ ही रक्त में इण्डोराफिन जैसे नशीले पदार्थ का सम्मिश्रण हो जाता है जिससे कोई भी चोट-मोच आने पर शरीर को भास नहीं होता। साथ ही साथ ए.सी.टी.एच. (एड्रीनोकार्डिको, ट्राफिक हारमोन) का स्राव मस्तिष्क से होने लगता है जिससे स्मरण शक्ति तेज हो जाती है और मस्तिष्क की बुद्धि कुशाग्र हो जाती है।
केन्या मसाई मार गेय रिजर्व अभयारण्य में रहने वाले 60 से अधिक बबून बन्दरों में स्ट्रैप्स रिस्पान्स के बारे में कई प्रयोग किए गये हैं। इन बबूनों के शरीर की संरचना मनुष्यों से कई प्रकार मिलती-जुलती है। इन वानरों की यह विशेषता होती है कि नायक और नायिका के कुछ सहचर विशिष्ट विशेषाधिकार जताते हैं। जैसे उत्तम आहार ग्रहण करने में, सुरक्षित स्थान पर कब्जा करने में तथा बंदरियों से सेवा लेने में, जूं निकलवाने में इत्यादि इत्यादि। यह सब विशिष्टता प्रतिभा-सज्जनता के आधार पर मिली होती है।
सुप्रसिद्ध दार्शनिक इमर्सन ने कहा है—‘‘उद्वेग एवं भय को मन में अंकुरित ही न होने दो।’’ उन्होंने यह भी बताया है कि यदि मानवी मस्तिष्क में से उद्वेग एवं भय को निकाल दिया जाय तो उसकी पूरी क्षमता का सदुपयोग किया जा सकता है।
तनाव से मुक्ति पाने के लिए जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। यदि वस्तुस्थिति का सही ढंग से विश्लेषण कर लिया जाय तो भय से सुगमतापूर्वक छुटकारा पाया जा सकता है।
कल्पनाओं के उत्पादन का एक मात्र केन्द्र मानवी मस्तिष्क को ही समझा जा सकता है। कुकल्पनायें भी यहीं विकसित होती है और अपना कुप्रभाव छोड़ती हैं। व्यक्ति इनकी उत्पत्ति को पूरी तरह रोक सकता है।
संसार में भय का अस्तित्व तो है, पर इसे जीवनक्रम में अपनाना कोई जरूरी नहीं है। व्यक्ति को इन कुकल्पनाओं को मस्तिष्क में नहीं जमने देना चाहिए। पूर्णतः भौतिकवादी विचारधारा के लोगों को भी इस तथ्य से भलीभांति परिचित होना होगा कि फिटैस्ट व्यक्ति (प्रवीणतम) भी भयमुक्त होकर ही अपने जीवन में सफल रहा है।
जब व्यक्ति अपनी पूरी सहकारिता का परिचय देने लगे तो शेर जैसे नरभक्षी से भी भयभीत नहीं होता। मामूली-सी कायरता आ जाने पर चूहे जैसे नगण्य प्राणी से डरने लगता है। उदाहरण के लिए चिड़ियों को देख सकते हैं। डरपोक चिड़िया किसान द्वारा बनाये गये पुतले (बिजूका) से डरकर भाग जाती हैं जबकि साहसी अपना पेट भरकर ही हटती हैं।
अनीतियुक्त आचरण में यह विशेषता है कि उच्छृंखलताजन्य दर्प प्रकट करते हुए भी उसके अन्तराल में भय बना रहता है और वह समस्त व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। शरीर में रोग, मन में खेद, दोनों से मिलकर व्यक्ति ऐसा बन जाता है जिससे उसे सही निर्णय करते नहीं बन पड़ता। अभ्यस्त चरित्रहीनता दिन-दिन बढ़ती जाती है और फिर वह व्यक्ति समाज में अपना स्थान बनाने तथा प्रगतिशील कदम उठाने की स्थिति में नहीं रहता।
व्यक्ति के विकास का उद्गम केन्द्र :
व्यक्तित्व के विकास के मूल में जिन तथ्यों को समाहित माना जाता है, उनमें से एक है—शरीर में जीवनी शक्ति का प्रकटीकरण-प्राण ऊर्जा का उभार। व्यक्तित्व का मूल्यांकन सामान्यतया शरीर की सुडौलता, सुन्दर चेहरे से किया जाता है, पर यह मान्यता भ्रान्ति युक्त है। यदि मनुष्य काला व कुरूप भी है किन्तु आहार-विहार को संतुलित कर आरोग्य रक्षा में निरत रहता है तो ऐसा निरोग मनुष्य भी प्रभावोत्पादक व्यक्तित्व का स्वामी होता देखा जाता है। जबकि चेहरे-मुहरें से सुन्दर व्यक्ति रोगग्रस्त, उदास, निस्तेज, आलसी होने पर मरा-गिरा सा, टूटा हुआ प्रतीत होता है।
आशा और उमंग से मन भरा हो, उत्साह और साहस स्वभाव का अंग हो, हंसने-मुस्कराने की आदत हो तो आकृति-प्रकृति आकर्षक हो जाती है। ऐसे व्यक्ति की बनावट भले ही कुरूप हो, वह सहज ही सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेता है एवं जहां जाता है, अपनी उपस्थिति से वातावरण प्रभावशाली बना देता है। अब्राहम लिंकन, सुकरात, महात्मा गांधी आदि का बाह्य स्वरूप सुन्दर नहीं कहा जा सकता किन्तु उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व को, मनस्विता को, अंग-अंग से फूटने वाले तेजस् को कोई नकार नहीं सकता।
वस्तुतः हमारा चेहरा मनःस्थिति का प्रतिबिम्ब है। आंखों की खिड़की से भीतर की स्थिति झांकती व उस क्षेत्र का भला-बुरा विवरण दर्शकों को बिना बोले ही बताती रहती है। प्रकृति ने कुछ ऐसी व्यवस्था की है जिससे व्यक्ति की भाव-भंगिमा, शिष्टता, कार्य-पद्धति को देखते ही यह पता लग सके कि कितने पानी में है। शरीर का बाह्य परिकर प्रभावोत्पादक हो इसके लिए शरीर और मन को इस प्रकार ढाला जाना चाहिए कि वह सौन्दर्य, सज्जा, शिक्षा आदि के अभाव में भी विशिष्टता का परिचय दे सके।
शालीनता वह दूसरी शर्त है जो व्यक्ति को वजनदार बनाती है। इस सत्प्रवृत्ति को सज्जनता, शिष्टता, सुसंस्कारिता आदि नामों से पुकारा जाता है। गुण, कर्म, स्वभाव में गहराई तक घुली यह विशिष्टता पास बैठने वाले को थोड़ी ही देन में यह बता देती है कि सामने वाले को बचकानापन किस मात्रा में घर गया और वजनदार व्यक्तियों में पायी जाने वाली विशेषताओं का कितना उद्भव, समावेश हो गया।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने अन्तःकरण की ऊर्जा ‘लिबाडो’ को अपने शब्दों में प्रतिपादित करते हुए कहा है कि ‘न जाने क्यों यह तथ्य बुद्धिमानों के गले नहीं उतरता कि वे मस्तिष्कीय चमत्कारों की तुलना में कहीं अधिक विभूतियां अपनी अन्तःचेतना को विकसित करते हुए हस्तगत कर सकते हैं।‘‘स्व’’ को यदि उच्चस्तरीय बनाया जा सके तो फिर ‘‘पर’’ के प्रति न कोई शिकायत रहेगी और न कोई आशा-अपेक्षा ही रखनी होगी।’
यह कथन व्यक्ति के व्यापक सर्वांगपूर्ण विकास की चर्चा करते समय काफी महत्व रखता है। यहां उनका संकेत है कि हमें एक विशेष बात का ध्यान रखना होगा कि आत्मिक क्षेत्र की सबसे बड़ी प्यास घनिष्ठ आत्मीयता की है, जिसे व्यवहार में सद्भाव सम्पन्न मैत्री कहते हैं। पुरातन भाषा में इस को अमृत कहते थे। मैत्री परिकर भी बढ़ना चाहिए और वातावरण भी बनना चाहिए। किन्तु वैसा न हो जैसा कि आजकल मित्र बनकर शत्रुता का आचरण करने की विभीषिका उस पुनीत शब्द को बदनाम कर रही है।
इन दिनों वैभव को सर्वोपरि मान्यता मिली हुई है। फलतः सम्पदा का संचय और प्रदर्शन जन साधारण की आकांक्षा व तत्परता का केन्द्र बन गया है। इसी की ललक-लिप्सा में आपाधापी और छीना-झपटी की दुष्प्रवृत्तियां पनपी हैं। फलतः विपन्नतायें बढ़ती चली गयीं। अगले दिनों यह प्रवाह उलटना होगा तथा लोक चेतना को यह सोचने पर सहमत करना होगा कि वह आदर्शों की ओर चले, उसके लिए अन्तःकरण टटोले और अन्तःप्रेरणा से ही मार्गदर्शन प्राप्त करे।
आरंभिक जीवन की ग्रहण संवेदनशीलता के अतिरिक्त व्यक्तित्व निर्माण में एक बड़ा कारण यह भी होता है कि बालक को माता के शरीर का रस मात्र ही नहीं मिलता, वरन् उसकी मानसिक संरचना भी उस नव-निर्मित प्राणी को उपलब्ध होती और ढांचे का अंग बनती है। यहां एक बात विशेष रूप से स्मरण रखने योग्य है कि एक के द्वारा दूसरे को प्रभावित करने में भावनात्मक घनिष्ठता सर्वोपरि भूमिका निभाती है। माता की बच्चे के प्रति जो भावनात्मक संवेदना होती है, वह आदान-प्रदान का समर्थ माध्यम बनती है। माता के द्वारा वह न केवल पोषक आहार ग्रहण करता है, न केवल सुविधा, सुरक्षा के अनुदान उपलब्ध करता है वरन् इन सबसे बड़ी वस्तु स्नेह-दुलार का वह रसायन भी प्राप्त करता है जिसके सहारे गहन स्तर के आदान-प्रदान बन पड़ते हैं। माता-पिता तथा अन्य अभिभावक जो बालक के साथ जितनी भावनात्मक घनिष्ठता एवं सहानुभूति जोड़े रहते हैं, उसे बिना मांगे ही बहुत कुछ गले उतारते रहते हैं।
बालकों का यह उदाहरण यहां इसलिए दिया जा रहा है कि घनिष्ठता, समीपता एवं भावनात्मक आत्मीयता के उस दुहरे प्रभाव को समझा जा सके, जिसमें न केवल सान्निध्य सुख एवं सहयोग मिलता है वरन् अन्तरंग विशेषताओं के आदान-प्रदान का भी मार्ग खुलता है। यहां मैत्री की ओर संकेत किया गया है। मैत्री किसी भी कारण बनी या बढ़ी क्यों न हो, यदि वह गहराई तक पहुंचती और आत्मीयता तक विकसित हुई तो फिर उसका ऐसा प्रभाव भी होना ही चाहिए कि एक पक्ष दूसरे को प्रभावित कर सके।
यह तथ्य इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि व्यक्ति को यदि उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करना अभीष्ट हो तो उसके लिए शिक्षण के साथ-साथ आत्मीयता का गहरा पुट लगाने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। विकृत व्यक्तियों को संतुलित एवं समुन्नत बनाने में स्नेह-दुलार की उपलब्धि इतनी बड़ी औषधि है, जिसकी तुलना में अन्य कोई उपाय-उपचार कारगर नहीं होते देखा गया। प्यार की प्यास हर किसी को रहती है और वह समुचित परिमाण में किसी भाग्यवान को मिल सके तो समझना चाहिए कि व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास हेतु एक प्रभावशाली साधन जुट गया।
प्रतिभा की विलक्षणतायें अनेकों सफलताओं का निमित्त साधन बनती हैं, किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि वह मात्र वंशानुक्रम, सान्निध्य, साधन-शिक्षण आदि बाहरी प्रभाव-अनुदानों से ही पूर्णरूपेण हस्तगत नहीं होती। ऐसी बात होती तो मनुष्य को सचेतन कहते हुए भी परिस्थितियों का दास कहना पड़ता। यह तो भाग्य-प्रारब्ध से भी बुरी बात होती। यदि परिस्थितियां किसी के भले-बुरे बनने का आधार रही होतीं तो किसी को श्रेय या दोष न देकर साधनों को ही सराहा या कोसा जाता जिन्होंने उत्थान या पतन में भूमिका निभाई।
चरित्र मनुष्य की मौलिक विशेषता एवं उसका निजी उत्पादन है। इसमें उसके निजी दृष्टिकोण, निश्चय, संकल्प एवं साहस का पुट अधिक होता है। इसमें बाह्य परिस्थितियों का यत्किंचित् योगदान ही रहता है। असंख्यों ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जिनमें लंका जैसे विषाक्त वातावरण में विभीषण जैसे संत अपने बलबूते समूची प्रतिकूलताओं को चुनौती देते हुए अपने स्थान पर अटल बने रहे। ऐसे भी कम नहीं, जिनमें पुलस्त्य ऋषि के देव परिकर में रावण जैसे दुराचारी का प्रादुर्भाव हुआ और उसने वातावरण को ताक पर उठाकर रख दिया।
यह व्यक्तिगत चरित्र ही है जिसे व्यक्ति अपने बलबूते विनिर्मित करता है। परिस्थितियां सामान्य स्तर के लोगों पर ही हावी होती हैं। जिनमें मौलिक विशेषता है वे नदी के प्रवाह से ठीक उल्टी दिशा में मछली की तरह अपनी पूंछ के बल पर छर-छराते चल सकते हैं। निजी पुरुषार्थ एवं अन्तःशक्ति को प्रसुप्त से उभारते हुए साहसी व्यक्ति अपने को प्रभावशाली बनाते और व्यक्तित्व के बल पर जन सम्मान अर्जित करते देखे गये हैं। यह उनके चिन्तन की उत्कृष्टता, चरित्र की श्रेष्ठता एवं अन्तराल की विशालता के रूप में विकसित व्यक्तित्व की ही परिणति है।
संतों की, सज्जनों की दोस्ती स्वभावतः अपने जैसे लोगों से ही हो जाती है। आवश्यक नहीं कि वे एक ही इलाके या एक ही गांव के हों। दूर-दूर के रहने वाले होने पर भी एक-दूसरे का परिचय कहीं न कहीं से प्राप्त कर लेते हैं और उनके बीच मेल-जोल का सिलसिला चल पड़ता है। अन्ततः वे घनिष्ठ बन जाते हैं। चोर-डाकुओं के भी गिरोह बनते रहते हैं। इसका कारण एक ही है कि हर मनुष्य की अपनी प्रकृति होती है। उसे साथियों की आवश्यकता पड़ती है। चुम्बक लोहे के टुकड़ों को खींचकर अपने पास जमा कर लेती है। मनुष्य भी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप मण्डलियां बना लेते हैं और उनके मिले-जुले प्रयास से चमत्कार दिखाने लगते हैं। यदि मनुष्य अपनी प्रकृति बदल डाले और नयी रीति-नीति अपना ले, तो पुराने सभी मित्र छिन्न-भिन्न हो जायेंगे और नई परिवर्तित प्रकृति के अनुरूप जमघट बढ़ने लगेगा।
एक बच्चा पिता के साथ नदी तट पर गया। हवा चल रही थी और लहरें उठ रही थीं। हर लहर पर एक अलग सूर्य चमक रहा था। बच्चे ने पिता से पूछा—आकाश में सूरज एक ही बड़ा है, पर हर लहर पर तो सैकड़ों-हजारों की संख्या में दीख रहा है और आकार में भी छोटा है। पिता ने समझाया कि आकाश वाला सूरज तो एक ही है। लहरों पर तो उसके प्रतिबिम्ब भर चमक रहे हैं।
इस संसार में जन समुदाय समुद्र की लहरों के समान है। उनके अपने-अपने गुण स्वभाव हैं, पर उनकी वही विशेषतायें हमारे उभरकर आती हैं, जिन्हें हम ढूंढ़ते हैं। सज्जनों के साथ आमतौर से अन्य लोग भी सज्जनता का ही व्यवहार करते हैं। इसके विरुद्ध क्रोधी लोगों का हर किसी से झगड़ा-झंझट होता रहता है। बाजार में अनेकों दुकानें होती हैं, पर उनमें पहुंचते वही लोग हैं, जिन्हें जिस चीज की जरूरत होती है। जिसे मिठाई खरीदनी है वह लोहे की दुकान पर जाकर व्यर्थ हैरान होगा और निराश वापस लौटेगा।
व्यक्तित्व गठन हेतु एकमात्र अवलम्बन :
व्यक्तित्व का गठन मूलतः विचारों पर निर्भर है। चिन्तन मन को ही नहीं शरीर को भी प्रभावित करता है। मनोकायिक गड़बड़ियां चिन्तन की गिरावट का ही परिणाम हैं। इस बात को प्रायः सभी मनोवैज्ञानिक एकमत से स्वीकार करते हैं। चिन्तन की उत्कृष्टता को अपनाने के लिए तथा उसे व्यावहारिक जगत में उतारने से ही भावात्मक तथा सामाजिक समंजन प्राप्त हो सकना संभव है।
इस प्रकार के समंजन की सरल किन्तु सक्षम प्रक्रिया बता पाने में आधुनिक मनःशास्त्री असमर्थ पाये जाते हैं। इस विषय पर वे आपसी खींचतान के अतिरिक्त कुछ उपाय दे सकने में अक्षम ही दिखाई देते हैं। मनोविज्ञान की जाह्नवी का गोमुख सदृश उद्गम स्थल उपनिषद् हैं। इनमें विशेषतया श्वेताम्बर उपनिषद् में ऋषियों ने इस प्रकार के भावात्मक एवं सामाजिक समंजन स्थापित करने, राग-द्वेष आदि विरोधी भावों से उठने हेतु एक पूर्णतया सक्षम, सशक्त प्रक्रिया उद्भूत की है जिसे ‘उपासना’ कहते हैं।
निःसंदेह उपासना श्रेष्ठ चिन्तन एवं उत्कृष्ट व्यक्तित्व के निर्माण का सशक्त माध्यम है। मन की बनावट कुछ ऐसी है, वह चिंतन के लिए आधार खोजता है। जैसा माध्यम होगा, उसी स्तर का चिंतन चल पड़ेगा, तदनुरूप क्रिया-कलाप होंगे। निम्न स्तरीय चिन्तन वाले व्यक्ति के क्रिया-कलाप भी घटिया होना स्वाभाविक है। ऐसा व्यक्ति अपने जैसे दुराचारी-अनाचारी व्यक्ति विनिर्मित करने में ही सहायक होगा, जबकि उच्चस्तरीय चिन्तन करने वाले संत-मनीषी महात्माओं के अनुरूप उनके क्रिया-कलाप भी उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। तदनुरूप उनके सान्निध्य में रहने वाले व्यक्तियों का व्यक्तित्व भी उसी ढांचे में ढलकर सुघड़ स्वरूप प्राप्त करता है। वर्तमान समय में श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्तियों का अभाव है। बहुलता हेय, गये-गुजरों की है। इनसे सामाजिक समंजन की अपेक्षा करना एक विडम्बना है। इन परिस्थितियों में समस्या एक खड़ी होती है कि मानवी व्यक्तित्व को श्रेष्ठ कैसे बनाया जाय? विचार करने पर एक ही रास्ता दिखाई देता है—‘उपासना का अवलम्बन।’
उपासना से जुड़ी आदर्शवादी मान्यतायें एवं प्रेरणायें ही चिन्तन को श्रेष्ठ एवं व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बना सकने में समर्थ हो सकती हैं। उपासना की समग्रता एवं उसके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को भली-भांति समझा जा सके तो व्यक्तित्व निर्माण का सबल आधार मिल सकता है। उपासना का लक्ष्य है—व्यक्तित्व का परिष्कार। इसके निर्धारण से उससे जुड़े आदर्शों एवं उच्चस्तरीय सिद्धांतों द्वारा उपासक को श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। उपास्य में तन्मय होने का अभिप्राय है—उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धांतों में लीन हो जाना और उनके अनुरूप आचरण करना। उपासना द्वारा निर्माण की यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया चलती रहती है। इनमें तन्मयता की पराकाष्ठा उपास्य और उपासक के बीच विभेद को समाप्त कर देती है। द्वैत से उठकर अद्वैत की स्थिति हो जाती है। परमहंस रामकृष्ण का सर्वत्र काली का दर्शन करना, महाप्रभु चैतन्य का कृष्ण से एकाकार हो जाना, स्वामी रामतीर्थ का ब्रह्मभाव में प्रतिष्ठित हो अपने अस्तित्व को भूल जाना, उपासना की तन्मयता एवं उसकी प्रतिक्रियाओं का प्रभाव है। यह असामान्य स्थिति न भी हो तो भी उपासक के विचारों का परिशोधन, परिष्कृतीकरण होता जाता है, भाव-संवेदनाओं में आदर्शवादिता जुड़ने लगती है।
उपासना निराकार की करें या साकार की? इष्ट निर्धारण क्या हो? यह व्यक्तित्व, अभिरुचि एवं मनःस्थिति के ऊपर निर्भर करता है। चिंतन को लक्ष्य की ओर नियोजित किए रखने के लिए साकार अथवा निराकार कोई भी अवलम्बन किया जा सकता है। यह आवश्यक है और उपयोगी भी। इस प्रक्रिया के साथ जुड़े हुए चिन्तन प्रवाह में आदर्शवादिता का जितना अधिक पुट होगा, उसी स्तर की सफलता प्राप्त होगी। इष्ट से तादात्म्य और उससे मिलने वाले दिव्य अनुदानों से वह आधार बन जाता है जिससे उपासक अपने चिन्तन एवं गतिविधियों को श्रेष्ठता की ओर मोड़ सके।
आधुनिक मनोविज्ञान ने जिन नये तथ्यों का उद्घाटन किया है वे आध्यात्मिक मूल्यों की पुष्टि करते हैं। चिन्तन को व्यक्तित्व का मूल आधार माना जाने लगा है। इस संबंध में हुए शोध प्रयास यह स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य का जैसा आदर्श होगा, उसी के अनुरूप उसका व्यक्तित्व विनिर्मित होगा। आदर्श यदि श्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट है तो चिन्तन एवं गतिविधियों में श्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता समायेगी। इसके विपरीत निकृष्ट आदर्श निम्नगामी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देंगे, हेय व्यक्ति गढ़ेंगे। उपासना में इष्ट निर्धारण परोक्ष रूप से श्रेष्ठ आदर्शों की प्रतिष्ठापना है। जिसके निकट आने, तादात्म्य स्थापित करने वाला भी उसी के अनुरूप ढलता-बनता चला जाता है।
एरिक फ्रॉम, हैरी स्टैक सुलीवान एवं डॉ. हेनरी लिड़लहर का मानना है कि हम शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को किसी दिव्य सत्ता देवदूत अथवा सर्वव्यापी चेतना से एकात्म स्थापित करके निश्चयपूर्वक सुधार सकते हैं। उनका कहना है कि हम जिस प्रकार की सत्ता का चिन्तन करते हैं उससे हमारा सम्पर्क उसी प्रकार स्थापित हो जाता है जिस प्रकार माइक्रोवेव्स के द्वारा संसार के विविध रेडियो स्टेशनों से संपर्क हो जाता है। दिव्य सत्ताओं से सम्पर्क एवं उनसे मिलने वाली प्रेरणाओं से आध्यात्मिक ही नहीं शारीरिक मानसिक लाभ भी प्राप्त किये जा सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य वायरलैस के रिसीवर की तरह है जो हर समय भले-बुरे विचारों को ग्रहण करता रहता है। मन में किस प्रकार के विचार उत्पन्न होंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम किससे अपना सम्पर्क जोड़ रहे हैं।
परिष्कृत एवं परिपक्व विचार आस-पास के वातावरण को भी तदनुरूप बनाने में सहायक होते हैं। प्रख्यात विचारक अपटॉन सिक्लेयर अपनी पुस्तक ‘मेण्टल रेडियो’ में स्पष्ट करते है कि उपासना व्यक्तित्व निर्माण की एक समग्र प्रक्रिया है, जिसका अवलम्बन लेने वाला स्वयं श्रेष्ठ बनता और दूसरों को भी प्रभावित करता है। वह अपने विचारों का प्रसारण अभौतिक माध्यमों से लोगों तक कर सकता है। इसमें व्यक्ति एवं वातावरण को अनुवर्ती बनाने के सभी तत्व विद्यमान होते हैं।
प्रसिद्ध मनःशास्त्री जुंग उपासना को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार ‘‘सभी धर्मों में प्रचलित उपासनायें स्वास्थ्य एवं सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक हैं।’’ उनकी मान्यता के अनुसार ‘‘संसार के सभी मानसिक चिकित्सक मिलकर भी उतने रोगियों को आरोग्य प्रदान नहीं कर पाते जितना कि छोटी से छोटी धार्मिक उपासनायें कर देती हैं।’’
व्यक्ति के अधःपतन एवं चिन्तन-चरित्र व्यवहार की त्रिवेणी में बढ़ते जा रहे प्रदूषण को रोकने तथा इसका परिशोधन कर निर्मल-परिष्कृत एवं ऊर्ध्वगामी बनाने में उपासना की आवश्यकता ही नहीं अनिवार्यता भी है। पुरातनकाल के ऋषियों तथा आधुनिक काल के संतों ने इसका अवलम्बन कर स्वयं के व्यक्तित्व को सुघड़ बनाने के साथ ही समूची जाति के समक्ष प्रकाश संकेतक के रूप में स्वयं को उभारा। आज भी भावनात्मक सामाजिक समंजन सर्वतोमुखी परिष्कार एवं समग्र प्रगति के सभी आधार इसमें विद्यमान हैं। समस्याओं की जटिलता से उबरने तथा अपने व्यक्तित्व को गढ़ने के लिए यह राजमार्ग ही सर्वाधिक उपयुक्त है।